आम तौर पर अध्यात्म को बुढ़ापे से जोड़कर देखा जाता है, जंबकि इसकी शुरुआत युवावस्था से ही हो जानी चाहिए। हम विज्ञान, कला और भाषा से जुड़े ज्ञान एवं जानकारी को अपने बचपन से ही जमा करना शुरू कर देते हैं, ताकि हम-आप सांसारिक कामकाज और सरोकारों को ठीक ढंग से समझ सकें। जीवन के विस्तार और उसके आयाम की स्पष्ट समझ हासिल करने के लिए हमें अध्यात्म या आत्मज्ञान को जरिया बनाना पड़ता है।
हमारे विज्ञान की पहुंच सूक्ष्म कणों से लेकर विशाल खगोलीय पिंडों तक हो चुकी है। हम तकनीक की मदद से पदार्थों की संरचना में फेर-बदल भी करने लगे हैं, लेकिन जीव और पदार्थ को किसी सहज संरचना में बदलने वाले किसी प्रयोजन, किसी चेतना और किसी सहज संदेश या निर्देश के बारे में हम अभी तक अनजान हैं। ऐसे प्रश्नों का उत्तर खोजने या जीवन को उसकी समग्रता में समझने की दृष्टि से अध्यात्म को विज्ञान का अगला चरण माना जा सकता है।
अध्यात्म सूक्ष्म चेतना और ऊर्जा से सरोकार रखता है। इसे आप तभी आत्मसात कर सकते हैं, जब आप अपने जीवन काल की चरम ऊर्जा को धारण किए हों। ये ऊर्जा 25-40 वर्ष की आयु सीमा में मौजूद रहती है। अतीत में आत्मबोध हासिल करने वाले सारे इंसानों ने इसी आयुसीमा में अध्यात्म को जीवन के रूपांतरण की प्रक्रिया के तौर पर अपनाया था। आज भी बहुत से लोग अपनी युवा ऊर्जा का सम्यक दोहन करके अपने जीवन को सहज-सरल और आनंद का स्त्रोत बना रहे हैं।
अध्यात्म जीवन या संसार से कट कर रहने का अभ्यास नहीं है, बल्कि जीवन के हर स्पंदन को महसूस करने की सहज प्रक्रिया है। इसे अपने रोजमर्रा की जिंदगी में युवावस्था से ही शामिल कर लेना चाहिए। यह आपके लिए जीवन या स्वास्थ्य बीमा से हजार गुना फायदेमंद साबित होगा।
सरल-मनोज (ईश्वर की आत्मकथा के लेखक)
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