स्वस्थ होने का क्या अर्थ है? स्वस्थ होने का अर्थ है, शारीरिक रूप से बलवान होना, मानसिक रूप से शांत व स्थिर रहना और भावनाओं में निर्मल होना। जब आप भीतर से अभय और असंतुलित महसूस करते हैं, तब आप स्वस्थ नहीं हैं। जब मन कठोर हो या धारणाओं में फंसा हो, तब वह स्वस्थ नहीं है। जब आपकी भावनाएं बहुत कटु हों और उनमें बहुत कड़वाहट हो, तब आप भावनात्मक रूप से स्वस्थ नहीं हैं।
स्वास्थ्य वह है, जो आपके अंतरतम स्तर से बाहर और बाहर से भीतर प्रवाह होता है। जीवन की चार विशेषताएं हैं: उसका अस्तित्व होता है, वह विकसित होता है, अभिव्यक्त होता है और बुझ जाता है। और इस जीवन का होना, उसका विकास, अभिव्यक्ति और उसका बुझना, सब पंचभूतों: पृथ्वी, जल, वायु, आकाश व अग्नि पर निर्धारित है। आयुर्वेद के अनुसार, जीवन अनम्य भागों में नहीं बंटा हुआ है। वह एक सामंजस्यपूर्ण और लयबद्ध धारा है। यह पंचभूत, जिनसे पूरी सृष्टि बनी है, यह भी अलग-अलग विभागों में बंटे हुए नहीं हैं। यह एक से दूसरे में प्रवाह होते हैं- अग्नि वायु के बिना संभव नहीं, पृथ्वी और जल के भीतर आकाश तत्व है।
जीवन के अध्ययन को आयुर्वेद कहते हैं। वेद का अर्थ है ज्ञान यानी किसी विषय का ज्ञान होना और आयुर का अर्थ है, जीवन। आयुर्वेद के समग्र दृष्टिकोण में व्यायाम, भोजन, श्वास व ध्यान शामिल है। अच्छा स्वास्थ्य कैसे प्राप्त करें? पहले, आप आकाश तत्व की ओर ध्यान दें, अर्थात् अपने मन की ओर। यदि आपका मन धारणाओं और विचारों से घिरा है, तो उससे आपके शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है और कोई न कोई बीमारी उत्पन्न होने लगती है। यदि आपका मन शांत, ध्यानस्थ और सुखद है, तो शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ेगी और बीमारियां उत्पन्न नहीं होंगी।
सबसे पहला उपाय है, मन को शांत करना- और यह सृष्टि के सबसे सूक्ष्म स्तर, अर्थात् आकाश तत्व से होता है। फिर वायु तत्व आता है। ठीक ढंग से श्वास लेने से और अरोमाथेरेपी से इस पर प्रभाव डाला जा सकता है। यदि प्राणऊर्जा का स्तर बढ़ा हो, और ठीक ढंग से श्वास का आवागमन हो रहा हो, तो बीमारी के होने से पहले ही उसे रोका जा सकता है। योग यही करता है। योग सूत्रों में महर्षि पतंजलि कहते हैं कि योग का लक्ष्य है, दु:ख के उत्पन्न होने से पहले ही उसे रोक देना, उस बीज के अंकुरित होने से पहले ही उसे भस्म कर देना। यह सबसे सुंदर सूत्र है।
अगला तत्व है, जलतत्व। उपवास करने से और शरीर की शुद्धि करने से पूरे अस्तित्व में संतुलन आता है। और अंतिम उपाय- अलग-अलग जड़ी बूटियां, दवाइयां और सर्जरी- पृथ्वीतत्व। यह सब अंतिम चरण पर आता है, जब और कुछ काम नहीं करता। जब आपने पहले के हर कदम की उपेक्षा की हो, तब बीमारियां होना अनिवार्य हो जाता है। हमारी श्वास में कई रहस्य हैं, क्योंकि हर भावना के साथ, सांस की एक लय जुड़ी हुई है और हर लय का हमारे मन और शरीर पर प्रभाव पड़ता है। आपको केवल इसके प्रति सजग होना है और इसे महसूस करना है।
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संवेदनाओं और मन के इस सहसंबंध के प्रति सजग होना ही ध्यान है। फिर आता है उचित आहार। आप उतना ही भोजन लें जितना आवश्यक हो। भोजन अच्छे से पचना चाहिए, जिससे आपको भारीपन महसूस न हो, न ही सोते समय और न ही जब आप सुबह उठें या ध्यान में बैठें। उचित मात्रा में आहार- मिष्ठ, ताजा और कम मिर्च वाला। साल में एक हफ्ता स्वयं के लिए निकालें। उस समय स्वयं को प्रकृति के साथ संरेखित करें, एक हो जाएं। सूर्योदय पर उठ जाएं, उचित आहार लें, कुछ व्यायाम करें: योग और सांसों का व्यायाम, कुछ क्षण संगीत के साथ रहें, कुछ समय मौन में रहें और इस सृष्टि का आनंद लें। प्रकृति के साथ एक होने से आप पुन: ऊर्जा से भर जाते हैं और आने वाले लंबे समय तक जीवंत और उत्साह से भरपूर रहते हैं।
— श्री श्री रविशंकर जी
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