कहानी : चार 'आइशा' टाइप निकम्मी, कन्फ्यूज्ड, सूडोफेमिनिस्ट लड़कियों को जब ये अहसास होता है कि 'ज़िंदगी न न दोबारा' तो वो 'क्वीन' बनने की ठान लेती हैं। यही है फिल्म की कहानी।
फेमिनिज्म : औरत और मर्दों को बराबर समझना
वीरे दी वेडिंग में फेमिनिज्म का मतलब : सिर्फ औरतें ही होनी चाहिए दुनिया में (Down with the men)
लड़कियों सिर्फ शादी के लिए नहीं
मैं बिलीव करता हूं कि ये सोच एक ऐसा समाज होना चाहिए जहां औरत और मर्द बराबर हों, न स्पेशल कोटा हो, न ही अलग से लाइन और ऐसा समाज हो एक लाइन में लगे होने के बावजूद , औरतों पे न ही कोई कंमेंट मारे या कोहनी मारे। ऐसे समाज में औरतें मर्दों के साथ बराबरी से काम करें और वो भी बिना किसी भेदभाव के। औरतों को सिर्फ शादी करने के लिए नहीं पैदा किया जाए क्योंकि शादी ही जीवन का आरंभ और अंत नहीं है, शादी जरूरी भी नहीं है। अगर शादी से आपकी आइडेंटिटी और इंडिविजुअलिटी पे आंच आये तो शादी तोड़ देने में भी कोई बुराई नहीं। शादी तब तक जरूरी नहीं है जब तक आप एज़ अ कपल जीवन जीने में बराबर की हिस्सेदारी के वचन न ले एक दूसरे के लिए, ऐसा मेरा सोचना है, और यकीन मानिए मैं दिल से फेमिनिस्ट हूं।
समीक्षा : कई वुमन सेंट्रिक फिल्मों की खिचडी़
कहां से शुरू करूं, समझ नहीं आ रहा है। पहले फिल्म के राइटर्स निधि मेहरा और मेहुल सूरी को दंडवत प्रणाम की उन्होंने फेमिनिज्म को एक नई परिभाषा दी, उनके हिसाब से फेमिनिज्म का मतलब औरतों को हर वो मूर्खता करने का हक देना है जिनके लिए नॉर्मली मर्द जाने जाते हैं (नशेबाज़ी, गाली गाली गलौज और शोविंसम)। फिल्म देखने के बाद न केवल औरतों का बल्कि मर्दों के भी शादी से भरोसा हमेशा के लिए उठ जाएगा और धीरे-धीरे शादी का टंटा ही खत्म, न रहेगा रिश्तों का बांस और न बजेगी शादी की बांसुरी। ये एक अलग ही दुनिया है, यहां पर औरतें कोई काम नहीं करतीं, उनके पास कोई पैशन नहीं है, जीवन में कुछ प्रोडक्टिव करने की इच्छा नहीं है, बस कुछ है तो वो है, मर्दों के लिए ताने और गालियां। बाबू मोशाय शशांक घोष एक बार तो 'हृषिकेश मुखर्जी' की खूबसूरत का कत्लेआम कर ही चुके हैं, इस बार वो आपके सामने लाये हैं पिछले दस सालों की सभी फेमिनिस्ट फिल्मों की खिचड़ी। इस फिल्म में आपको 'एंग्री इंडियन गोडेसेस' से लेकर 'क्वीन' के प्लाट और सीन मिल जाएंगे। क्या जरूरी है कि फ्रेश कहानी ली जाए। कहना गलत नहीं होगा कि इस फिल्म में ऑरिजिनल कंटेंट उतना ही है जितनी इस फिल्म के किरदारों में अक्ल। आधी फिल्म में कपड़ों पे बहुत खर्चा हुआ है और बाकी फिल्म में बिकनियों पे, अगर इस खर्चे का 5 प्रतिशत एक अच्छी कहानी के लिए किसी अच्छे लेखक को दिया जाता तो शायद के एक बेहद अच्छी फिल्म भी हो सकती थी पर ऐसा कभी हुआ हूं बॉलीवुड में जो अब होगा।
अदाकारी : इम्प्रेसिव अभिनय डुप्लीकेट सीन के साथ
मूर्ख, निक्कमें मित्रों की चौकड़ी में किसी तरह से स्वरा भास्कर आपको इम्प्रेस करती हैं, फिल्म के बेस्ट मोमेंट्स (जो दो चार ही है) स्वरा के पास ही हैं। करीना को कोई और फिल्म करनी चाहिए थी जो उनकी मिट्टी पलीद न करती, अब करीना करें भी तो क्या निधि और मेहुल ने उनके रोल में न तो अच्छे सीन दिए न डायलॉग। सोनम कपूर से नीरजा के बाद आशा की जो जोत जाली थी उसे सोनम ने अपनी एक्टिंग के ठंडे पानी से बुझा दिया सुमीत व्यास, आप इस फिल्म में हीरो भी नहीं है,(क्योंकि फिल्म मर्दों के बारे में ही नहीं है) फिर ऐसी क्या मजबूरी थी कि आप अपने उजले करियर इतना बड़ा धब्बा लगा लें। डिस्काउंट/डुप्लीकेट फवाद खान से लेकर मनोज पाहवा जैसे सीजनड कलाकार इस फिल्म में नाम मात्र के लिए हैं।
इस लिए देखने जाएं फिल्म
कुल मिलाकर सो कॉल्ड फेमिनिस्ट सोच को आग देने के लिहाज से बनाई हुई ये फिल्म महज़ कुछ मूर्ख लड़कियों की वेकेशन बन के रह जाती है। कानपुर लखनऊ की माताएं और बहनें तो इस फिल्म को देखने के बाद पर्दे पे अपनी चप्पल भी फेंक के मार सकती हैं।
वैधानिक चेतावनी : शादी की हसरत रखने वाले पुरूष इस फिल्म को अपनी रिस्क पे देखने जाएं।
रेटिंग : 1 स्टार
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