राजनेता गूगल प्लस हैंगआउट में हिस्सा ले रहे हैं, फ़ेसबुक पर टेलीविज़न जैसे इंटरव्यू दिए जा रहे हैं और स्मार्ट फ़ोन मैसेजिंग ऐप व्हाट्सऐप के ज़रिए टैक-सेवी लाखों मतदाताओं से संपर्क साधने की कोशिश की जा रही है.

दरअसल भारत का 16वां आम चुनाव अप्रैल और मई में नौ चरणों में होगा. कुछ विश्लेषकों का मानना है कि कौन सी पार्टी सबसे ज़्यादा सीटें जीतेंगी इसमें क्लिक करें सोशल मीडिया की अहम भूमिका होगी.

'इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया' (आईएएमएआई) की अप्रैल, 2013 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक़ और मुंबई स्थित आयरिस नॉलेज फ़ाउंडेशन के अनुसार फ़ेसबुक यूजर्स देश भर की 543 लोकसभा सीटों में 160 सीटों के चुनाव परिणाम को प्रभावित करेंगे.

बजट में हिस्सेदारी

सोशल मीडिया को जिन राजनीतिक दलों ने गंभीरता से लिया है, उनमें क्लिक करें कांग्रेस और मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी भी शामिल हैं.

वोट में बदल पाएगा सोशल मीडिया का शोर?

लिहाजा मुंबई स्थित आईएमआरबी इंटरनेशनल और आईएएमएआई के अक्तूबर, 2013 में हुए अध्ययन के मुताबिक़ इन पार्टियों ने अपने चुनावी बजट का दो से पाँच फ़ीसदी हिस्सा सोशल मीडिया पर ख़र्च कर रही हैं.

पिछले चुनाव के दौरान भारत में सोशल मीडिया का उपयोग बेहद सीमित स्तर पर हुआ था. लेकिन आज देश भर में फ़ेसबुक का इस्तेमाल क़रीब 9.3 करोड़ लोग कर रहे हैं जबकि 3.3 करोड़ लोग ट्विटर का इस्तेमाल करते हैं.

यही वजह है कि प्रत्येक राजनीतिक दल अपनी ऑनलाइन उपस्थिति को दमदार बनाता दिख रहा है. भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी उन भारतीय राजनेताओं में शामिल हैं जिन्होंने सबसे पहले अपनी वेबसाइट तैयार की और बाद में ट्विटर, फ़ेसबुक और गूगल प्लस पर भी आए.

उनके प्रमुख प्रतिद्वंदी राहुल कांग्रेस पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के अघोषित उम्मीदवार हैं. लेकिन उनकी ना तो अपनी वेबसाइट है और ना ही वे ट्विटर, फ़ेसबुक और गूगल प्लस जैसे सोशल नेटवर्क पर मौजूद हैं.सोशल मीडिया की अहमियत

भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से राजनीति में आए आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल के ट्विटर पर 15 लाख फॉलोअर है. केजरीवाल आम आदमी पार्टी की स्थापना से एक साल पहले नवंबर, 2011 में ट्विटर से जुड़े थे.

इसके क़रीब दो साल बाद मोदी ट्विटर पर आए. उनके क़रीब 36 लाख फॉलोअर है.

वोट में बदल पाएगा सोशल मीडिया का शोर?

यूपीए-2 सरकार में केंद्रीय मंत्री शशि थरूर ने कहा, "अब कोई गंभीर राजनेता सोशल मीडिया की उपेक्षा नहीं कर सकता." भारतीय राजनेताओं में हाल फिलहाल तक थरूर के सबसे ज़्यादा फॉलोअर हुआ करते थे.

वह आगे कहते हैं, "सोशल मीडिया के ज़रिए जनता के एक ख़ास हिस्से तक पहुंचा जा सकता है. ऐसे में इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है और साफ़ है कि विपक्षी पार्टी भी इस पर ध्यान दे रही है."

अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के राष्ट्रपति चुनाव अभियान की तर्ज पर भारतीय राजनीतिक दल सोशल मीडिया की जानकारियों का इस्तेमाल कर रहे हैं.

सोशल मीडिया पर किस चीज की चर्चा चल रही है, इसकी निगरानी के लिए भारत की प्रमुख कंपनियां पिनस्ट्रॉम डिजिटल मार्केटिंग एजेंसी का सहारा लेती हैं. अब इस एजेंसी के उपभोक्ताओं में राजनीतिक दल भी शामिल हो गए हैं.

