वाराणसी (ब्यूरो)। बनारस में फुटबॉल का एक वो दौर भी था, जब लोग इस खेल के दीवाने थे। फुटबॉल की नर्सरी कहे जाने वाले इस मैदान में जब बनारस स्पोर्टिंग क्लब और हीरोज क्लब के बीच मैच होता था, पूरा मैदान दर्शकों से खचाखच भरा रहता था। आलम ये होता था कि फुटबॉल प्रेमी 70 हजार रुपए का टिकट खरीदकर मैच देखते थे। आपको यह जानकार हैरानी होगी कि पूरे बेनियाबाग क्षेत्र में कभी हर घर में एक फुटबॉल प्लेयर हुआ करता था। 70 से लेकर 90 के दशक तक यहां खूब फुटबॉल खेला जाता था। साल 2000 तक के समय को फुटबॉल का सबसे गोल्डेन टाइम कहा जाता था, मगर आज वो बात नहीं है। जानकारों की मानें तो उस दौर में ऐसा कोई घर नहीं था जहां के लोगों के बीच फुटबॉल को लेकर चर्चा न होती थी। लेकिन, महंगे होते गए इस खेल से ज्यादातर लोग दूरी बनाते गए और अपने कामकाज में जुट गए। हालांकि आज भी यहां फुटबॉल के दीवानों की कोई कमी नहीं है। बस जरूरत है तो एक बार फिर इस दम तोड़ते गेम को जिंदा रखने की।
5 दशक तक थे 5 हजार खिलाड़ी
बताया जाता है कि बेनियाबाग के फुटबॉल की नर्सरी में 5 दशक तक लगभग 5 हजार से ज्यादा खिलाड़ी हुआ करते थे। इसमें नूर आलम, मो। मोबिन, फैजी अली, शाहिद अली, शम्पी राणा, राशिद अनवर, कलीम अली, मुन्ने राजू, शौकत अली, शादाब रजा, नसीम अख्तर, शरहत रजा, मो। नदीम, समीर खान जैसे सैकड़ों नेशनल और इंटरनेशनल लेवल पर खेलते हुए अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाते थे। मगर अफसोस कि अब वो दौर नहीं रहा। अब यहां एक हजार भी खिलाड़ी नहीं बचे हैं। समय के साथ महंगे होते जा रहे इस खेल से लोगों ने दूरी बना ली, लेकिन अब एक बार फिर कुछ क्लबों के लोग इसे उसी मुकाम पर ले जाने का प्रयास कर रहे हैं जहां फुटबॉल कभी था.
फुटबॉल की दीवानगी में छोड़ दी नौकरी
जानकार बताते हैं कि बेनियाबाग को सिर्फ फुटबॉल की नर्सरी ही नहीं स्वर्ग भी कहा जाता है, जहां इसके प्लेयर्स जीना चाहते थे। बनारस स्पोर्टिंग क्लब से खेलने वालों में तो फुटबॉल को लेकर वो जूनुन या यूं कहे कि ऐसी दीवानगी थी कि दूसरे प्रदेशों में लगी सरकारी नौकरी क्लबों से मिले ऑफर को छोड़ यहां आकर फुटबॉल खेलते थे। हालांकि बाद में इन्हें यह एहसास हुआ कि खेल के साथ आर्थिक स्थिति भी ठीक होनी जरूरी है। इसके बाद आने वाले नए खिलाडिय़ों ने इस जूनुन के साथ अपने खेल का आरंभ किया कि उन्हें आर्थिक तंगी का सामना न करना पड़े। मैदान में पसीना बहाते हुए नेशलन, इंटरनेशनल लेवल पर खेलते हुए कई मुकाम हासिल किया.
स्किल और क्वालिटी में नहीं थी कमी
इसमें कोई शक नहीं है कि यहां खिलाडिय़ों के स्किल और क्वालिटी में कोई कमी नहीं थी। मगर उस समय उन्हें कोई यह गाइड करने वाला नहीं था कि वो ये बता सके कि खेल के साथ-साथ पढ़ाई भी बहुत जरूरी है। उसकी वजह से बहुत से लोग हाई स्कूल भी नहीं कर पाए, जिसके चलते उन्हें नौकरी नहीं मिल सका। उस दौर में भी बड़ी-बड़ी कंपनियां यहां के चमकते प्लेयर को नौकरी देने के लिए बुलाती थी, लेकिन अनिवार्य योग्यता न होने से ये मुकाम हासिल नहीं कर पाए। अब यहां ऐसे खिलाड़ी कम ही है, ज्यादातर नए प्लेयर्स खेल के साथ एजुकेशन को भी तवज्जो दे रहे है.
बेनियाबाग के मैदान को फुटबॉल का स्वर्ग कहा जाता है। यहां फुटबॉल को सिर्फ खेला नहीं जिया जाता था, मगर अब वो दौर नहीं है। इस खेल की दीवानगी में फुटबॉलर्स अपनी नौकरी तक छोड़ देते थे।
शादाब रजा, इंटरनेशनल प्लेयर
अगर बेनियाबाग न होता तो यहां फुटबॉल न होता। इसी की देन है कि जो लोग कभी बदमाशियां करते थे, उन्हें फुटबॉल ने सुधार दिया। कुछ ऐसे खिलाड़ी भी निकले जिन्होंने पढ़ाई कम की लेकिन फुटबाल में देश में नाम रोशन किया.
नूर आलम, इंटरनेशनल प्लेयर