मुस्लिम महिलाएं हिजाब क्यों पहनती हैं और इसे पहनना छोड़ने पर उन्हें किस तरह के हालात का सामना करना होता है.
बीबीसी की पत्रकार शाइमा ख़लील ने दस साल हिजाब पहनने के बाद इसे न पहनने का फ़ैसला लिया.
लेकिन अब एक बार फिर उन्हें हिजाब पहनना होगा.
पढ़ें शाइमा का तजुर्बा
मुस्लिम देशों में हिजाब महिलाओं का ऐसा पहनावा है जो प्रतीकात्मक ज़्यादा है. मैंने अपना हिजाब उतार दिया था लेकिन पाकिस्तान संवाददाता बनने के बाद एक बार फिर मुझे इसे पहनना होगा.
1950-60 के दशक की हमारी पारिवारिक तस्वीरें मिस्र के सामाजिक और राजनीतिक बदलाव के बारे में बहुत कुछ बोलती हैं. पुरुषों की सैन्य पोशाक़ों की वजह से नहीं बल्कि महिलाओं की वजह से.
वे छोटी आस्तीनों वाली कमर पर तंग पोशाक़े पहने हैं. कुछ युवा महिलाओं की पोशाक़ें तो घुटनों के ऊपर ही ख़त्म हो जाती हैं.
शॉपिंग या यूनिवर्सिटी के लिए जाते वक़्त हमारे घर की औरतों और उनकी दोस्तों का हेयरस्टाइल देखकर ऐसे लगता है जैसे तस्वीरों किसी पुरानी ग्लैमर पत्रिका की हों.
वहाबी अवतार
लेकिन फिर वक़्त बदल गया. 80-90 के दशक में सऊदी अरब और अन्य खाड़ी देशों में काम करने गए लोग अपने साथ इस्लाम का वहाबी अवतार मिस्र ले आए.
राजनीतिक इस्लामी आंदोलन भी मजबूत हो रहे थे, ख़ासकर 'मुस्लिम ब्रदरहुड'. और फिर मेरे परिवार की औरतों के सिर पर हिजाब आ गया.
यह महिलाओं के लिए एक इस्लामी दायित्व है या नहीं, इस बात पर बहस लंबी और जटिल है जो कभी-कभी तनावपूर्ण भी हो जाती है.
ग़ैर इस्लामी?
अक़्सर दिया जाने वाला तर्क़ यह है कि क़ुरान में महिलाओं से अपना सिर और सीना ढककर रखने के लिए कहा गया है.
इस्लाम के विद्वान इसका अलग-अलग मतलब निकालते हैं. वो पैंगबर मुहम्मद की उस हदीस पर भी एक राय नहीं होते जिसमें उन्होंने महिलाओं के चेहरे और हाथों की ओर इशारा करते हुए कहा है कि इन्हें छोड़कर बाक़ी सबकुछ ढका होना चाहिए.
मैंने बीस साल की उम्र होने तक हिजाब नहीं पहना. माँ के दबाव के बावजूद मुझे ऐसा करने के लिए मजबूर नहीं किया गया.
मेरी पैंट और टीशर्ट की ओर इशारा करके माँ अक़्सर कहती थीं कि, "तुम किस बात का इंतज़ार कर रही हो, अगर तुम्हें कुछ हो गया तो क्या इस हालत में ख़ुदा का सामना करोगी."
मुझे भी अपने अंदर से ये लगना लगा कि हिजाब पहनना सही है. साल 2002 के अंत में मैंने हिजाब पहन लिया.
और अगले दस सालों तक, जिस दौरान मैंने बीबीसी के साथ काम करना शुरू किया और लंदन आई, मैं हिजाब पहनती रही.
आस्था या आदत?
मेरा आदर्श वाक्य था, "मैं बीबीसी की पत्रकार हूँ, हिजाब पहनने वाली पत्रकार नहीं."
जब मैं टीवी पर दिखी तो मेरे संस्थान के बाहर के कुछ लोगों ने इस पर सवाल भी उठाया. लेकिन मेरे संपादकों के लिए यह मुद्दा नहीं था.
और फिर पिछले साल मैंने ख़ुद को और अपने धर्म को लेकर स्वयं से कई व्यक्तिगत सवाल किए. यह कि मैं क्या आस्था से कर रही हूँ और क्या आदत से?
मुझे अपने धर्म का कितना प्रदर्शन करना चाहिए? अगर मैं हिजाब छोड़ दूं तो क्या मैं कम मुसलमान हो जाउंगी?
और अंतिम जबाव था नहीं. मैंने हिजाब न पहनने का फ़ैसला किया. मुझे तैयार होने में घंटों लगते हैं. मैंने अंत में हिजाब पहनने के वक़्त हिजाब नहीं पहना.
दस सालों में पहली बार मैंने ये सोचा कि मेरे बाल कैसे लग रहे हैं?
बिना हिजाब के घर से बाहर निकलना मुश्किल था. मुझे अपनी दहलीज़ लांघने में तीस मिनट लगे. मैं बार-बार शीशा देखकर सोच रही थी कि क्या मैं हिजाब न पहनने के लिए आश्वस्त हूँ.
धर्म छोड़ने के आरोप
जब मैं घर से बाहर निकली तो मेरे मन में हज़ारों विचार थे. मैं सोच रही थी कि ऐसा करने के लिए ईश्वर मुझ सज़ा देगा. लोग पूछेंगे शाइमा ये तुमने क्या किया.
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. मेरे दोस्तों ने मेरा साथ दिया. सोशल मीडिया ने मुझ पर अपना धर्म छोड़ने के आरोप लगाए.
लेकिन यह सच नहीं था. मैं अब भी उतनी ही मुसमान हूँ. बस मुसलमान दिखती नहीं हूं.
मुझे सबसे ज़्यादा डर अपने परिवार की प्रतिक्रिया था. एक रिश्तेदार ने तो फ़ोन पर किसी की मौत की ख़बर सुनने के बाद पढ़ी जाने वाली आयत पढ़ दी.
और अब मैं बीबीसी की पाकिस्तान संवाददाता बनने जा रही हूँ. देश के कुछ रूढ़िवादी इलाक़ों में परंपराओं और अपनी सुरक्षा का ध्यान रखते हुए मुझे फिर से हिजाब पहनना होगा.
विडंबना देखिए, हिजाब छोड़ने की हिम्मत करने के बाद अब फिर से मुझे हिजाब पहनना होगा, कम से कम कुछ समय के लिए.
अच्छी बात ये है कि मैंने अपने पुराने हिजाब फेंके नहीं थे.