वाराणसी (ब्यूरो)। पूरे यूपी में फुटबॉल का गढ़ कहे जाने वाले बनारस में एक वो भी दौरा था, जब संतोष ट्रॉफी हो या सुब्रत कप इन दोनों में बनारस के फुटबॉलर्स की धाक हुआ करती थी। कप्तानी से लेकर मेजबानी तक में फुटबॉलर्स अपने आगे किसी को टिकने नहीं देते थे। मगर अब वो दौर नहीं रहा। अब तो किसी भी टूर्नामेंट में बनारस के खिलाडिय़ों का नाम तक सुनने को नहीं मिलता। इक्का-दुक्का खिलाड़ी ही स्टेट व नेशनल तक का प्रतिनिधित्व कर पा रहे हैं। इस बेरुखी के लिए जितना जिम्मेदार स्पोट्र्स डिपार्टमेंट है, उतनी ही यहां संचालित एसोसिएशन, क्लब और कोचिंग भी है। फुटबॉल को जिंदा रखने के लिए अब न यहां कायदे की कोई कोचिंग और क्लब है और न ही मैदान। ऐसे में यहां फुटबॉल के छेत्री और भूूटिया पैदा करने की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
कहां गया वो गौरवशाली दौर
70 के दशक में बनारस में फुटबॉल के 40 से ज्यादा क्लब और कोचिंग हुआ करते थे। अब इसमें 10 भी नहीं बचे हैं। फुटबॉल एसोसिएशन और खेेल विभाग की आपसी खींचतान का नतीजा है कि नए फुटबॉलर्स की नई पौध नहीं निकल पा रही है। यू तो 90 के दशक के बाद सिटी में नेशनल, इंटरनेशनल खिताब होते रहें, लेकिन धीरे-धीरे बनारस से इसकी मेजबानी छिनती गई। आज स्थिति ये हो गई है कि बनारस में इंटरनेशनल और नेशनल तो दूर स्टेट लेवल का मैच भी नहीं होता।
क्लब के नाम से ही तनाव में आ जाते थे
बनारस में एक से बढ़कर एक फुटबॉल प्लेयर्स के साथ यहां ऐसे-ऐसे फुटबॉल क्लब हुआ करते थे कि मुकाबले के लिए तैयार खड़ी विरोधी टीम सिर्फ नाम सुनकर ही तनाव में आ जाती थी। यहां क्लबों का दबदबा देश के कोने-कोने तक था। बनारस स्पोर्टिंग क्लब, मदन स्पोर्टिंग क्लब, बनारस स्पेार्टिंग एकेडमी, नाइट क्लब, हरीरोज स्पोर्टिंग क्लब, नेशनल स्पोर्टिंग क्लब, स्टेट फुटबॉल क्लब समेत करीब 40 क्लब का नाम था। लेकिन अब इनमें से कुछ ही बचे है। इनकी भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है।
खतरे में है फुटबॉल का अस्तित्व
बेनियाबाग ग्राउंड, बीएलडब्ल्यू ग्राउंड, यूपी कॉलेज, काशी विद्यापीठ ग्राउंड, बीएचयू ग्राउंड, सेंट्रल हिन्दू ब्वॉय स्कूल ग्राउंड सहित डॉ। संपूर्णानंद स्टेडियम सिगरा ग्राउंड में नेशनल-इंटरनेशनल टूर्नामेंट हुआ करता था। बीते डेढ़ दशक में फुटबॉलर्स के प्रोत्साहन में कमी और एसोसिएशन में राजनीति के चक्कर में मैदान तो सिमटा ही फुटबॉल का अस्तित्व भी समाप्त होने के कगार पर पहुंच गया। अब जो बचा है तो उसे बचाने वाला भी कोई आगे नहीं आ रहा है।
सब साथ आएं तो सुधरें हालात
जानकारों की माने तो वह भी एक दौर था, जब यहां के लोग फुटबॉल के दीवाने थे। खिलाडिय़ों में जितनी फुटबॉल खेलने की दीवानगी थी, उससे कही ज्यादा खेल प्रेमियों में इसे देखने की थी। 80-90 के दशक में यहां हर महीने बड़े-बड़े टूर्नामेंट हुआ करते थे। लगातार मैच होने से खिलाडिय़ों को सांस लेने तक की फुर्सत नहीं रहती थी। मैच देखने वालों का मजमा लगा रहता था। हालांकि आज भी देखने वालों को कमी नहंी है। कमी है तो सिर्फ फुटबॉल को फिर से जीवित करने की। पुराने लोग कहते हैं कि अभी भी अगर सब साथ मिलकर आगे बढ़ें तो वो दौर लौट सकता है।
स्कूल कॉलेज में से भी फुटबॉल गोल
पहले स्कूल-कॉलेज फुटबॉल टूर्नामेंट में भ्भी स्टूडेंट बढ़-चढ़कर पार्टिसिपेट करते थे। इन स्कूल-कॉलेज से ही खेलकर न जाने कितने फुटबॉलर्स ने नेशनल इंटरनेशनल लेवल पर बनारस का मान बढ़ाते हुए अपनी चमक को देश दुनिया में बरकरार रखा था। मगर अब स्कूल-कॉलेजेज में भी फुटबॉल को लेकर एक्टिविटी न के बराबर हो गई है। यहां अन्य तरह के आउटडोर गेम्स अलावा इंडोर गेम्स को ज्यादा तवज्जो दी जा रही है। शायद एक यह भी एक वजह है कि अब फुटबॉल के अच्छे प्लेयर्स नहंी निकल पा रहे है।
फुटबॉल क्लबों के बंद होने के पीछे की वजह खेल का मैदान हैं। पहले बेनियाबाग मैदान के अलावा सीएचएस, बीएलडब्ल्यू व अन्य मैदान मिल जाते थे, लेकिन फुटबॉल संघ का सपोर्ट न होने से वो भी मिलना बंद हो गया। जो बचा था अब उसे भी छोटा कर दिया गया।
नूर आलम, पूर्व इंटरनेशलन फुटबॉल प्लेयर
हमने अपने दौर में फुटबॉल को लेकर काफी मेहनत की थी, लेकिन समय और शासन की उदासीनता के चलते यह खेेल दम तोड़ रहा है। फुटबॉल का बड़ा मैच कराने के लिए बड़ा मैदान चाहिए, जो अब नहीं है। यहीं वजह है कि मैदान के साथ इसके क्लब व कोचिंग भी सिकुड़ गए है।
शकील अहम, पूर्व नेशनल फुटबॉल प्लेयर