वाराणसी (ब्यूरो)। बच्चों में आईक्यू लेवल को लेकर बातें खूब होती है। कुछ पैरेंट्स के साथ कुछ स्कूल भी इसको लेकर अवेयर हैं। वे बच्चों का आईक्यू बढ़ाने के लिए तमाम प्रयास भी करते हैं, लेकिन जो सबसे जरूरी है वो है ईक्यू, यानि इमोशनल इंटेलीजेंस, जिसे नजरअंदाज कर दिया जाता है। सिटी के साइकोलॉजिस्ट का मानना है कि बच्चों के लिए जितना जरूरी आई क्यू है, उससे कही ज्यादा इंपॉर्टेंट ईक्यू है। ये बच्चों के करियर में अहम रोल अदा करता है। उनका मानना है कि यह एग्जाम पास कराने के साथ करियर के ग्रोथ पर भी असर डालता है। जब आप किसी भी फील्ड में जॉब स्टार्ट करते हैं तो वहां सर्वाइव करने के लिए सोशल स्किल की जरूरत होती है। कितने भी निगेटिव सिचुएशन में आप खुद को कैसे एडजस्ट करते हैं यह इमोशनल इंटेलीजेंस पर ही डिपेंड करता है। ईक्यू का डाउन होना लाइफ में प्रॉब्लम भी क्रिएट कर सकता है।
क्या है इमोशनल क्वेशंट
अधिकतर लोग आईक्यू यानि इंटेलीजेंस क्वेशंट से वाकिफ हैं, लेकिन इमोशनल क्वेशेंट के बारे में कम लोगों को पता है। रिहैबिलिटेशन साइकोलॉजिस्ट डॉ। अपर्णा सिंह बताती हैं कि ये एक ऐसा कांसेप्ट है जिसमें पहले सिर्फ आईक्यू की पहचान की जाती थी, लेकिन लाइफ को सक्सेसफुल बनाने के लिए इंटेलीजेंट के साथ इमोशनली इंटेलीजेंट होना भी जरूरी है। आईक्यू का मतलब ये है कि आप अपने इमोशंस को कैसे मैनेज करें। कब किस इमोशन को प्रेजेंट करना और किस इमोशन को छुपाना है। इस तरह के सिचुएशन को हैंडल करना ही ईक्यू कहलाता है। बड़े बच्चों में इमोशंस बहुत होते हैं। बहुत जल्दी अग्रेसिव और हर्ट होने के साथ डिप्रेस्ड भी बहुत जल्दी हो जाते हैं। इसमें सबसे पहले अपने इमोशन को पहचाना होता है। ईक्यू के कई सारे पहलू हैैं। खुद को कैसे एक्सप्रेस करना है, अपने गुस्से का कैसे इजहार करना है। कैसे पॉजिटिव वे में अपनी चीजों को चैनलाइज्ड करना है। ये सब इसमें आता है।
बदल गई कंडीशन
कोरोनाकाल के बाद से कंडीशन काफी बदली है। कुछ हद तक समस्याएं भी बढ़ी हैैं। इसके पीछे कई कारण बताए गए हैं। जैसे कोविड के कारण लंबे समय तक लोग घरों में अकेले रहे। उस दौरान पैरेंट्स के बीच लड़ाई होने से बच्चों के मन पर निगेटिव इफेक्ट पड़ा है। इस तरह की समस्या से निपटने के लिए काउंसलिंग के साथ क्लीनिकल अप्रोच की भी जरूरत पड़ी है.
शेयरिंग का कांसेप्ट कम हो रहा
साइकोलॉजिस्ट डॉ। शुभ्रा बताती हैं कि इसके कई सारे रिजंस हैं। जिस फैमिली में एक या दो बच्चे होते हैं वहां उन्हें शेयरिंग की जरूरत नहीं पड़ती। अब बच्चों के पैरेंट्स उनकी जरूरत की हर चीज दे सकते हैं। ऐसे में शेयरिंग का कांसेप्ट कम हो रहा है। पहले किसी चीज को लेकर ग्रैटिफिकेशन होता था। उसमें ये जरूरी नहीं था कि बच्चे ने जो मांगा उसे तुरंत मिल जाए। बच्चे को काफी वेट करना पड़ता था। इस ग्रैटिफिकेशन की जो प्रैक्टिस थी उसका भी अभाव देखा जा रहा है। जैसे-जैसे पैरेंट्स में यह अवेयरनेस आई है कि बच्चों को ज्यादा डांटना या मारना नहीं है। डिसिप्लिन भी इसलिए कम हो रही है कि कहीं बच्चा बुरा न मान जाए। या वो हर्ट न हो जाए। अब बच्चे ऐसे माहौल में बड़े हो रहे हैं, जहां उन्हें रिजेक्शन फेस नहीं करनी पड़ रही। इसका असर ये है कि उनमें ईक्यू का अभाव बढ़ता जा रहा है।
क्या पड़ रहा है असर
बच्चे जब स्कूल, फिर कॉलेज जाते हंै तो वहां से रिजेक्शन स्टार्ट होता है और उन्हें लगता है कि चीजें उनके हिसाब से नहीं हो रही है। फिर वे वहां फेल होने लगते हंै। हमारे स्कूल सिर्फ आईक्यू को डेवलप करने पर फोकस्ड है, जबकि ईक्यू नर उनका ध्यान बहुत कम रह गया है। इस तरह की दिक्कतों की वजह से जब बच्चा बड़ा होता है तब तक उसे पता नहीं होता है कि उसके दिमाग में अनप्लेजेंट इमोशंस आ रहे हंै तो वो उन इमोशन्स को कैसे रिगलेट या चैनलाइज्ड करें.
