रानी लक्ष्मीबाई
आज भी महिलाओं के साहस और धैर्य की बात पर रानी लक्ष्मीबाई का नाम बहुत ही गर्व से लिया जाता है. इन्होंने देश को अंग्रेजों से आजादी दिलाने में अहम भूमिका निभायी. लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवम्बर 1835 में हुआ था. इनके बचपन का नाम मणिकर्णिका था, जिसे इन्हें प्यार से उसे मनु कहा जाता था. यह मराठा शासित झांसी राज्य की रानी और 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की वीरांगना थीं. रानी लक्ष्मीबाई ने मात्र 23 वर्ष की आयु में ब्रिटिश साम्राज्य की सेना से संग्राम किया. इस दौरान इन्होंने दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिये.लक्ष्मीबाई ने हिम्मत नहीं हारी और हर हाल में झांसी राज्य की रक्षा करने का निश्चय किया. इतना ही नहीं इन्होंने ने महिलाओं के हित में काम किये. रानी लक्ष्मीबाई ने झांसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करने के लिये एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया. जिसमें इन्होंने सिर्फ महिलाओं की भर्ती की और उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण दिया. 17 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में ब्रिटिश सेना से लड़ते-लड़ते रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुयी.
रानी अहिल्याबाई
इतिहास के पन्नों में महारानी अहिल्याबाई का नाम भी बहादुर महिलाओं में शीर्ष पर है. इतिहास-प्रसिद्ध सूबेदार मल्हारराव होलकर की सुपौत्री अहिल्याबाई का जन्म सन् 1725 में हुआ था. दस-बारह वर्ष की आयु में उनका विवाह हुआ. उनतीस वर्ष की अवस्था में विधवा हो गयी. अहिल्याबाई किसी बड़े भारी राज्य की रानी नहीं थीं. उनका कार्यक्षेत्र अपेक्षाकृत सीमित था. बावजूद इन्होंने काफी कुछ किया. जिस समय शासन और व्यवस्था के नाम पर घोर अत्याचार हो रहा था. समाज में महिलाओं और बच्चों की सिसकियां निकल रही थी. उस वक्त वह एक बड़े सहारे के रूप में उभर कर सामने आयी थी. समाज में फैली कुरीतियों और अंध्ाविश्वास को मिटाने में उन्होंने अहम भूमिका निभायी. इन्होंने अपने राज्य की सीमाओं के बाहर भारत-भर के प्रसिद्ध तीर्थों और स्थानों में मंदिर बनवाये, घाट बंधवाये कुओं और बावड़ियों का निर्माण कराया. 13 अगस्त सन् 1795 को उनकी जीवन-लीला समाप्त हो गयी.
रानी दुर्गावती
वीरागंनाओं की सूची में रानी दुर्गावती का नाम भी आता है. वह कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल की एकमात्र संतान थीं. महोबा के राठ गांव में 1524 ई0 की दुर्गाष्टमी पर इनका जन्म हुआ था जिससे दुर्गावती नाम हुआ. सबसे खास बात यह थी कि वह अनुरूप ही तेज, साहस, शौर्यमान थी. रानी दुर्गावती की प्रसिद्धि से प्रभावित होकर राजा संग्राम शाह ने अपने पुत्र दलपत शाह से विवाह उनका विवाह कराया, जब कि उनकी जातियां भिन्न थी. इन्होंने मुस्लिम शासकों के विरूद्ध संघर्ष किया और उन्हें अनेकों बार पराजित किया. अकबर ने अपनी कामुक लिप्सा के लिए, एक विधवा पर किसी तरह के जुल्मों की कसर नहीं छोडी थी, बावजूद उन्होंने अपने मान सम्मान और आजादी के लिए युद्ध भूमि में उसके आगे डटी रहीं. रानी दुर्गावती ने अपने धर्म और देश की दृढ़ता पूर्वक रक्षा की ओर रणक्षेत्र में अपना बलिदान 1564 में कर दिया था.
रानी रुद्रम्मा देवी
देश की वीर बालाओं में रानी रुद्रम्मा देवी का नाम भी मशहूर है. उन्होंने भी देश को अग्रेंजों से मुक्त कराने में अहम भूमिका अदा की थी. इतना ही सबसे खास बात तो यह आज भी हमारे देश में बहादुर महिलाओं के सम्मान में इनका नाम लिया जाता है. वीर व साहसिक महिलाओं को रानी रुद्रम्मा देवी पुरस्कार से सम्मानित किया जाता है. रानी रुद्रम्मा का जन्म डेक्कन प्लेटियो में हुआ था. यह राजा गनपतिदेवा की पुत्री थी. रानी रुद्रम्मा बचपन से ही लड़को की तरह रहती थी. उनका रहन सहन सोच सब पुरुषों जैसा ही था. 14 वर्ष की उम्र में ही उन्हें काफी ख्याति प्राप्त हुयी. उनका विवाह नाइडाडवेलू के राजकुमार के साथ हुआ था. उन्होंने अपने पिता की तरह से न्याय और राज्य में शांति के लिये अपना जीवन न्योछावर किया.