राजनीतिक दलों का फ़ायदा

मुंबई स्थित अपने दफ़्तर से एजेंसी रोज़ाना क़रीब एक सौ ऑनलाइन प्लेटफॉर्म से दस हज़ार के क़रीब राजनीतिक वक्तव्यों को संग्रहित कर रही है और उसका विश्लेषण कर रही हैं. यह एजेंसी राष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर सोशल मीडिया पर चल रही चर्चाओं पर नज़र रख रही है जिसके चलते यह राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दोनों राजनीतिक दलों को फ़ायदा पहुंचा रही है.

आम आदमी पार्टी दिल्ली विधानसभा चुनाव में प्रभावी प्रदर्शन के बाद पहली बार आम चुनाव में उतरी है. पार्टी के सोशल मीडिया के रणनीतिकार अंकित लाल बताते हैं कि उन्होंने भी पिनस्ट्रॉम की मदद से यह तुलना कराई है कि उनकी पार्टी दूसरी पार्टियों से अलग कैसे है.

वोट में बदल पाएगा सोशल मीडिया का शोर?

'ओहियो सेंटर ऑफ़ एक्सीलेंस' के शोधकर्ताओं में शामिल प्रोफ़ेसर अमित सेठ राइट स्टेट यूनिवर्सिटी में जुलाई से ऑनलाइन राजनीतिक रुझान पर नज़र रख रहे हैं. वह बताते हैं कि भविष्य में सोशल मीडिया के आंकड़े ओपनियन पोल की जगह ले लेंगे.

अमित सेठ कहते हैं, "सोशल मीडिया के आंकड़े से हम रैली से पहले, रैली के दौरान और रैली के बाद के मूड को भांप सकते हैं."

हालांकि कुछ लोग सोशल मीडिया के प्रभाव को संदेह की नजर से देखते हैं. बेंगलुरु स्थित 'सेंटर फॉर इंटरनेट एंड सोसायटी' के कार्यकारी निदेशक सुनील अब्राहम ने कहा, "सोशल मीडिया वास्तविक पैमाना नहीं है, यह केवल अभिजात्य वर्ग के लिए पैमाना हो सकता है."

संशय करने वाले लोगों का यह भी मानना है कि भारत की अधिकांश जनता अशिक्षित है और ग्रामीण इलाक़ों में इंटरनेट की सुविधा का अभाव है ऐसे में नेताओं के लिए ज़रूरी है कि वे ज़मीनी स्तर पर रैलियां करें और देश के आम मतदाताओं के पहुंचने के लिए अख़बारों में विज्ञापन दें.

राजनीतिक दल अपना चुनाव प्रचार मोबाइल फ़ोन पर भी कर रहे हैं. भारत में क्लिक करें आजकल शौचालय से ज्यादा मोबाइल फ़ोन मौजूद हैं. भारत की आधी से ज़्यादा आबादी के पास मोबाइल फ़ोन मौजूद है.

भारतीय जनता पार्टी के आईटी और सोशल मीडिया सेल के प्रभारी अरविंद गुप्ता कहते हैं, "मोबाइल हमारी रणनीति का अहम हिस्सा है."

बीजेपी सबसे आगे

वोट में बदल पाएगा सोशल मीडिया का शोर?

भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनावी अभियान में जिन तकनीकों का इस्तेमाल किया है उसमें मोदी के भाषणों को रियल टाइम पर देश भर में मोबाइल फ़ोन पर उपलब्ध कराना है. गुप्ता बताते हैं, "यह हमारी मौलिक खोज है."

देश भर में स्मार्टफ़ोन इस्तेमाल करने वालों की संख्या बढ़ रही है और ऑनलाइन लोगों की संख्या भी.

यही वजह है कि व्हाट्सऐप का इस्तेमाल भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों पार्टियां मतदाताओं के पास तस्वीर, वीडियो और संदेश भेजने के लिए कर रही हैं.

दिल्ली स्थित मोबाइल मार्केटिंग फ़र्म वन97 कम्यूनिकेशन के मिलिंद पाठक बताते हैं, "भारत में मोबाइल फ़ोन को छोड़कर कोई दूसरा माध्यम इतने बड़े पैमाने पर लोगों तक नहीं पहुंचता."

आम आदमी पार्टी जैसे राजनीतिक दल ने तो मिस्ड कॉल के ज़रिए हज़ारों लोगों को सदस्यता दी. ऐसे में पाठक मानते हैं कि आने वाले दिनों में राजनीतिक दलों में मोबाइल का इस्तेमाल बढ़ेगा.

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