वाराणसी (ब्यूरो)। शिक्षक हमारे दिमाग को सिर्फ आकार नहीं, बल्कि हमारे सपनों को भी साकार करने में अपना रोल निभाते हैं। अगर ये न हो तो शायद हम-आप कभी भी उस मुकाम तक न पहुंच पाएं, जहां हम कल्पना किए रहते हैं। हर इंसान की सफलता में शिक्षकों (गुरुओं) का बहुत ही योगदान है। क्योंकि अगर शिक्षक नहीं होते तो आने वाली पीढिय़ों को अच्छा ज्ञान नहीं मिल पाता है। जो बच्चों को अच्छी शिक्षा देते हैं वे उन लोगों की तुलना में ज्यादा सम्मान के हकदार होते हैं जो उनके जन्मदाता होते हैं। माता-पिता बच्चों को सिर्फ जन्म देते हैं, लेकिन शिक्षक उन्हें समाज में चलना और आगे बढऩा सिखाते हंै। हमारे जीवन में गुरु के ज्ञान का असर कुछ साल नहीं, बल्कि ताउम्र रहता है। सर्व शिक्षा की राजधानी बनारस में अनादी काल से गुरु-शिष्य के संबंधों का बखूबी निर्वहन होता आ रहा है। आज शिक्षक दिवस के मौके पर आज हम आपको कुछ ऐसे ही यंग शिक्षकों के बारे में बताएंगे, जो ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में भी गुरु-शिष्य की उसी पुरानी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए अपने स्टूडेंट्स का भविष्य संवार रहे हैं। पढि़ए अजय गुप्ता की रिपोर्ट.
अंगुली पकडऩा नहीं, दिशा दिखाने का प्रयास : डॉ। सुप्रिया
लाइफ में अगर अपने लक्ष्य को साधना है तो शिक्षित होना बेहद जरूरी है। बगैर इसके आप कभी मुकाम तक नहीं पहुंच सकते। कुछ ऐसा ही विचार रखती है बसंत कन्या महिला महाविद्यालय के डिपार्टमेंट ऑफ इंग्लिश में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ। सुप्रिया सिंह। अपनी वाणी, व्यवहार और विचार से सबको प्रभावित करने वाली डॉ। सुप्रिया बेहद सरल और अपने सौम्य स्वभाव से भी सबके बीच अपनी जगह बना लेती है। प्रोफेशनल और पर्सनल लाइफ को बैलेंस करने की कला भी है इनमे। यहां तक पहुंचने के लिए इन्हें बहुत ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ा। फिर भी इनमे ईगो ने जन्म नहीं लिया, यही इनकी सबसे बड़ी क्वालिटी है। डॉ। सुप्रिया बताती है कि उन्होंने 12वीं साइंस से की, जबकि ग्रेजुएशन आट्र्स से। इसकी वजह से थोड़ी डिप्रेस्ड भी रहती है, लेकिन जब थर्ड ईयर में नेशनल गवर्नमेंट से स्कॉलशिप मिला तो ये बूस्टर का काम किया। यहीं से उनकी आगे की जर्नी शुरू हुई। वे बताती है कि 2010 में बीएचयू से पीएचडी करने के दूसरे दिन ही जीजीआईसी में मेरी जॉब लग गई। साल 2012 बीएचयू के राज भाषा में ट्रांसलेटर के पद पर कार्यरत रमेश सिंह से शादी हो गई। शादी के कुछ ही दिन बाद बीकेएम में अस्टिेंट प्रोफेसर बनकर आ गई.
