मेरठ (ब्यूरो)। गंगानगर में दादा-दादी आश्रम चला रहीं नम्रता ऐसे बुजुर्गों को सहारा दे रही हैं जिन्हें उनके बच्चों ने ही घर से निकाल दिया। बकौल नम्रता मूल रूप से इंदौर के छोटे से जिले उमरिया में जन्म हुआ। वहीं पढ़ाई-लिखाई हुई। मन में सेवा का भाव शुरु से ही था। शादी के बाद मेरठ आ गई। ससुराल में पारिवारिक विवाद हुआ। मजबूरन पति संग घर छोडऩा पड़ा। बस यहीं से मन में दबे भाव को धरातल पर उतारने का मौका मिला। मैंने ठान लिया कि बुजुर्गों की सेवा करनी है। पति ने साथ दिया। उस वक्त हमारे पास साधन नहीं थे। बस हमने शुरुआत की और हमारा कारवां बढ़ता गया।

साठ से अधिक बुजुर्गों को सहारा
दादा-दादी आश्रम में मेरे पास अब साठ से अधिक बुजुर्ग हैं। जिन्हें हम अम्मा-बाबा बुलाते हैं। ये सभी ऐसे बुजुर्ग हैं जिन्हें उनके बच्चों ने घर से निकाल दिया। कुछ ऐसे भी हैं जिनके बच्चे बाहर चले गए । बेसहारा हुए तो यहां आ गए। हमारे लिए ये सभी माता-पिता ही तरह हैं। सभी की उम्र साठ वर्ष से अधिक है। हर बुजुर्ग की कहानी बहुत पीड़ादायक है। धन-संपत्ति बची नहीं, बच्चों ने साथ नहीं दिया, बेघर हुए, अंतिम समय में कहां जाएं। मेरे आश्रम का पता सबसे पास है। किसी ने बताया और यहां आ गए। मैं सबको एक जैसा प्यार देती हूं।

साधन बनते गए
आश्रम को संचालित करने के लिए हमें अधिक साधन चाहिए थे। हमारे पास भी लेकिन अधिक धन नहीं था। सरकारी अनुदान भी नहीं था। बस विश्वास था कि हो जाएगा। हुआ भी। धीरे-धीरे लोग हमारे साथ जुडऩे लगे। आश्रम भी किराए की बिल्डिंग में चलता है ऐसे में भवन का किराया, खाने और कुक का खर्चा, कपड़े, दवा समेत कई तरह के खर्चे मिलाकर कुल 70 हजार से एक लाख रुपये तक का खर्च आता है। ईश्वर ने हाथ पकड़ा और कई लोग हमारे साथ जुड़ गए। आश्रम का खर्च चलने लगा।

चार सौ रूपये की नौकरी
वर्ष 1999 में पति संग ससुराल से विवाद होने के बाद हम घर छोड़कर आ गए। हम दोनों सड़क पर आ गए थे। जीवन सामने था। जेब में लेकिन कुछ नहीं था। मैंने और मेरे पति ने हिम्मत नहीं खोई। किसी तरह उस वक्त खुद को संभाला। रहने के लिए घर तलाशा। उसके बाद एक स्कूल में चार सौ रूपये महीना की नौकरी शुरु की। कुछ समय मैंने ये नौकरी की। उसके बाद महिला कल्याण विभाग की ओर से संचालित आश्रम में वॉर्डन की नौकरी शुरु की। वेतन के तौर पर सात हजार रुपये मिलते थे। यहां भी अधिक दिन तक मन नहीं लगा। तीन साल बाद मैंने ये नौकरी भी छोड़ दी। वर्ष 2017 में मैंने अपना आश्रम शुरु किया। तब से अब तक कई बुजुर्ग मेरे परिवार का हिस्सा बन चुके हैं। अपने परिवार ने साथ छोड़ा तो नया परिवार बन गया।

कला और अभिनय से गहरा नाता
मैं अपने काम से बहुत खुश हूं। हालांकि कला और अभिनय से भी मेरा गहरा नाता है। रंगमंच से काफी लगाव भी रहा है। 12वीं पास करने के बाद ही मैं थियेटर से जुड़ गई। कई नाटकों में अभिनय किया। जिसमें से एक सुदामा के चावल भी है। कभी कभी शौकिया अभिनय कर लेती हूं। मेरा प्रयास है कि आश्रम में आने वाले सभी बुजुर्गों को परिवार की कमी महसूस न हो। समाज में बच्चों के लिए भी ये संदेश भी है कि माता-पिता को बेसहारा न छोड़े। उनका कर्ज कई जन्मों तक भी चुकाया नहीं जा सकता है।