रानी चेनम्मा
रानी चेनम्मा के साहस एवं उनकी वीरता के कारण देश की वीरांगनाओ में उनका नाम शामिल है. वह भारत के कर्नाटक के कित्तूर राज्य की रानी थीं. कर्नाटक में बेलगाम के पास एक गांव ककती में 1778 को पैदा हुई चेनम्मा के जीवन में प्रकृति ने कई बार क्रूर मजाक किया. बचपन से ही घुड़सवारी, तलवारवाजी, तीरंदाजी में विशेष रुचि रखने वाली रानी चेनम्मा की शादी बेलगाम में कित्तूर राजघराने में हुयी. रानी चेनम्मा के पुत्र की मौत हो गयी तो उन्होंने शिवलिंगप्पा को अपना उत्ताराधिकारी बनाया. रानी का यह कदम अंग्रेजों को रास नहीं आया. वे विरोध करने लगे. जिस पर कई युद्ध भी हुये. अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में रानी चेनम्मा ने अपूर्व शौर्य का प्रदर्शन किया, लेकिन जीवन के अंतिम पलों में उन्हें अग्रेंजो ने कैद कर लिया था. उन्हें बेलहोंगल किले में रखा गया जहां उनकी 21 फरवरी 1829 में वीरगति को प्राप्त हुयी.
रानी अवंतीबाई
सर्वविदित है कि 1857 की क्रांति में रामगढ़ की रानी अवंतीबाई रेवांचल में मुक्ति आंदोलन की मुख्य सूत्रधार थी. उनका विवाह बचपन में ही मनकेहणी राजकुमार विक्रमाजीत सिंह के साथ हुआ था. विक्रमाजीत सिंह बचपन से पूजा-पाठ एवं धार्मिक अनुष्ठानों में लगे रहते. अत: राज्य संचालन का काम उनकी पत्नी रानी अवंतीबाई ही करती रहीं. इन्होंने अंग्रेजों से लड़ने में अहम भूमिका निभायी. 1857 ईस्वी में सागर एवं नर्मदा परिक्षेत्र के निर्माण के साथ अंग्रेजों की शक्ति में वृद्धि हुयी. अब अंग्रेजों को रोक पाना किसी एक राजा या तालुकेदार के वश का नहीं रहा. इस दौरान रानी ने एक गुप्त सम्मेलन किया. गुप्त सम्मेलन में उन्होंने एक पत्र और दो काली चूड़ियों की एक पुड़िया बनाकर प्रसाद में बांटा. जिसमें पत्र में लिखा गया- अंग्रेजों से संघर्ष के लिए तैयार रहो या चूड़ियां पहनकर घर में बैठो. इसके बाद रानी ने लोगों को जागरुक किया. 20 मार्च 1858 रानी ने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए गिरधारी नाई की कटार छीनकर खुद को बलिदान कर दिया.
चांद बीबी
चांद बीबी चांद खातून या चांद सुल्ताना के नाम से भी मशहूर रही थी. वह एक भारतीय मुस्लिम महिला योद्धा थी. चांद बीबी अहमदनगर के हुसैन निजाम शाह प्रथम की बेटी और अहमदनगर के सुल्तान बुरहान-उल-मुल्क की बहन थी. उनकी शादी बीजापुर सल्तनत के अली आदिल शाह प्रथम से हुई थी. चांद बीबी को सबसे ज्यादा सम्राट अकबर की मुगल सेना से अहमदनगर की रक्षा के लिए जाना जाता है. नवम्बर 1595 में अहमदनगर पर मुगलों ने हमला कर दिया. उस दौरान चांद बीबी ने अहमदनगर का नेतृत्व किया और उसे बचाने में सफल रहीं. इसके बाद शाह मुराद ने चांद बीबी के पास एक दूत भेजा और बरार के समझौते के बदले में घेराबंदी हटाने की पेशकश की. 1596 में उन्होंने बरार मुराद, जिसने युद्ध से सेना हटा लेने का संकेत दे दिया था, को सौंपकर शांति स्थापित करने का फैसला किया. ऐसे एक नहीं अनेक उदारहरण है जिनमें उजागर है कि चांद बीवी ने मुगलों के सामने एक मजबूत कटार बनकर खड़ी रहीं.
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