बतौर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए मंगलवार पहला दिन है. ऐसे में विकास, विदेश नीति और अर्थव्यवस्था इत्यादि के बीच उनके सामने महिलाओं से जुड़े ये सभी सवाल खड़े हैं.
इन सभी मुद्दों पर उनके और उनकी सरकार के रुख़ का आकलन उम्मीद के साथ भी किया जा रहा है और डर के साथ भी.
इन्हीं दो विचारधाराओं को समझने के लिए बीबीसी ने बात की मधु किश्वर और कविता कृष्णन से और तीन सवालों पर उनकी राय जानी.
मधु किश्वर महिलाओं के मुद्दों की समीक्षा करने वाली मैगज़ीन ‘मानुषी’ की संस्थापक हैं और हाल ही में नरेन्द्र मोदी पर उनकी किताब, ‘मोदी, मुस्लिम्स एंड मीडिया’, प्रकाशित हुई है.
वहीं कविता कृष्णन कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के संगठन ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव वुमेन्स एसोसिएशन (एप्वा) की राष्ट्रीय सचिव हैं और लंबे समय से महिलाओं के मुद्दों पर काम करती रही हैं.
आज़ादी पर नकेल
मधु किश्वर महिलाओं के मुद्दों पर मैगज़ीन प्रकाशित करती हैं.
विचारधारा के स्तर पर भारतीय जनता पार्टी के समर्थक माने जाने वाले राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ, बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद जैसे संगठनों को महिलाओं की वेषभूषा, उनकी पसंद के रिश्ते, घर से बाहर निकलने की आज़ादी इत्यादि पर रोक लगाने की पहल करते हुए अकसर देखा गया है. भारतीय जनता पार्टी की बहुमत वाली नई सरकार का ऐसे मुद्दों पर विवादास्पद रुख़ रखने वाले इन धड़ों की ओर क्या रुख़ होगा?
मधु किश्वर – भारतीय जनता पार्टी के विरोधी संगठन, यानी वाम दल, कांग्रेस और ग़ैर-सरकारी संस्थाओं ने व्यवस्थित ढंग से दुष्प्रचार किया है ताकि लोगों में ये धारणा बने कि भारतीय जनता पार्टी ‘मॉरल पुलीसिंग’ करती है.
‘मॉरल पुलीसिंग’ यानी कथित तौर पर नैतिक मूल्यों को लागू करने के लिए अनाधिकारिक तौर पर बल प्रयोग, चाहे मुसलमान अपराधी तबका हो, चाहे हिन्दू ग़ुंडे हों, जहां कांग्रेस की सरकार रही है, वहां ऐसा हुआ है .
कोशिश रही है कि ग़ुंडा तत्वों को इस्तेमाल कर एक हवा बनाई जाए और उसका आरोप भारतीय जनता पार्टी पर मढ़ दिया जाए. बजरंग दल जैसे शरारती तत्वों को शह देने वाली कांग्रेस ही है.
सलमान रुश्दी के जयपुर लिट्रेरी फ़ेस्टीवल में आने पर रोक, कांग्रेस के शासन में ही लगाई गई थी. ये एक प्रशासनिक समस्या है. भारतीय जनता पार्टी के प्रशासन वाले इलाकों में इस तरह की ग़ुंडागर्दी, अराजकता और हिंसा बर्दाश्त नहीं की जाती.
कविता कृष्णनन – इससे पहले की सरकारें भी दक्षिणपंथी विचारधारा वाले संगठनों पर नकेल कसने में नाकाम रही है. बल्कि पुलिस बल ख़ुद ही ‘मॉरल पुलीसिंग’ करने के लिए जाना जाता है.
अब हम ये जानना चाहते हैं कि नई सरकार के तहत पुलिस का आधिकारिक रवैया क्या होगा? बजरंग दल जैसे संगठन जो महिलाओं को जीन्स पहनने से रोकते हैं, पुरुष मित्रों के साथ बाहर घूमने से रोकते हैं, क्या उन पर सख़्त कार्रवाई होगी?
चुनाव के नतीजे आने के बाद जब आरएसएस की तरफ़ से बार-बार हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना की बात कही जा रही है, तो सवाल उठता है कि केन्द्र सरकार क्या अंतर्जातीय और समान गोत्र के बीच शादियों पर ख़ाप पंचायतों के फ़रमानों पर रोक लगाएगी?
कभी 'लव जेहाद' के नाम पर सांप्रदायिक तनाव फैलाया गया है और अब वैसी ही मुहिम तमिलनाडु में भारतीय जनता पार्टी के सहयोगी दल पीएमके, दलित और ग़ैर-दलित समुदायों के बीच चला रहे हैं. केन्द्र सरकार को तय करना होगा कि वो अपने सहयोगियों का समर्थन करेगी या आम औरतों को आज़ादी से फ़ैसले लेने का अधिकार देगी.
सुरक्षा या नियंत्रण
दिसंबर 2012 के निर्मम सामूहिक बलात्कार के बाद महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन हिंसा के मुद्दे पर कड़े क़ानून की मांग पर सभी राजनीतिक पार्टियां साथ आईं. लेकिन गुजरात में दंगों के दौरान हुई यौन हिंसा के मामलों और ‘स्नूपगेट’ से जुड़े विवाद के संदर्भ में सवाल उठ रहे हैं कि क्या नई सरकार महिलाओं को सुरक्षित महसूस करा पाएगी?