लेबर पेन के बाद नहीं छोड़ा छात्रा का साथ
उनकी सफलता में बीएचयू के डिपार्टमेंट ऑफ इंगलिश की एचओडी प्रो। अनीता सिंह का बड़ा योगदान है। उनका कहना है कि आप का ज्ञान तक बढ़ता है जब आप इसे अपने बच्चों के बीच बांटने का काम करते हैं। मैं अपने स्टूडेंट्स को बहुत प्यार करती हूं। मेरे पास उन्हे जो देने के लिए वो है स्पेस। मैं अपने स्टूडेंट्स को उंगली पकड़कर नहीं चलाती, उन्हें दिशा दिखाती हूं। जिससे वे सही राह और करियर का चुनाव कर सके। अपने शिष्यों के लिए डॉ। सुप्रिया कितनी इमानदार है यह तब देखने को मिला जब साल 2014 में लेबर पेन में होने बाद भी ये अपनी स्टूडेंट को मोबाइल पर गाइड करती हुए देखी गई। डॉ। सुप्रिया बताती है कि वे आज जिस मुकाम पर उससे उनके परिवार को फक्र महसूस होता है। आज भले ही उनकी मां सुशीला सिंह इस दुनिया में नहीं है लेकिन आज ये जो भी है उन्हीं के ब्लेसिंग से ही है। वे बताती है कि तीन बहन होने के बाद भी उनके पैरेंट्स ने कभी किसी में फर्क नहीं किया। सभी को एक जैसी शिक्षा और तालीम दी।
अंधेरे से उजाले की ओर ले जाना टीचर का काम : प्रो। रीता
अक्सर देखा जाता है कि उम्र के एक पड़ाव पर आने के बाद उसकी एनर्जी डाउन होने लगती है। मगर महिला महाविद्यालय-बीएचयू की प्रिंसिपल प्रो। रिता सिंह पूरी एनर्जी के साथ अपनी स्टूडेंट का भविष्य संवारने का काम कर रही है। अपने 43 साल के करियर में इन्होंने हजारों छात्राओं का भविष्य संवारा है। इसमें कोई डॉक्टर तो कोई प्रोफेसर तो फिर कोई प्रशासनिक सेवा में अपना योगदान दे रहीं है। एजुकेटेड फैमिली से ताल्लुक रखने वाली प्रो। रीता सिंह बताती है कि उनके पिता महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के स्थापना के समय काल में उनके दादा का भी योगदान रहा। मेरे फादर पूर्वांचल यूनिवर्सिटी में वीसी थे। उनकी तीन पीढ़ी एजुकेशन के क्षेत्र में योगदान देती आ रही है। वे बताती है कि सेंट्रल हिन्दू गल्र्स स्कूल से स्कूलिंग और बीकेएम से ग्रेजुएशन किया। 1987 में बीएचयू से सोशियोलॉजी से पीएचडी करने के बाद बीकेएम में असिस्टेंट प्रोफेसर के तौर पर ज्वाइंन किया। इसके बाद महिला महाविद्यालय में प्रिंसिपल के तौर पर अपने ज्ञान की गंगा बहा रही है। उन्होंने कहा कि उन्हें जाना कही और था लेकिन इस क्षेत्र में आ गई। टीचिंग में आने के बाद यह एहसास हुआ कि ये एक ऐसा एरिया है जहां आप अपने साथ न जाने बच्चों के सपने को साकार कर सकते हैं। टीचर का काम बच्चों को अंधेरे से उजाले की ओर ले जाना है, जो मैं पिछले 43 साल साल से करती आ रहीं हूं।
मदर के नाम से फेमस है प्रिंसिपल
