कई क्षेत्रीय ख़ेमों ने हिंसा की वजह कथित तौर पर बांग्लादेश से घुसपैठ बताई, तो कई ने इसे दो पक्षों के बीच सांप्रदायिक हिंसा बताया. इस मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी गई थी.
लेकिन दो साल बीत जाने के बाद भी इस मामले पर अब तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं हो सकी है.
इसी बीच भारत में अवैध रूप से रह रहे कथित बांग्लादेशियों के ख़िलाफ़ अपनी चुनावी रैलियों में दिए भाषणों से क्लिक करें नरेंद्र मोदी ने इन संवेदनशील इलाक़ों में एक अजीब सी बैचेनी को जन्म दे दिया है.
पश्चिम बंगाल के सीरमपुर में मोदी ने कहा था कि चुनाव के नतीजे आने के साथ ही बांग्लादेशी ‘घुसपैठियों’ को बोरिया-बिस्तर समेट लेना चाहिए.
आशय था कि उनकी सरकार आई तो भारत में बिना किसी वैध दस्तावेज़ के साथ रह रहे कथित बांग्लादेशियों को वापस भेज दिया जाएगा.
साल 2012 की हिंसा से सबसे ज़्यादा प्रभावित कोकराझार के मुसलमान गांवों में लोग इस मुद्दे पर बातचीत करने से डरते हैं. उन्हें भय है कि कहीं फिर से कोई अनहोनी न हो जाए.
'धूल में मिल गए थे घर'
कोकराझार के दुरामारी गांव में सात मुसलमान बहुल बस्तियां हैं, जिसके तीनों तरफ़ बोडो-काचारी आदिवासी रहते हैं.
ऐसी ही एक बस्ती के निवासी नूरूद्दीन अली कहते हैं, “हमारे गांव के लगभग सभी मुसलमान 1951 और 1971 के दौर के हैं. कई दशक से हम यहीं हैं और सभी के पास भारत की नागरिकता के पुख़्ता प्रमाण हैं. हम भारतीय हैं, भारत की रोटी खाते हैं. अगर यहां क्लिक करें बांग्लादेशी मिलते हैं तो उन्हें बाहर निकालने में हम भी भारत सरकार का साथ देंगे.”
असम संधि
‘असम संधि’ के अनुसार 1966 से 1971 के बीच बांग्लादेश से आए लोगों को भारत के नागरिक के तौर पर पंजीकृत किए जाने के लिए वक़्त दिया गया था, जबकि साल 1971 के बाद सीमा पार कर भारत आए प्रवासियों का भारत में रहना अवैध तय किया गया था और उन्हें उनके मूल देश वापस भेजा जाना था.
नूरूद्दीन आगे कहते हैं, “साल 2012 की हिंसा को बाहरी लोग बोडो और बांग्लादेशियों के बीच हुई हिंसा बताते हैं, जो बिल्कुल झूठ है. हिंसा बोडो और मुसलमानों के बीच हुई थी और इस इलाक़े के घर धूल में मिल गए थे. यह समझा पाना मुश्किल है कि हमने कैसे-कैसे दिन देखें.”
पास ही की एक बस्ती के अमजद कहते हैं, “ये सौ फ़ीसदी वोट बैंक की राजनीति है, नरेंद्र मोदी ने बांग्लादेशियों को निकालने की बात इसलिए कही क्योंकि उन्हें लगता है कि मुसलमान कांग्रेस को ही वोट देते हैं. साथ ही ग़ैर-मुसलमानों को एकजुट करने के लिए भी ये पैंतरा अच्छा था.”
दुरामारी में ही पक्की सड़क की दूसरी तरफ़ रहने वाले बोडो-कचारी आदिवासियों के एक बड़े वर्ग में रोष इस बात को लेकर है कि अपनी ही ज़मीन पर वो अल्पसंख्यक होते जा रहे हैं.
