- वाराणसी (ब्यूरो)। बनारस को यूं ही मिनी इंडिया नहीं कहा जाता है। क्योंकि यहां पर जापान, नेपाल की संस्कृति से लेकर आंध्र प्रदेश, कर्नाटक तक के मंदिर हैं। इन मंदिरों में देश ही नहीं विदेशों से भी उनके अनुयायी आते हंै और काशी की शोभा बढ़ाते हंै। यही वजह है कि यहां की संस्कृति पूरे विश्व में विख्यात है। जापान को जानना हो तो सारनाथ का जापानी मंदिर है, नेपाल को पढऩा हो तो नेपाली खपड़ा मंदिर है। इस तरह के कई ऐसे मंदिरों का इतिहास बनारस समेटा हुआ है। मंदिर भी ऐसे, जो एक बार कोई देखे तो अपलक निहारता ही रह जाए. भव्य सजा जापानी मंदिर सारनाथ स्थित जापानी बौद्ध मंदिर में जापान में बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार कर बौद्ध धर्म आगे बढ़ाने वाले निचीरेंन सोनीन के परिनिर्वाण दिवस के रूप में ओ एशिकी पर्व को मनाने के लिए जापानी मंदिर को इन दिनों भव्य सजाया गया है. वर्ष 1992 में बना था बौद्ध मंदिर यह मंदिर पूर्ण रूप से जापानी संस्कृति और कला का अनोखा मंदिर है। मंदिर की छत ग्रे रंग की जापानी टाइल्स इसकी खूबसूरती पर चार चांद लगती है। यह मन्दिर वर्ष 1992 में जापानी शेली में बौद्ध मंदिर बन कर तैयार हुआ। वही परिसर में पीपल, अशोक व फलों के पेड़ से आच्छादित है। टोकियो के काष्ठशिल्पकरो ने लकड़ी को तराश कर प्राणायाम मुद्रा में बुद्ध की प्रतिमा जहा पर्यटको को आकर्षित करती है। वही इस मंदिर में काष्ठ की बुद्ध की प्रतिमा अनुयायियों को बुद्ध जी के महापरिनिर्वाण की याद दिलाती है। 2010 में बना शांति स्तूप धर्मचक्र इंडो जापान बुद्धिस्ट कल्चरल सोसाइटी के तहत मन्दिर परिसर में वर्ष 2010 में थाई शैली में एक विशाल शांति स्तूप ओर मुख्य गेट पर साची के स्तूप गेट पर बने द्वार स्तम्भ शांति स्तूप की शोभा बढ़ा रहा है। परिसर की विशेषताएं यह है कि यहां पर वोकेशनल स्कूल व मेडिकल सेंटर प्रस्तावित है। बेसहारा बच्चों की शिक्षा व स्वास्थ्य के लिए नि:शुल्क केंद्र खोलने की तैयारी. दो दिवसीय ओ एशिकी पर्व की तैयारी शुरू जापान में बौद्ध धर्म को नामु म्यो हो रेंग गे क्यो मंत्र के माध्यम से आगे बढ़ाने का काम करने वाले निचीरेंन सोनीन के रूप में 20 व 21 नवम्बर को दो दिन जापानी परम्परानुसार मनाया जाएगा। इसके साथ ही मन्दिर को विभन्न देशों के झंडों, व बिजली के रंगीन झालरों से सजाया गया है। वही मन्दिर को जापान के शकुरा फूलों से सजाया गया है। मन्दिर की साफ सफाई शुरू है. पर्व पर एक दर्जन जापानी शामिल होंगे इस पर्व काशी में रह रहे लगभग एक दर्जन जापानी व जापान से भी बौद्ध अनुयायी शामिल होंगे। धर्म चक्र इंडो जापान बुद्धिस्ट कल्चरल सोसाइटी की अध्यक्षा भिक्षुणी म्यो जित्सु नागा कुबो ने बताया कि ओ एशिकी पर्व दो दिन मनाया जाएगा। जिसकी तैयारी चल रही है। इस दौरान मन्दिर में विश्व शांति के लिए पूजा की जाएगी. मिनी नेपाल शिव की नगरी काशी में ललिता घाट पर मिनी नेपाल बसता है। विश्वनाथ कॉरिडोर के पहले पाथवे के प्रवेश द्वार जलासेन घाट के बगल में स्थित भगवान पशुपति का मंदिर नेपालियों की आस्था का प्रमुख केंद्र है। नेपाल के पशुपति नाथ मंदिर का प्रतिरूप इस मंदिर में प्रवेश के बाद काशी में ही नेपाल का एहसास होगा। काशी में स्थित पशुपति नाथ का ये मंदिर नेपाली मंदिर के नाम से भी मशहूर है। मंदिर के संरक्षण का काम भी नेपाल सरकार ही करती है. हूबहू नक्काशी काशी जहां मां गंगा के तट पर बसी है तो वहीं काठमांडू शहर बागमती नदी के किनारे विकसित हुआ। काशी में स्थित पशुपति नाथ के मंदिर की नक्काशी और नेपाल के मंदिर की नक्काशी भी बिल्कुल हूबहू है। इसके अलावा दोनों मंदिरों की भव्यता भी एक जैसी ही है। काशी और नेपाल के पशुपति नाथ के मंदिर में पूजापाठ भी नेपाली समुदाय के लोग ही करते हैं, वो भी बिल्कुल एक जैसी परंपरा के अनुसार. श्रीराम तारक आंध्र आश्रम (मानसरोवर) मठों-गुरुकुलों के आश्रमों की नगरी काशी में अध्यात्म के साथ सेवा के सामंजस्य का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करने वाला एक आश्रम ऐसा भी है, जो बरसों पहले एक सन्यासी के संकल्प से विशाल सेवा प्रकल्प के रूप में संवर्दिधत हुआ। अध्यात्म की दृष्टि से जहां यह आश्रम मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम प्रभु की भक्ति धारा के प्रचार-प्रसार को समर्पित है, वहीं सेवा प्रकल्प के रूप में संस्थान एक विशाल अतिथिशाला के रूप में देश-दुनिया से काशी आने वाले लाखों तीर्थयात्रियों को आश्रम के साथ पूर्ण आतिथ्य प्रदान कर रहा है। ना कोई महंत, न कोई पीठाधीशवर ना कोई महंत न कोई पीठाधीशवर, सेवा ही धर्म व अतिथि सत्कार ही ईश्वर। आश्रम के व्यवस्थापक वीवी सुंदर शास्त्री ने बताया कि तेलुगुभाषी वेमूरी सुंदर रामैय्या तत्कालीन अंग्रेज शासन में मुख्य सरकारी अभियंता थे। श्रीराम के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा थी। बाद में सत्याग्रह आंदोलन से जुड़ गए और काशी की दाक्षिणात्य बस्ती मानसरोवर मुहल्ले की संकरी गली में स्थित श्रीराम तारक सांध्र आश्रम की स्थापना श्रीराम भदेन्द्र ने करीब 65 साल पहले की थी। अतिथिशाला की स्थापना उद्देश्य था देश-दुनिया के विशेषकर दक्षिण भारतीय तीर्थयात्रियों को काशी में आश्रय देने के लिए अतिथिशाला की स्थापना का। आगे चलकर कई अन्य प्रकल्प भी आश्रम की गतिबिधियों में जुड़ते गए। बड़ी बात यह है कि एक धर्मपीठ होने के बावजूद इस आश्रम में न तो कोई महंत है, न ही कोई पीठाधीश्वर। एकमेव सेवा ही यहां का धर्म है और सेवा ही है ईश्वर.