मेरे पिताजी एक्साइज़ ऑफ़िस में थे, मैं बढ़िया इंग्लिश में बात करती थी और अपने ऑफ़िस की बाक़ी लड़कियों की तरह दिखती और चलती थी।
मैं उन बाक़ी लड़कियां में से एक थी, जो दिखने में ऊंची जाति और 'अच्छे घर' से लगती थीं।
दिल्ली में उन दस सालों में मैंने बहुत कुछ देखा, सुना और किया। मैंने हर दूसरी रात मूलचंद पर परांठे खाए, हर महीने के अंतिम रविवार को सरोजिनी नगर की ख़ाक छानी और लगभग हर सप्ताहांत में हौज़ ख़ास गांव जाने के लिए ऑटो वालों से लड़ते हुए बिताया।
मैंने दिल्ली में बस एक चीज़ नहीं की। मैंने किसी को यह नहीं बताया कि मैं दलित हूँ।
मैंने किसी को यह बताना चाहा भी नहीं। क्या फ़ायदा होता? कुछ क़रीबी दोस्तों के अलावा, बाक़ी सब आपस में बातें करते, "तुम्हें पता है याशिका एससी है? यार, लगती तो बिलकुल नहीं है।"
कुछ लोग ऑफ़िस में बोलते, "भाई, इन लोगों का क्या है? ये तो सरकार के दामाद हैं।।। इन्हें बस एग्ज़ाम में बैठना होता है, पास तो अपने आप ही हो जाते हैं, मेहनत तो बस आप-हम जैसे लोगों को करनी पड़ती है, क्यों?"
दिल्ली में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के बाहर प्रदर्शन करते छात्र, फ़ाईल फ़ोटो
इस तरह, मैं उनमें में से एक न होकर 'इन लोग' हो जाती। लगभग हर कोई मेरी क़ाबिलियत पर चर्चा कर रहा होता। मेरे चार साल में तीन प्रमोशन, देर तक ऑफ़िस में रह कर काम ख़त्म करना और मेरी कहानियां, जो सोशल मीडिया पर हज़ारों लाइक्स और शेयर्स पाती हैं, शायद किसी को नज़र नहीं आतीं। फ़िर भी जब वो उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं कर पाते तो शायद कहते, "अच्छा! कोलंबिया जर्नलिस़्म स्कूल से है और दलित है!"
मैंने सुना था कि जिस नोट में मैंने पहली बार अपने दलित होने की बात की थी, उसके सोशल मीडिया पर शेयर होने के बाद एक पत्रकार ने कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया दी थी।
ऐसा लगता है कि दोनों बातें एक साथ होना नामुमकिन है और दलित घर में पैदा होते ही इंसान की क़ाबिलियत मर जाती है। मानो एक दलित लड़की का दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से एक में पढ़ना कोई अजूबा था।
अगर मैं दिल्ली के उन दस सालों में पूछने वालों को यह नहीं बोलती कि मैं ब्राह्मण हूं, तो लाजपत नगर में किराये का वो मकान जिसमें मैं सात साल रही, उसमें मुझे कोई छह महीने भी नहीं रहने देता।
मैं छह महीने भी तब रह पाती जब दलित लड़की को घर देने के लिए कोई तैयार होता।
बीआर अंबेडकर, फ़ाईल फ़ोटो
वैसे मेरे मकान मालिक ने कभी पूछा भी नहीं, क्योंकि इसकी ज़रुरत ही नहीं पड़ी। मैं दिखने में 'दूसरी जाति' की जो लगती थी। उन्होंने खुद ही अंदाज़ा लगा लिया (शायद मेरे रंग, मेरी अच्छी नौकरी और मेरी दबंगई को देखकर) कि मैं दलित तो हो ही नहीं सकती।
सारे दलित मानो इंसान न होकर जानवरों की एक नई प्रजाति हो गए, सब एक जैसे दिखते हैं या फिर जैसे दूसरी जाति की तरह दिखना, दलित दिखने से बेहतर है।
मगर हमारे समाज के लिए वही बेहतर है। अगर नहीं होता तो मुझे हर वक़्त इस बात का एहसास न होता कि मैं कितनी भाग्यशाली हूं, जो सफाई देकर अपनी जाति छुपा सकती हूं।
मैं हर तरह के दोस्त बना सकती हूं, जिन्हें दलित से भेदभाव नहीं, वो भी, और जो हमें देखने भर के बाद नहाना पसंद करते हैं, वो भी। मुझे मिलने पर हर कोई मुझे मेरे दम पर आंकेगा, मेरी जाति के दम पर नहीं।
रोहित वेमुला की मौत के बाद भारत में बड़ी बहस छिड़ी हुई है।
पर क्या मैं अपना नोट दिल्ली में रहकर काम करते हुए लिख पाती? क्या मैं इतनी बेबाक होकर यह कह पाती कि मैं दलित हूँ? शायद नहीं। दिल्ली में जो राज़ मैंने इतने साल अपने पास छुपाये रखा, उसको अचानक खोल देना मेरे लिए मुश्क़िल होता, शायद नामुमकिन भी।
यहां न्यूयॉर्क में उस भेद का कोई मोल नहीं रहा। कम से कम, मेरी रोज़ाना ज़िन्दगी में तो नहीं।
यहां क़रीब दो साल से न मुझसे किसी ने मेरी जाति पूछी न मुझे झूठ बोलने पर मजबूर किया। इसलिए तो उस झूठ की ज़रुरत भी अपने आप ख़त्म हो गई।
जाति छुपाना मेरे लिए अब उतनी बड़ी बात नहीं रही, जितनी दिल्ली में थी। अब खुल कर 'बाहर आना' मेरी लिए आसान है और रोहित वेमुला की मौत के बाद ज़रूरी हो गया।
क़ाश वो शहर जिससे मुझे बचपन में ही प्यार हो गया था, जहां मैंने सब कुछ सीखा और जिसने मुझे इतना कुछ दिया, वो मुझे 'मैं' होने की आज़ादी भी दे पाता।
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