आदिवासियों में 'राजनीति से विरक्ति'
लेकिन कई ऐसे भी हैं, जो अब इस राजनीति से उकता गए हैं और चाहते हैं कि कोई उनके गांवों के विकास की भी बात करे.
दुरामारी के एक बुज़ुर्ग कमला सोरोवरी कहते हैं, “इस राजनीति पर क्या कहें. मुझे नहीं लगता कि नरेंद्र मोदी ने जो कहा था कि वो बांग्लादेशियों को वापस भेज देंगे, उसे वो असल में कर पाएंगे. अन्य कई समस्याएं हैं इस गांव में, जिनकी बात कोई नहीं करता. सिचाईं के लिए पानी का अभाव है, खेती के लिए सरकार से कोई मदद नहीं मिलती.”
कोकराझार में राज्य सरकार के ख़िलाफ़ भी निवासियों में क्लिक करें ख़ासा रोष हैं.
स्थानीय नागरिक बॉयाल हेमब्रॉम कहते हैं, “कांग्रेस की सरकार इतने वर्षों से असम पर राज कर रही है, लेकिन ग्रामीण इलाक़ों के लिए उसने कुछ भी ठोस नहीं किया, ख़ासकर आदिवासियों के लिए. तरुण गोगोई सरकार के पास दो साल बचे हैं. उन्होंने अगर बेहतर काम नहीं किया तो अगले चुनाव में असम से क्लिक करें कांग्रेस नहीं जीत पाएगी.”
अलग बोडोलैंड की मांग
इन सबके बीच अलग बोडोलैंड राज्य की मांग करने वाले दलों को भी नए प्रधानमंत्री से काफ़ी उम्मीदें हैं.
ऑल बोडोलैंड स्टूडेंट्स यूनियन के कोकराझार प्रमुख लॉरेंस इसलारी कहते हैं, “नरेंद्र मोदी की सरकार बहुमत से बनी है इसलिए हमें उम्मीद है कि लंबे दौर से चले आ रहे क्लिक करें बोडोलैंड के मुद्दों का समाधान हो सकेगा. काफ़ी ज़रूरी है कि राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के लिए सर्वे का काम अबाधित पूरा हो. ताकि पता चल सके कि बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद के इलाक़े में मुसलमानों की आबादी इतनी जल्दी कैसे बढ़ी. ये स्वाभाविक तो क़त्तई नहीं है.”
"भारतीय सीमा में दो तरह के बांग्लादेशी आते हैं. एक तो वे, जो बेहतर ज़िंदगी की उम्मीद में भारतीय शहरों में अवैध रूप से बसने के लिए आते हैं और दूसरे वे जो रोज़गार के लिए हर रोज़ या सप्ताह या किसी मौसम में कई बार सीमा पार कर आते जाते हैं. ये भारतीय शहरों में राजमिस्त्री और अन्य कारीगरी का काम करते हैं."
-लिपी घोष, कलकत्ता विश्वविद्यालय
इसलारी इलाक़ाई समस्याओं के निपटारे में देरी के लिए राष्ट्रीय मीडिया को भी ज़िम्मेदार मानते हैं.
उन्होंने कहा, “दिल्ली में कोई छिटपुट घटना हो जाती है तो राष्ट्रीय मीडिया बुलेटिन्स की झड़ी लगा देती है, लेकिन इसी देश के हिस्से, असम की बड़ी से बड़ी समस्याओं के बारे में कोई ख़बर नहीं दिखाता. हम जिस समस्या से दो-चार हो रहे हैं वो भी एक राष्ट्रीय समस्या है.”
असम और अन्य भारतीय राज्यों में कितने बांग्लादेशी अवैध रूप से रहते हैं, उसका विश्वसनीय आंकड़ा मिलना बेहद मुश्किल है.
