वाराणसी (ब्यूरो)। मोबाइल के रील ने बच्चों का बचपना बिगाड़ दिया है। पहले जहां बच्चे खिलौने, आइस-पाइस और दौड़ जैसे गेम खेलकर शारीरिक के साथ मानसिक विकास पाते थे। उस पर अब मोबाइल ने कब्जा कर लिया है। मोबाइल पर आ रहे तरह-तरह के रील ने बच्चों से बचपना छीन लिया है। ऐसा कहना है सिटी के मनोचिकित्सकों का। रील ने देश के 10 परसेंट बच्चों के माइंड पर कब्जा कर रखा है। इससे बाहर निकलने के लिए उनके गार्जियंस तमाम उपाय कर रहे हैं.
सामने आ रहे साइड इफेक्ट
स्मार्टफोन और किफायती डेटा के कई दुष्प्रभाव सामने आने लगे हैं। इन्हीं में से एक है, रील्स यानी शॉर्ट वीडियोज देखने में ज्यादा वक्त बिताना। हर उम्र के लोग स्मार्टफोन में रील्स स्क्रॉल करते मिल जाएंगे, फिर चाहे वे बच्चे हों या बुजुर्ग। अब तो गार्जियंस भी बच्चों को व्यस्त रखने के लिए मोबाइल थमा देते हैं और खुद भी मोबाइल में व्यस्त हो जाते हैं, लेकिन इसका दुष्परिणाम यह है कि बच्चे इसके आदती हो रहे हैं.
2 से 15 साल के बच्चे
मनोचिकित्सक डॉ। वेणुगोपाल झंवर ने बताया, 2 से लेकर 15 वर्ष के बच्चे काफी तेजी से रील्स एडिक्ट के शिकार हो रहे हैं। जरूरी काम जैसे पढऩा, लिखना, खेलना, खाना, दूध पीना छोड़कर मोबाइल देख रहे हैं। यह काफी खतरनाक है। बच्चों को शॉर्ट वीडियो देखने की लत लग गई है। वे यूट्यूब और इंस्टाग्राम पर रील्स देखने में दिन के 7 से 8 घंटे तक मोबाइल देख रहे हैं। अगर रात न हो तो वे सोए भी नहीं.
याददाश्त हो रही कम
डॉ। झंवर ने कहा, बच्चों के दिमाग का कॉग्निटिव फंक्शन (जानने-समझने की क्रिया) बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। लंबे समय तक कुछ भी याद नहीं रहता। इसके चलते पढ़ाई में लगातार कमजोर हो रहे हैं। उन्होंने बताया कि पांच साल पहले इस तरह के बच्चे नहीं थे, लेकिन अब हर महीने 50 से अधिक बच्चे ऐसे आ रहे हैं। देश में रील्स एडिक्ट बच्चों की संख्या करीब 30 लाख के आसपास है।
क्यों बन रहे शिकार?
चूंकि, शॉर्ट वीडियोज की सबसे ज्यादा लत बच्चों में है, इसलिए इसका नुकसान भी सबसे अधिक उन्हें ही हो रहा है। इसके पीछे वजह है उनके मस्तिष्क का प्रीफ्र ंटल कॉर्टेक्स, यानी दिमाग का वह हिस्सा, जो निर्णय लेने और आवेग नियंत्रण के लिए जिम्मेदार है। यह उनमें पूरी तरह से विकसित नहीं होता है। इसलिए बच्चे इन वीडियोज के वॉचिंग पीरियड को कंट्रोल नहीं कर पाते, ना ये तय कर पाते हैं कि क्या देखना है।
बनाता है शॉर्ट टैंपर्ड
बीएचयू के डॉ। संजय गुप्ता ने कहा, लंबे वीडियोज में शॉर्ट वीडियोज से एकदम उलट मामला है। लंबे वीडियोज में कहानी और कैरेक्टर के डेवलपमेंट पर अधिक जोर होता है। वहीं, शॉर्ट वीडियोज में मुख्य रूप से बिहैवियर या ऐक्शन बेस्ड चीजें होती हैं। इससे दिमाग तुरंत रिजल्ट का आदी हो जाता है। यह शॉर्ट टेंपर्ड और शॉर्ट स्पैन बनाता है। वे बताते हैं कि यहां लगभग 15 केस इस तरह के हर माह आ रहे हैं.
रील्स एडिक्ट का प्रभाव
- शॉर्ट वीडियोज भले ही मजे के लिए बनाए जाते हैं, लेकिन इनकी लत लग सकती है.
- ज्यादा देर तक देखा जाए तो आपके अटेंशन स्पैन पर भारी प्रभाव करता है।
- ध्यान केंद्रित करने की क्षमता को बुरी तरह प्रभावित करता है.
- शॉर्ट वीडियोज को लगातार देखने से बच्चे या किशोर के दिमाग में बदलाव आ जाता है.
- लगातार रील्स देखने के कारण बच्चे वर्चुअल ऑटिज्म के शिकार हो रहे हैं.
- लर्निंग क्षमता कम होने और बोलना देर से शुरू करने जैसी समस्या हो रही है.
क्या है उपाय?
- बच्चों के लिए स्मार्टफोन और इंटरनेट पर वक्त बिताने का समय तय करना जरूरी है.
- इसके लिए पेरेंट्स और टीचर्स को मिलकर काम करना होगा.
- पब्लिक डोमेन में ढेर सारा कंटेंट मौजूद है। ऐसे में पेरेंट्स को तय करना होगा कि उनका बच्चा क्या देखे और इससे भी अहम बात की कितनी देर तक देखे।
- रील्स देखने में जो समय बिता रहे हैं, वह दोस्तों के साथ गुजारें.
- फिजिकल एक्टिविटी बढ़ायें.
फैक्ट एंड फीगर
30 लाख बच्चे देश में हैं रील्स एडिक्ट के शिकार
65 बच्चे हर महीने आ रहे हैं इलाज को