रात से हो रही बारिश और भारी ठण्ड के बावजूद बड़ी संख्या में उनके प्रशसंक उन्हें सुनने के लिए पहुंचे.
''मुझे जीने दो'' नामक सत्र में उन्होंने अपने फ़िल्मी सफ़र के अनुभव साझा किए.
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'गाइड' फ़िल्म की रोज़ी के रूप में उनका किरदार सारी हदें तोड़ता हुआ, मुक्ति की आकांक्षा लिए हुए है तो 'ख़ामोशी' में किसी का जीवन सुधारने की मर्मस्पर्शी सहानुभूति. 'मुझे जीने दो' की चमेली जान, 'तीसरी कसम' की हीरा जान और 'रेशमा और शेरा' की रेशम...
ऐसे असंख्य किरदारों को बड़ी ही ख़ूबसूरती से निभाने वाली वहीदा रहमान को एक समर्थ अभिनेत्री की पहचान मिली.
नाम नहीं बदला
उन्होंने वहीदा रहमान नाम से शोहरत और कामयाबी पाई पर 1950 के जिस दशक में वे फ़िल्मों में आईं, तब सिल्वर स्क्रीन पर कुछ और नाम रखने का रिवाज़ था.
दिलीप कुमार, मधुबाला और मीना कुमारी सभी ने सुनहरे पर्दे के लिए अपना नया नाम चुना था.
उन्हें कहा गया कि उनका नाम लंबा है, अच्छा नहीं है, ना ग्लैमरस है, ना ही कोई सेक्स अपील है उनमें. तब वो महज 16 साल की थीं, नाबालिग होने की वजह से उनका कॉन्ट्रैक्ट उनकी माँ साइन किया करती थीं.
पर वहीदा अपने माँ-बाप के दिए नाम को ही रखने पर अड़ी रहीं. अपने काम से उन्होंने साबित कर दिया कि यही नाम उनके लिए सबसे अच्छा है.
फ़िल्मी सफ़र के अनुभव साझा करते हुए वहीदा रहमान ने कहा कि गाइड उनकी प्रिय फ़िल्म है. वैसे उन्हें 'प्यासा', 'मुझे जीने दो', 'रेशमा और शेरा' और 'ख़ामोशी' भी बहुत पसंद हैं. उस समय के हिसाब से 'गाइड' में रोज़ी का किरदार बहुत ही बोल्ड और प्रोग्रेसिव है.
ठहरी हुई औरत
'साहिब, बीवी और गुलाम' में उन्हें उम्मीद थी कि गुरुदत्त उन्हें बीवी का रोल देंगे पर उन्हें तब मायूसी हुई जब गुरुदत्त ने कहा,''यह एक ठहरी हुई औरत का किरदार है, एक शादीशुदा का जो अपने पति का इंतज़ार करती रहती है. आप लड़की लगती हैं. पैकअप के बाद ऐसे भागती हैं जैसे कोई स्कूली बच्चा.''
वो तब तक काफी प्रसिद्ध हो चुकी थीं. इसलिए गुरुदत्त ने उन्हें जवा की भूमिका करने को नहीं कहा था. पर किरदार अच्छा होने की वजह से स्वयं वहीदा ने इसे निभाने के लिए हाँ कर दी.
देव आनंद को याद करते हुए उन्होंने कहा कि वे खुद को सिर्फ ''देव'' ही कहलाना पसंद करते थे. काफी कोशिश के बाद ही वहीदा उन्हें सिर्फ देव कहकर बुलाने की हिम्मत जुटा पाईं.
परफेक्शनिस्ट गुरुदत्त
उन्होंने बताया कि गुरुदत्त बहुत ''परफेक्शनिस्ट'' थे और रिटेक्स का सिलसिला चलता रहता था. सत्यजित रॉय तीन मिनट का शॉट हो तो आधा मिनट भी ज़्यादा शूट नहीं करते थे.
प्यासा फिल्म के एक शॉट के तो करीब 76 टेक हुए, हालाँकि यह उन पर नहीं फिल्माया गया था. कभी डॉयलाग की वजह से तो कभी कैमरा तो कभी साउंड की वजह से टेक होते रहे और शॉट ख़त्म ही नहीं होता.
अपनी बेहद क़रीबी दोस्त नंदा को याद करते हुए वहीदा ने कहा कि आपसी विश्वास हो और इर्ष्या ना हो तो दोस्ती में कोई बाधा नहीं. वैसे उनका मानना है कि अक्सर मीडिया भी बहुत बढ़ा-चढ़ाकर बातें उड़ा देता है.
उम्र के इस पड़ाव पर अब वे चौदहवीं का चाँद तो नहीं हैं पर 'लम्हे' की दाईजा एक गरिमामय शख्सियत ज़रूर हैं. उनकी सादगी में भी सुंदरता है, विनम्रता है. आवाज़ की मिठास अभी भी बरक़रार है.
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