आईएस प्रमुख अबू बकर अल-बग़दादी ने ख़ुद को 'ख़लीफ़ा' यानी दुनिया के मुसलमानों का नेता बताया.

ख़िलाफ़त क्या है? ये कैसे शुरू हुआ. ख़लीफ़ा कौन हैं? आईएस की घोषणा के पीछे उनकी कौन सी महत्वाकांक्षाएं छिपी हैं?

विश्लेषण कर रहे हैं बीबीसी के एडवर्ड स्टुअर्ट

जून में इस्लामिक स्टेट ने जब 'ख़िलाफ़त' की घोषणा की तो ऐसा लगा कि उसकी महत्वाकांक्षाओं और ऐतिहासिक फंतासी को स्वीकृति मिल गई हो.

अल-बग़दादी का कहना था कि 'ख़िलाफ़त' के प्रति अपनी निष्ठा जाहिर करना दुनिया भर के मुसलमानों की धार्मिक जिम्मेदारी है.

मध्य-पूर्व क्षेत्र में इसके ख़िलाफ़ तीखी प्रतिक्रिया हुई और आईएस को भारी आलोचना का सामना करना पड़ा.

मुसलमान क्यों ख़िलाफ़त चाहते हैं?

तो क्या आईएस की मुसलमानों से की गई इस गुजारिश को कम आंकना ख़तरनाक है? 'ख़िलाफ़त' क्या है, और क्या ये मुसलमानों की आकांक्षाओं को तेज़ करता है?

आख़िरी 'ख़िलाफ़त' तुर्की का ऑटोमन साम्राज्य था जो अब से क़रीब 90 साल पहले ख़त्म हो गया.

दुरुह सपने

साल 2006 में मिस्र, मोरक्को, इंडोनेशिया और पाकिस्तान में रहने वाले मुसलमानों पर किए गए 'गैलअप सर्वेक्षण' में शामिल दो-तिहाई लोगों ने "सभी इस्लामी देशों को एक नई ख़िलाफ़त के तहत एक हो जाने" का समर्थन किया था.

आखिर क्यों इतने सारे मुसलमान इस नामुमकिन प्रतीत होने वाले सपने में यकीन रखते हैं? इसका जवाब 'ख़िलाफ़त' के इतिहास में छिपा है.

अरबी में ख़लीफ़ा का अर्थ प्रतिनिधि या उत्तराधिकारी होता है. कुरान में इसे न्यायप्रिय शासन के रूप में देखा गया है. पहले आदम फिर दाऊद और सुलेमान को धरती पर ख़ुदा का ख़लीफ़ा माना जाता है.

जब सन् 632 में पैगम्बर मोहम्मद की मृत्यु हुई तो उनके उत्तराधिकारी को मुस्लिम समुदाय के नेता के रूप में ख़लीफ़ा का ख़िताब मिला.

मुसलमान क्यों ख़िलाफ़त चाहते हैं?

पहले चार ख़लीफ़ाओं, जिन्हें 'राशिदून' कहते हैं, ने क़रीब तीन दशकों तक शासन किया.

'द इनएविटेबल खलीफा' के लेखक रज़ा पनख़ुर्स्त के मुताबिक़ इन चार खल़ीफ़ाओं का चुनाव आम सहमति से हुई थी.

पनख़र्स्त कहते हैं कि पहले चार ख़लीफ़ाओं को आदर्श ख़लीफ़ा माना जाता है. वो कहते हैं कि सच्चे ख़लीफ़ा ख़ुद भी क़ानून से ऊपर नहीं होते.

तख्तापलट

शिया मुसलमान इतिहास की इस व्याख्या को स्वीकार नहीं करते. वो मानते हैं कि पैगंबर के चचेरे भाई अली को ख़लीफ़ा न बनने देने के लिए पहले दो ख़लीफ़ाओं ने आपस में मिलकर एक सफल तख्तापलट किया था.

पहली ख़िलाफ़त को लेकर हुआ यह विवाद इस्लाम के इतिहास में सबसे लंबे समय से चल रहा विवाद है.

लेकिन आज के सुन्नी मुसलमानों, जिनमें से अधिकांश तानाशाही शासन में रहते हैं, वो आम सहमति से बने ख़लीफ़ा शासन को लेकर गहरा आकर्षण हो सकता है.

