देहरादून, (ब्यूरो): हाउस स्पैरो फ्रेंडली नेचर की होती हैैं और अक्सर वहीं रहना पसंद करती हैैं जहां लोग रहते हैैं। लेकिन, समय के साथ-साथ उत्तराखंड में हाउस स्पैरो की पॉपुलेशन कम होते जा रही है। इसे देखते हुए वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (डब्ल्यूआईआई) की और से मार्च 2021 में रिसर्च प्रोजेक्ट डेवलप किया गया है। इसके जरिये ये जानने की कोशिश की जा रही है कि हाउस स्पैरो की पॉपुलेशन क्यों कम हो रही है, इसके पीछे क्या कारण हैैं।
मॉनिटर किया जा रहा मूवमेंट
डब्ल्यूआईआई के साइंटिस्ट आर सुरेश कुमार पिछले कुछ सालों से स्पैरो पर रिसर्च कर रहे हैैं, उन्होंने बताया कि हाउस स्पैरो की पॉपुलेशन लगातार घट रही है। दून जैसे शहरों में अब बहुत कम जगहों पर ही ये बड्र्स दिखाई देते हैं। इसी के चलते इस रिसर्च प्रोजेक्ट को तैयार किया गया है ताकि यह समझा जा सके कि हकीकत में ऐसा क्यों हो रहा है। हाउस स्पैरो के हैबिटैट शिफ्टिंग को लेकर भी रिसर्च की जा रही है, कि क्या स्पैरो एक जगह से दूसरी जगह शिफ्ट हो रही हैैं। इसे जानने के लिए उनके पंजों पर रिंग इंस्टॉल की गई है। हर रिंग पर एक कोड होता है, जिससे बड्र्स के मूवमेंट का पता चलता है। अब तक 200 स्पैरो पर यह मेथड किया जा चुका है।
स्पैरो भी करती हैैं घर शिफ्ट
उत्तराखंड के चमोली जिले के ऊंचाई वाले गांव जैसे मलारी, नीती, गमसाली और द्रोणागिरी में रहने वाले लोग गर्मियों के महीने में ऊपरी इलाकों में बसते हैं और ठंड के मौसम में निचले इलाकों में शिफ्ट हो जाते हैं। ऐसे ही वहां रहने वाली हाउस स्पैरो भी ऊंचे इलाकों को छोड़ नीचे आ जाती हैं। सुरेश कुमार के अनुसार ठंडे एरिया में दूसरे देशों में भी हाउस स्पैरो पाई जाती हैैं। लेकिन, उत्तराखंड में लोगों के एक जगह से दूसरे जगह पर स्पैरो भी उनके साथ चली जाची हैैं। यह बताता है कि स्पैरो को इंसानों के आस-पास रहना पसंद है।
हाई एलिवेशन की स्पैरो दिखने में अलग
रिसर्चर्स ने यह भी पाया कि उत्तराखंड के मैदानी इलाकों की तुलना में 3,000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर रहने वाली स्पैरो आकार में बड़ी होती हैं। उनके पंख भी सामान्य स्पैरो से अलग होते हैं। ठंड में जिंदा रहने के लिए इन बड्र्स को ज्यादा हीट की जरूरत होती है, इसलिए उनमें सामान्य स्पैरो की तुलना में ज्यादा फैट होता है। ये उन्हें ठंडे इलाकों में सर्वाइव करने में मदद करते हैैं।
ऐसे काउंट की जा रही पॉपुलेशन
हाउस स्पैरो की ठीक-ठीक संख्या नंबर्स में बताना आसान नहीं, हालांकि डब्ल्यूआईआई के साइंटिस्ट इसका अनुमान लगाने की कोशिश कर रहे हैं। फिलहाल उत्तराखंड की हर तहसील के 5 प्रतिशत गांवों में मॉनिटरिंग की जा रही है, जिससे की सितंबर 2025 में जब रिसर्च खत्म होगी तो स्पैरो की पॉपुलेशन का भी पता चल जाएगा।
अर्बन एरिया में स्पैरो कम