निगेटिव इमोशंस को कैसे चैनलाइज्ड करें
डॉ। शुभ्रा बताती हैं कि गुस्सा आएगा, दुख होगा, फेलियर्ड होंगे, डिप्रेशन होगा लेकिन जब ये हो रहा है तो उसे स्वीकार कैसे करना है और उससे आगे कैसे बढऩा है। ये एक अलग डोमेन है जो कहीं न कहीं हम बच्चों को नहीं सीखा पाते हैं। ऐसे में उन्हें नहंी पता होता कि किस सिचुएशन को कैसे हैंडल करें। उन्हें तो ये बताया गया है कि ये नहीं होना चाहिए, जबकि ये भी होता है ये लाइफ का पार्ट है और जीवन की सच्चाई है। ये सब भी होता है जिससे लडऩा और स्वीकारना पड़ता है.
बच्चे इमोशन रिगिलेट करना नहीं सीख पाते
हम शुरू से बच्चों को सीखाते हैं कि स्कोर करो और 90 परसेंट से ऊपर नंबर लाओ। अच्छी जॉब हाई पैकेज जिससे लाइफ के कंफर्ट मिल पाए। लेकिन पैरेंट्स उनके हैपेंस और प्लेजर में डिफ्रिसिएट करना नहीं सीखा पाते। इससे सच में हमें खुशी मिलती हो लेकिन उनमेंं डिफरेंसिएट करना नहीं सीखा पाते। बंगला, बड़ी गाड़ी सुख-सुविधा की सभी चीजें हैं, लेकिन ये हमारे हैपिनेस को डिफाइन करते हंै, जबकि ऐसा होता नहीं है। आप जितना करते जाएंगे उनकी जरूरत उतनी बढ़ती जाएगी। सफलता वही है जो हम बाहर की दुनिया में प्राप्त करते हैं। इस चीजों से सफलता प्राप्त नहीं होती.
इससे लाइफ बेहतर बन सकती है
डा। अपर्णा ने बताया कि इक्यू को इंक्रिज किया जा सकता है। आईक्यू एक समय के बाद बढ़ती नहीं है, 15 साल एज के बाद इंटेलिजेंस इंक्रीज नहीं इनहैंस होती है। इमोशनल इंटेलीजेंस ऐसा कांसेप्ट है जिसे सीखा जा सकता है और सीखकर उसको अपनी लाइफ में यूटिलाइज्ड कर अपनी लाइफ को बेहतर बनाया जा सकता है.
डाउन ईक्यू में होता है ऐसा
कुछ लोग बड़ी से बड़ी चीज को इजली हैंडल कर लेतेे हैं। मगर कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो छोटी सिचुएशन में भी बहुत हाईपर होकर रिएक्ट करते हंै। जहां छोटी सी स्माइल से किसी झगड़े से बचकर निकल सकते थे, वहां लेस इमोशनल इंटेलीजेंस की वजह से झगड़ा कर गए। लेस इमोशनल इंटेलीजेंस में इस तरह की प्रॉब्लम होती है। जो इमोशनली हाई इंटेलीजेंस पर्सन होगा वो निगेटिव इमोशन और निगेटिव सिचुएशन को बेहतर तरीके हैंडल कर सकता है.
आईक्यू और ईक्यू में अंतर
आईक्यू का इस्तेमाल जहां बुद्धिमता मापने के लिए किया जाता है, वहीं इमोशनल इंटेलीजेंस को मापने के लिए जो यूनिट इस्तेमाल की जाती है उसे ईक्यू यानि इमोशनल क्वेशंट कहते हैं।
ऐसा भी होता है
-जिनका ईक्यू डाउन होता है वे खुशी के माहौल में भी दुखी करने वाली बात करते हैं.
-इंज्वाय करते समय मरने की बात करते हैं। निगेटिव थिंकिंग साथ लेकर चलते हैं.
-ऐसे लोग खुद से यह सवाल भी नहीं करते कि क्या उन्हें ये बोलना चाहिए था या नहीं.
-इस तरह के लोग हमेशा सिचुएशन के विपरित होकर बात करते हैं.
जब आप यह पहचान पाएंगे कि आपके अंदर क्या इमोशन है तभी आप उसे मैनेज भी कर पाएंगे। बच्चे ये सब पहचान पाए और स्वीकार कर पाए कि ये इमोशन है, मैं नाराज हूं या गुस्सा हूं। गुस्सा आना गलत नहीं है, लेकिन उसे कैसे चैनलाइज्ड करना है और कैसे एक्सप्रेस करना है, ये सब तरीके बच्चों को कम एज में ही सिखाना चाहिए। ये बेहद जरूरी है।
डॉ। शुभ्रा, असिस्टेंट प्रोफेसर साइकोलॉजी डिपार्टमेंट-बीकेएम
इमोशनल इंटेलीजेंस सभी में होता है। सही समय पर सही व्यक्ति के साथ सही तरीके से बात करना इस लाइन से भी ईक्यू को डिफाइन किया जा सकता है। जो लोग इन बातों का ध्यान नहंी रख पाते, वहां माना जाता है कि उनका इमोशनल इंटेलीजेंट डाउन होता है। इमोशन को लेकर लाइफ में बैलेंस होना बहुत जरूरी है। वर्तमान में इसकी जरूरत हर किसी को है। निगेटिविटी बहुत ज्यादा बढ़ गई है.
डॉ। अपर्णा सिंह, रिहैबिलिटेशन साइकोलॉजिस्ट