अब स्विट्ज़रलैंड में ऐसा सोचने वालों का सपना सच भी हो सकता है. मगर बात यहाँ तक पहुँची कैसे है ये कहानी वहाँ से शुरू करते हैं.
दरअसल दुनिया के सबसे अमीर देशों में से एक स्विट्ज़रलैंड में इन दिनों तनख़्वाहों को लेकर काफ़ी उठापटक चल रही है.
विभिन्न कंपनियों के बड़े अधिकारियों को कितना वेतन मिले इस पर काफ़ी बहस हुई है. इस मुद्दे पर इसी साल दो बार राष्ट्रव्यापी जनमत संग्रह हो चुका है. एक में तो ये तय भी हो गया कि उन अधिकारियों को मिलने वाले बोनस की एक सीमा तय हो जाए और नौकरी छोड़ने पर अधिकारियों को मोटा पैसा न दिया जाए.
दो जनमत संग्रह अभी और होने हैं. एक में इस पर मतदान होगा कि काम करने वालों का एक न्यूनतम वेतन तय हो.
मगर दूसरा जनमत संग्रह विवादास्पद होगा. इसमें ये प्रावधान है कि कोई व्यक्ति अगर देश का वैधानिक नागरिक है तो फिर वह चाहे काम करे या न करे उसे एक निश्चित वेतन दिया ही जाएगा.
सबको एक निश्चित आय की बात काफ़ी क्रांतिकारी लगती है मगर ये कोई नया आइडिया नहीं है. इस तरह के 'रामराज्य' की रूपरेखा 16वीं सदी में इंग्लैंड के लेखक और सांसद टॉमस मूर ने भी रखी थी.
अब इसमें एक तबका कहता है कि ये एक सही क़दम होगा तो वहीं दूसरी ओर इसके विरोधी भी हैं.
'सबकी हो निश्चित आय'
सभी को एक निश्चित आय के सिद्धांत का समर्थन करने वाले एनो श्मिट मानते हैं कि इस तरह का अभियान चलाने के लिए 2013 ही सबसे उपयुक्त समय है और स्विट्ज़रलैंड सबसे सही जगह.
वह कहते हैं, "यूरोप में और बल्कि शायद पूरी दुनिया में स्विट्ज़रलैंड ही एकमात्र ऐसी जगह है जहाँ सीधे लोकतंत्र के ज़रिए लोगों को किसी चीज़ को वास्तविकता में बदलने का हक़ है."
स्वतंत्र और सीधे लोकतंत्र का मतलब है कि स्विट्ज़रलैंड में अगर लोग चाहें तो इस बात के लिए भी मतदान कर सकते हैं कि सब को बीयर मुफ़्त मिलनी चाहिए.
"अगर मेरी एक निश्चित तनख़्वाह हो जाएगी तो काम तो मैं फिर भी करूँगा मगर शायद फिर मैं ये सोच सकूँ कि चलो एक हफ़्ता अपनी बेटी के साथ गुज़ार लेता हूँ"
-चे वैगनर, अभियान समर्थक
देशभर में एक जनमत संग्रह कराने के लिए ज़रूरी हैं एक लाख हस्ताक्षर. अगर किसी मुद्दे पर एक लाख हस्ताक्षर हो जाते हैं तो उसके बाद जनमत कराना ही पड़ता है और उसका नतीजा मानना ज़रूरी भी होता है.
अब स्विट्ज़रलैंड में जब ये ख़बर सामने आई कि यूबीएस जैसे बड़े बैंकों ने एक ओर तो बड़ा नुक़सान दिखाया और दूसरी ओर बड़े अधिकारियों को मोटा बोनस भी देते रहे तो इसके बाद तनख़्वाहों को लेकर और उसके न्यायसंगत होने पर गर्मागर्म बहस छिड़ गई.