मधु किश्वर – गुजरात में दंगों और उस दौरान हुई यौन हिंसा के बारे में बहुत ग़लत जानकारी फैलाई गई है. इसके पीछे ऐसे लोग हैं जो समाज सेवा की आड़ में दरअसल कांग्रेस के एजेंट हैं.
यौन हिंसा के मामलों की सुनवाई गुजरात से बाहर करवाने के पीछे मक़सद न्याय दिलाना नहीं था बल्कि नरेन्द्र मोदी जैसे नेकनीयत वाले इंसान को झूठे मुकदमों में फंसाने और दोषी क़रार देने का, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया.
कविता कृष्णनन
कविता कृष्णनन महिलाओं के मुद्दों पर लंबे समय से मुखर रही हैं.
गुजरात महिलाओं के लिए सबसे सुरक्षित प्रदेश है, जहां साल 2002 के बाद कोई दंगे नहीं हुए, जबकि कांग्रेस के प्रशासन के दौर में वहां अकसर दंगे होते थे.
गुजरात के किसी भी शहर में लड़कियां देर रात तक गहने पहनकर भी सड़कों पर निकल सकती हैं. यौन हिंसा कहां होगी, जब प्रशासन सुचारू रूप से चलेगा, और यही गुजरात की हक़ीक़त है.
कविता कृष्णन – गुजरात के दंगों में हुए बलात्कार के मामलों में न्याय ना के बराबर मिला है, जो चिंता का एक बड़ा विषय है. बिल्किस बानो तक को न्याय के लिए सुप्रीम कोर्ट तक जाना पड़ा.
साथ ही सुरक्षा के नाम पर मनमानी दूसरा बड़ा मसला है. ‘स्नूपगेट’ के नाम से जाना जाने वाला प्रकरण जिसमें ख़ुद नरेन्द्र मोदी का नाम भी लिया गया, एक महिला की कथित सुरक्षा के लिए उसकी ज़िन्दगी पर की गई ग़ैर-क़ानूनी जासूसी का मसला था.
लेकिन मौजूदा प्रधानमंत्री, गुजरात सरकार और भारतीय जनता पार्टी का रवैया इसे यह कह कर टाल देने का था कि ये जासूसी ग़ैरक़ानूनी भी हो तो वो महिला की सुरक्षा के लिए की गई थी.
देश की महिलाएं अब ये कहना चाहती हैं कि हमारी सुरक्षा के नाम पर हमारे अधिकार ना छीने जाएं और सुरक्षा के नाम दूसरे एजेंडा ना चलाएं जाएं. और ऐसी आशंका इसीलिए है क्योंकि इस मसले की ठोस जांच करने ही नहीं दी गई.
राजनीतिक प्रतिनिधित्व
मौजूदा लोकसभा के 543 में से 62 सांसद यानी क़रीब 11 प्रतिशत महिलाएं हैं. इनमें से 30 भारतीय जनता पार्टी की हैं. महिला आरक्षण विधेयक महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व को बढ़ाकर 33 प्रतिशत करता है. वर्ष 1996 में पहली बार संसद में पेश किए गए इस विधेयक को क्या नई सरकार अपने कार्यकाल में दोनों सदनों में पारित करवाना चाहेगी?
मधु किश्वर – नई सरकार अगर महिला आरक्षण विधेयक को इसकी मौजूदा शक्ल में पारित कर भी पाती है तो ये महिलाओं के लिए नुक़सानदेह ही होगा. ‘रोटेशन’ की प्रक्रिया वाले इस विधेयक से असहमति ज़ाहिर करते हुए ‘मानुषी’ ने एक वैकल्पिक विधेयक भी प्रस्तावित किया है.
मौजूदा राजनीति में जैसे शरीफ़ मर्दों की जगह नहीं है वैसे ही शरीफ़ औरतों के लिए जगह ऐसे नहीं बनेगी. औरतों की सहभागिता बढ़ने में अगर भ्रष्ट महिलाएं, बहू-बेटी ब्रिगेड या ग़ुंडागर्दी करने वाली नेता राजनीति में आएं तो कोई फ़ायदा नहीं है.
महिलाओं के बेहतर प्रतिनिधित्व के लिए चुनाव सुधार लाने की ज़रूरत है. इसका प्रयास राजनीतिक पार्टियों, चुनाव आयोग और आम लोगों को मिलकर करना होगा.
कविता कृष्णन – ये सरकार निश्चित तौर पर बहुमत के साथ आई है जो इसे एक अच्छी स्थिति में लाता है और अब महिला आरक्षण विधेयक को पारित ना करने का कोई बहाना नहीं है. इसलिए हमें उम्मीद है कि इस बार विधेयक पारित हो.
पर इससे पहले भी भारतीय जनता पार्टी के पास अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार के तहत मौका था और उन्होंने विधेयक पारित नहीं करवाया.
पर मसला किसी एक राजनीतिक पार्टी का नहीं है, सभी पार्टियों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को लेकर पूर्वाग्रह मौजूद हैं और साथ ही पार्टियों के ढांचे में ही दिक्कतें हैं.
इन्हीं ढांचागत त्रुटियों को दूर करने के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण ज़रूरी है. ताकि महिलाओं को टिकट दिए जाएं और टिकट देने के बाद वो जीतने की अवस्था में भी हों.
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