ख़िलाफ़त को लेकर आकर्षण का दूसरा बड़ा कारण ये है कि ये मुसलमानों को मुस्लिम शासकों की महानता की याद दिलाता है.

पहले चार 'आदर्श ख़लीफ़ाओं' के दौर के बाद उम्मयद और अब्बासी शासन के शाही ख़लीफ़ाओं का दौर आया.

इस्लाम का स्वर्ण युग

इतिहासकार प्रोफेसर ह्यूग केनेडी का कहना है, "पैगंबर की मृत्यु के 70 साल बाद स्पेन और मोरक्को से लेकर मध्य एशिया और फिर मौजूदा पाकिस्तान के दक्षिणी छोर तक फैला मुसलमानों का विशाल साम्राज्य एक मुसलमान नेता के अधीन रहा."

मुसलमान क्यों ख़िलाफ़त चाहते हैं?

केनेडी ने बताया, "और यही है मुसलमानों की एकता, मुस्लिम संप्रभुता का विस्तार."

'इस्लाम का स्वर्ण युग' कहे जाने वाला ये दौर महान, बौद्धिक और सांस्कृतिक रचनात्मकता से लैस शख्सियतों का युग रहा.

इसके बावजूद मुस्लिम साम्राज्य का शासन इतनी तेज़ी से और इतनी दूर-दूर तक फैला कि सभी मुस्लिम इलाकों को समेट पाना मुश्किल होता चला गया.

जैसे-जैसे सत्ता कमजोर होती चली गई, ख़िलाफ़त की धारणा न केवल किसी विशेष वंश परंपरा के लिए राजनीतिक दुविधा का शक्ल लेती गई, बल्कि इसके सामने धार्मिक चुनौतियां भी खड़ी होने लगीं.

प्रतिस्पर्धी ख़लीफ़ा

ख़लीफ़ा को एकता का प्रतीक मानने के बावजूद मुस्लिम आस्था को बदलने में मात्र एक सदी लगी और दुनिया ने समानांतर, यहां तक कि प्रतिस्पर्धी ख़लिफ़ाओं का उदय देखा.

अब्बासी ख़लीफ़ा लगभग पांच सौ साल सत्ता में रहे. उनका सन् 1258 में बेहद ख़ैफ़नाक अंत हुआ.

बग़दाद पर मंगोलों का अधिकार होने पर शहर के अंतिम ख़लीफ़ा को दरी में लपेट कर मंगोल ने घोड़ो के पैरों तले तब तक रौंदा गया जब तक उनकी मौत न हो गई.

इस तरह की मौत को सम्मान के रूप में लिया जाता था क्योंकि मंगोलों का विश्वास था कि ओहदेदार लोगों को बिना उनका ख़ून बहाए मौत दी जानी चाहिए.

मुसलमान क्यों ख़िलाफ़त चाहते हैं?

हालांकि, ख़िलाफ़त संस्था बच गई. अब्बासी परिवार के सदस्यों को ममलूकों ने काहिरा में नाममात्र के ख़लीफ़ा के रूप में मान्यता दी.

ममलूक वे हैं जिन्हें आज सुन्नी इस्लामी सत्ता का प्रतीक के रूप में देखा जाता है. इसके जरिए एक ऐसे एकल नेता का आदर्श स्थापित किया गया जो मुसलमानों को एकजुट रख सके.

इसके बाद एक नए साम्राज्य का उदय हुआ.

ओटोमन सुल्तान ने अगले 400 सालों तक इस्लामिक दुनिया पर शासन किया.

ख़िलाफ़त आंदोलन का अंत

मुसलमान क्यों ख़िलाफ़त चाहते हैं?तुर्की में मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने खिलाफत को ख़त्म किया.

ख़िलाफ़त आंदोलन का अंत मुस्तफा कमाल अतातुर्क के हाथों हुआ. आधुनिक तुर्की के नायक, कमाल ने साल 1924 में ख़िलाफ़त का अंत करते हुए तुर्की को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित कर दिया. अंतिम ओटोमन ख़लीफ़ा को इस्ताम्बुल से निष्कासित कर दिया गया.

लेकिन वे जिस ख़िलाफ़त संस्था का प्रतिनिधित्व करते थे वह करीब 1300 साल तक अस्तित्व में रही. और इसके अंत ने बौद्धिक मुसलमानों के जीवन पर गहरा असर छोड़ा.