अर्बन एरिया में स्पैरो की पॉपुलेशन लगातार घट रही है। डब्ल्यूआईआई की पीएचडी स्कॉलर रेनू बाला ने बताया कि रूरल एरिया की तुलना में अर्बन एरिया में स्पैरो की पॉपुलेशन कम है। इसकी एक वजह मॉडर्न आर्किटेक्चर है, जिससे स्पैरो को घोंसले बनाने के लिए जगह नहीं मिल पाती। इसके अलावा शहरों में उनके लिए फ़ूड रिसोर्सेज भी कम हो गए हैं, जिससे उन्हें सर्वाइव करने के लिए प्रॉपर फ़ूड नहीं मिल पाता। इस कारण वे उन जगहों पर चली जाची हैं, जहां उन्हें जगह के साथ-साथ फ़ूड भी मिलता है।
स्पैरो के लिए लगाए गए नेस्ट
लोगों में अवेयरनेस लाने के लिए दून समेत कई जगहों पर नेस्ट बॉक्स लगाने का काम किया जा रहा है, इसमें कई लोग पहले से लगे हुए हैं। अब डब्ल्यूआईआई भी इस प्रयास में शामिल हो गया है। डब्ल्यूआईआई ने दून में लगभग 80 नेस्ट बॉक्स लगाए हैं, इसके अलावा चमोली, हरिद्वार और रुद्रपुर के अलग-अलग एरिया में भी नेस्ट लगाए जा रहे हैैं। आमतौर पर जगह की कमी की वजह से स्पैरो एयर कंडिश्नर, पंखे और खिड़कियों पर घोंसले बना लेते हैं, जिससे उनके अंडे गिर कर टूट जाते हैं और उनकी जान को खतरा होता है। ऐसे में नेस्ट बॉक्स उनके लिए एक सेफ प्लेस रहता हैं, जहां वे आराम से रह सकते हैं।
यूपी, महाराष्ट्र भी ले रहे इनीसिएटिव
आर्क संस्था के संस्थापक प्रतीक पंवार का कहना है कि इस समय इन बड्र्स को जरूरी रिसोर्सेस नहीं मिल पा रहे हैं। आजकल बनने वाले घरों और बिल्डिंग्स में बड्र्स के लिए घोंसला बनाने का स्पेस नहीं होता। पहले लोग अपने घरों में दाल या और भी तरह के ग्रेन्स तैयार करते थे और बचे हुए ग्रेन्स को घर में कहीं रख देते थे, जिससे चिडिय़ां आकर खा लेती थीं। लेकिन अब यह सब चीजें नहीं मिल पातीं। पहले के घरों में पेड़ और छोटे बगीचे होते थे, जिनमें बड्र्स अपने घोंसले बनाते थे। इन चीजों की कमी के कारण कुछ साल पहले स्पैरो की पॉपुलेशन में कमी आई थी। प्रतीक पंवार ने बताया कि 2007 से संस्था ने नेस्ट बॉक्स लगाने का काम शुरू किया, जिसके बाद से लोगों में जागरूकता बढ़ी है।
कुछ साल पहले हाउस स्पैरो का दिखाई देना सामान्य था, लेकिन अब इसकी पॉपुलेशन में कमी आई है। इस रिसर्च के जरिये हम जान सकेंगे कि असल में स्पैरो की पॉपुलेशन कितनी कम हुई है, ताकि इन्हें बचाने के लिए प्लान बनाया जा सके।
-आर। सुरेश कुमार, साइंटिस्ट, डब्ल्यूआईआई
इस समय हमारे आसपास कितने स्पैरो मौजूद हैं, यह जानना मुश्किल है। इसी कारण हम इस रिसर्च कर रहे हैं, जिसमें उत्तराखंड के कई इलाकों में जाकर जांच कर रहे हैं। हम जल्द ही एक डाटा के साथ स्पैरो की पॉपुलेशन के बारे में बताएंगे।
-रेनू बाला, रिसर्च स्कॉलर, डब्ल्यूआईआई
लोगों की लाइफ स्टाइल का असर बड्र्स पर भी पड़ा है। स्पैरो घरेलू पक्षी होते हैं और वे लोगों के आसपास रहते हैं। अब उन्हें वह वातावरण नहीं मिल रहा है। लोग पेड़-पौधे लगाते हैं, लेकिन उनको ग्रो करने के लिए केमिकल यूज करते हैं, ऐसे में पक्षी वहां नहीं रह पाते।
-प्रतीक पंवार, फाउंडर, आर्क संस्था.
2014 में हम रायपुर क्षेत्र में नदी किनारे गए थे, जहां हमने देखा कि काफी बड्र्स मरी हुई थीं। वहां के लोगों ने बताया कि पानी और रिसोर्सेस की कमी के कारण ऐसा हुआ। इसके बाद से हमने नेस्ट बॉक्स बनाने का काम शुरू किया। हर साल लगभग 300 नेस्ट बॉक्स बनाकर लगाते हैैं।
-रोशन राणा, श्री महाकाल सेवा समिति, सामाजिक कार्यकर्ता