जब देश में ऐसी बहस छिड़ी हो तो सबको एक निश्चित तनख़्वाह की बात पर एक लाख हस्ताक्षर जुटा लेना मुश्किल काम नहीं था. अब सरकार को इसके लिए जनमत संग्रह करवाना भी पड़ेगा.
पक्ष और विपक्ष की राय
स्विट्ज़रलैंड में बिज़नेस की दुनिया के लोग इस फ़ैसले से काफ़ी हताश हैं. एक का तो कहना था कि ये ऐसी पीढ़ी का काम है जिसने न कभी व्यापक आर्थिक मंदी देखी और न ही बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी झेली.
कई का तो ये भी कहना है कि ये, काम करने वालों को हतोत्साहित करने वाला क़दम होगा और इसके बाद स्विस कंपनियों को कुशल कर्मचारी खोजने में भी मुश्किलें आएँगी.
मगर श्मिट इस बात से इनकार करते हैं. उनका कहना है कि स्विट्ज़रलैंड में इसके तहत सभी को हर महीने ढाई हज़ार स्विस फ़्रैंक देने की बात कही गई है. इस रक़म से लोग किसी तरह ज़िंदग़ी गुज़ार पाएँगे और वैसे भी उस समाज में जहाँ लोग सिर्फ़ पैसे कमाने के लिए काम करते हैं काम किसी तरह की 'ग़ुलामी से अलग नहीं' है.
बल्कि श्मिट को तो लगता है कि इसके बाद लोगों को ये तय करने की आज़ादी मिल जाएगी कि वे वास्तव में क्या करना चाहते हैं.
उनके मुताबिक़, "बात ये नहीं है कि लोग कम काम करेंगे बल्कि लोगों को ये तय करने की आज़ादी होगी कि वे क्या करें."
इसके समर्थन में अभियान चलाने वाले चे वैगनर ज़्यूरिख़ विश्वविद्यालय में मास्टर्स डिग्री की पढ़ाई कर रहे हैं और एक पीत्ज़ा कंपनी में डिलिवरी का काम भी करते हैं.
वह कहते हैं, "मेरी एक बेटी है और मुझे उसकी देखभाल भी करनी पड़ती है. मगर ज़िंदग़ी में संघर्ष भी काफ़ी हैं. मुझे काम करना पड़ता है ताकि हम जी सकें."
चे के मुताबिक़, "अगर मेरी एक निश्चित तनख़्वाह हो जाएगी तो काम तो मैं फिर भी करूँगा मगर शायद फिर ये सोच सकूँ कि चलो एक हफ़्ता अपनी बेटी के साथ गुज़ार लेता हूँ."
लागत
स्विट्ज़रलैंड में जनमत संग्रह का फ़ैसला बाध्यकारी होता है
अब सवाल ये उठता है कि इस तरह की योजना की लागत कितनी आएगी?
इस पर कोई ठोस आँकड़ा तो नहीं दे रहा है मगर आश्चर्यजनक रूप से बहस इस बात पर नहीं हो रही है कि स्विट्ज़रलैंड ये बोझ उठा पाएगा या नहीं. इस बात पर तो बल्कि आम सहमति नज़र आती है कि आर्थिक तौर पर ये योजना लागू की जा सकती है.
इसके समर्थन में अभियान चलाने वालों का कहना है कि लोगों को अपने काम करने के और पारिवारिक जीवन के बीच सामंजस्य बैठाने के बारे में ज़्यादा सोचने की ज़रूरत है.
इसके बाद शायद आयकर नहीं बढ़ेगा मगर वैल्यू ऐडेड टैक्स 20 से 30 फ़ीसदी तक बढ़ सकता है.
इस योजना के समर्थकों के मुताबिक़ आगे चलकर दरअसल इससे पैसे बचाए ही जा सकेंगे क्योंकि सबको एक निश्चित आय का मतलब होगा कि कल्याणकारी योजनाओं पर ख़र्च होने वाला धन इससे बचाया जा सकेगा.
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