लीड यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर और 'रिकॉलिंग द ख़िलाफ़त' के लेखक सलमान सैय्यद का कहना है कि 1920 के दशक में मुस्लिम विचारकों का अचानक संसद और ताज की भूमिका के बारे में ढेर सारे गंभीर सवालों से सामना होने लगा. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था.

वे सवाल करते हैं, "क्या मुसलमानों को इस्लामिक स्टेट में जीने की जरूरत है? स्टेट कैसा होना चाहिए?"

मुसलमान क्यों ख़िलाफ़त चाहते हैं?

20वीं सदी के मध्य में मिस्र के जमाल अब्दुल नासिर जैसे नेताओं ने इसका जवाब देने की कोशिश की. पैन-अरबइज्म के नाम से जानी जाने वाली विचारधारा ने धर्मनिरपेक्ष ख़िलाफ़त की धारणा को पेश किया.

संयुक्त अरब गणराज्य की स्थापना

इसी सिलसिले में 1950 के दशक के दौरान नासिर ने मिस्र और सीरिया को मिलाकर संयुक्त अरब गणराज्य की स्थापना की.

लेकिन इसराइल के गठन के बाद मध्य-पूर्व में सबकुछ बदल गया. पनख़ुर्स्त का तर्क है कि पैन-अरबइज्म इसराइल सैन्य शक्ति के आगे बिखर कर रह गया.

पनख़ुर्स्त, हिज़्ब-उत-तहरीर नामक एक संगठन से जुड़े हैं जिसकी स्थापना साल 1950 में ख़िलाफ़त आंदोलन को फिर से शुरू करने के मक़सद के की गई थी.

लेकिन 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध में मध्य-पूर्व पर शासन करने वाली सत्ता को हिज़्ब-उत-तहरीर नापसंद थी. इसका परिणाम ये हुआ कि पनख़ुर्स्त को मिस्र की जेल में चार साल गुज़ारने पड़े.

मुस्लिम ब्रदरहुड

मुसलमान क्यों ख़िलाफ़त चाहते हैं?

ट्यूनिशिया, मिस्र और लीबिया जैसे अरब देशों में जनांदोलनों के दौरान पश्चिमी देशों को महसूस हुआ कि मुसलमानों को लोकतंत्र की ज़रूरत है.

फिर मिस्र में जनतांत्रिक तरीके से निर्वाचित मुस्लिम ब्रदरहुड सरकार को जनरल अब्दुल फतह अल-सीसी के नेतृत्व में सेना ने उखाड़ फेंका.

इसके बाद सीरिया और इराक में खूनी संघर्ष हुआ और इस्लामी राज्य की अराजकता को दुनिया ने देखा.

लीड यूनिवर्सिटी के सलमान सैय्यद कहते हैं, "कई लोग कहेंगे कि इस्लामिक स्टेट का उदय अल-सीसी द्वारा किए गए तख़्तापलट से शुरू होता है."

सैय्यद का कहना है, "फिलहाल मुसलमानों पर शासन करने वाली ज्यादातर सरकारों और मुसलमानों के बीच की खाई बढ़ती जा रही है. ख़िलाफ़त को एक तरह से मुसलमानों में स्वराज की तड़प कहा जा सकता है. "

वर्दी और झंडे का काला रंग

इस्लामिक स्टेट ने बड़ी चालाकी से ख़िलाफ़त के इतिहास के उन तत्वों फायदा उठाया है जो उनके हितों को बखूबी पूरा करे.

मुसलमान क्यों ख़िलाफ़त चाहते हैं?

इतिहासकार ह्यूग केनेडी बताते हैं कि उनकी वर्दी और झंडे का रंग जानबूझकर काला रखा गया है ताकि इससे इस्लाम के स्वर्ण युग की याद आए. 8वीं सदी में अब्बासी भी अपने दरबार में काले रंग की ड्रेस पहनते थे.

उनका मूल नाम, इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड लेवान उस दौर की याद दिलाता है जब दो देशों के बीच कोई सरहद नहीं थी, क्योंकि दोंनो के इलाक़े इस्लामी ख़िलाफ़त का हिस्सा थे.

आईएस की सफलता से प्रतीत होता है कि ख़िलाफ़त कितना गंभीर और अत्यंत महत्वपूर्ण महत्वाकांक्षा बन चुकी है.

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