प्रो। रीता की सबसे बड़ी क्वालिटी ये है कि ये एक टीचर होने के साथ शोसलिस्ट भी है। कॉलेज में अगर किसी छात्रा को फाइनेंसियली या पर्सनली किसी तरह के सपोर्ट की जरुरत होती है तो इसमें भी ये अहम रोल अदा करती है। इनकी यही क्वालिटी एक शिक्षक और स्टूडेंट के रिलेशन को और भी स्टॉंग बनाता है। वे कहती है कि यह हम पर डिपेंड करता है कि हम अपने कॉलेज को और अपने स्टूडेंट को कैसा बनाना चाहते हैं। वूमेन सिक्योरिटी पर मेरा फोकस सबसे ज्यादा रहता है। सिक्योरिटी का मतलब सिर्फ सुरक्षा नहीं, एक छात्रा को क्या करना है और वो क्या करना चाहती है इसके लिए पूरी स्वतंत्रता हो। प्रो। रीता अपने स्टूडेंट को एजुकेशन के साथ इकोनॉमिकली स्टांग होने और डिसीजन मेकर बनने के साथ लीडरशिप क्वालिटी का संचार करती हैं। इनका हर स्टूडेंट से प्वाइंट टू प्वाइंट कनेक्शन रहता है। डॉ। रीता अपने छात्राओं के बीच मदर के नाम से काफी फेमस है। एक बार क
बच्चों में ज्ञान की गंगा प्रवाहित करना है मकसद : अनिल गुप्ता
5 रुपए महीने की स्कूल फीस देकर सरकारी पाठशाला में पढ़कर मुकाम हासिल करने वाले शिक्षक आज के इस युग में कम ही देखने और सुनने को मिलते हैं। हम बात कर रहे है हिन्दी मीडियम से पढ़कर कानवेंट स्कूल में पढ़ाने वाले अनिल गुप्ता की। लोवर मीडिल क्लास फैमिली से ताल्लुक रखने वाले अनिल उन स्टूडेंट्स से लिए नजीर है जो ये कहते हैं कि संसाधन के अभाव में वे शिक्षित नहीं हो पाए। तमाम संघर्ष के बाद भी सफलता की सीढिय़ों पर सवारी कैसे की जाती है ये आज के बच्चों को सीखने की जरुरत है। 1994 में बंगाली टोला इंटर कॉलेज से स्कूलिंग करने के बाद पूर्वांचल विवि से ग्रेजुएशन फिर जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी से बीएड करने के बाद 2005 में दिल्ली पब्लिक स्कूल में क्रिकेट कोच के तौर अपने करियर की शुरुआत की। इसके बाद राजस्थान के हनुमानगढ़ के टैगोर इंटरनेशन स्कूल में प्राइमरी टीचर के रूप में ज्वाइन किया। एक टीचर और छात्रों के बीच में इनकी बाउंडिंग और बच्चों को पढ़ाने की बेहतरीन कला को देखते हुए इन्हें 6 साल 6 प्रमोशन मिला। इसके बाद साल 2010 अनिल गुप्ता ने वाराणसी के वेद पब्लिक स्कूल में वाइस प्रिंसिपल के तौर पर अपनी नई पारी की शुरुआत की। वर्तमान में ये सृजन पब्लिक स्कूल में प्रिंसिपल के तौर अपने ज्ञान की गंगा प्रवाहित कर रहे हैं। कमजोर से कमजोर बच्चों को कैसे स्टांग बनाना है ये कला अनिल गुप्ता के पास विद्यमान है।
ट्यूशन कर फैलाते रहे शिक्षा का प्रकाश
अनिल बताते हैं कि सिर्फ खुद की पढ़ाई असली कमाई नहीं होती है। आपकी कमाई तब होती है जब आज अपने ज्ञान से दूसरों को प्रकाशित करते हैं। 18 साल के करियर में ऐसा कभी नहीं हुआ जब उनके बढ़ाए किसी भी बच्चे माक्र्स कभी कम आए हो। उनके पढ़ाए बच्चों में कोई डॉक्टर तो कोई इंजीनियर तो कोई उच्च पद पर तैनात होकर अपनी सेवाएं दे रहा है। एक समय ऐसा भी आया जब पूरा देश कोरोना महामारी के दौर से गुजर रहा था, उस उक्त इनकी जॉब भी चली गई। मगर हिम्मत नहीं हारी ट्यूशन पढ़ाकर बच्चों को अपने ज्ञान से प्रकाशित करते रहे। मगर जब समय का पहिया घुमा तो इन्हें फिर वहीं मुकाम हासिल हो गया। अनिल गुप्ता ने सफर उपलब्धियों से भी भरा रहा है। बच्चों को अच्छी तालिम देने के लिए अनिल गुप्ता को बेस्ट प्रिंसिपल, शिक्षा भूषण अवार्ड, शिक्षा रत्न अवार्ड, स्कूल लीडरशिप आदि अवार्ड से नवाजा जा चुका है.