श्वेत-पत्र
असम सरकार ने एक श्वेत-पत्र जारी कर कहा था कि साल 1985 से 2012 के बीच विभिन्न न्यायालयों ने 61,774 लोगों को अवैध प्रवासी क़रार दिया था. इनमें साल 1971 के बाद बांग्लादेश-असम सीमा पार कर आए लोग शामिल हैं.
‘असम संधि’ के अनुसार 1966 से 1971 के बीच बांग्लादेश से आए लोगों को भारत के नागरिक के तौर पर पंजीकृत किए जाने के लिए वक्त दिया गया था, जबकि साल 1971 के बाद सीमा पार कर भारत आए प्रवासियों का भारत में रहना अवैध तय किया गया था और उन्हें उनके मूल देश वापस भेजा जाना था.
असम की ही तरह पश्चिम बंगाल में भी अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशियों का मुद्दा काफ़ी संवेदनशील है.
राज्य के सबसे अधिक मुस्लिम बहुल ज़िले मुर्शिदाबाद से सटे सीमावर्ती इलाक़ों की सबसे बड़ी समस्या ये है कि कथित बांग्लादेशियों और मूल स्थानीय निवासियों का रहन-सहन और भाषा एक जैसी है.
ऐसे में कई बार स्थानीय लोगों को पुख़्ता काग़ज़ात दिखाकर साबित करना पड़ता है कि वो बांग्लादेशी नहीं, भारतीय हैं.
'सीमाओं से रोज़ आर-पार'
मुर्शिदाबाद की जॉलंगी सीमा पर भारत की तरफ़ बसे पुराने गांव की ज़ुलेखा बीबी कहती हैं, “पांच साल पहले मेरी शादी हुई थी, तब मैं यहां आई, लेकिन मेरे ससुर और उनका परिवार तो पिछले चार-पांच दशकों से यहां हैं. सीमावर्ती इलाक़ा होने की वजह से अपनी ज़मीन पर खेती भी मयस्सर नहीं होती. तमाम दस्तावेज़ लेकर खेती के लिए जाना होता है, फिर भी कई बार वापस भेज दिया जाता है. उधर जिन्हें घुसपैठ के लिए सीमा पार करनी होती है वो तो कर ही लेते हैं.”
वो आगे कहती हैं, “हमारे गांव में बांग्लादेश से पहले-पहले और कुछ हाल फ़िलहाल में आए लोगों ने भारत के राशन और वोटर कार्ड बनवा लिया है. कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सीमापार से आते-जाते तो हैं लेकिन वो किसलिए आते हैं और कहां जाते हैं ये हम नहीं बता सकते.”
जानकार भी मानते हैं कि भारत और बांग्लादेश के बीच बातचीत के बाद सीमाओं पर कंटीले तार लगाकार सील करने की योजना के बाद घुसपैठ में कमी आई है, लेकिन घुसपैठ पूरी तरह से बंद नहीं हुई है.
'कमज़ोर' सीमा रक्षा
कलकत्ता विश्वविद्यालय के दक्षिण और दक्षिण एशियाई अध्ययन विभाग की प्रमुख लिपी घोष कहती हैं, ”भारतीय सीमा में दो तरह के बांग्लादेशी आते हैं. एक तो वे, जो बेहतर ज़िंदगी की उम्मीद में भारतीय शहरों में अवैध रूप से बसने के लिए आते हैं और दूसरे वे जो रोज़गार के लिए हर रोज़ या सप्ताह या किसी मौसम में कई बार सीमा पार कर आते जाते हैं. ये भारतीय शहरों में राजमिस्त्री और अन्य कारीगरी का काम करते हैं. दोनों तरफ़ की सीमाओं पर सुरक्षाबलों की ढीली पकड़ से ऐसा संभव होता है.”
ऐसे में अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत में अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशियों को वापस भेजने की योजना पर काम शुरू भी करते हैं, तो उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी बांग्लादेशी के अवैध प्रवासियों की पहचान करना और ख़ुद बांग्लादेश को अपने नागरिक वापस लेने के लिए तैयार करना.
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