- संतकोरी ने सुनाया दिल का हाल तो भर आई बेटे की आंखें
- बीते 40 साल से नागरिकता पाने के लिए कर रहीं हैं मशक्कत
Meerut । पैरों में सूजन आ गई थी, अफसरों के चक्कर काटते-काटते, कभी भूखी प्यासी भटकती थी तो कभी दिन रात का भी नहीं रहता था होश, इन तरसती आंखों को अब जाकर सुकून आया है। कुछ इस तरह की बातें बताई पाकिस्तान से आई संत कोरी ने। नागरिक अधिकार मंच की एक पुस्तक में उनका उल्लेख किया गया है। जब दैनिक जागरण आई नेक्स्ट की संवाददाता ने उनसे बात की। दरअसल, 40 साल से नागरिकता पाने का सपना देखती संतकोरी ही नहीं, बल्कि उनके परिवार के सदस्यों को भी काफी भटकना पड़ा है। यहीं नही, जब जीवन के एक मोड़ पर साल 2008 में जब संत कोरी के हमसफर नहीं रहे तो मुश्किलें और भी बढ़ती गई, ऐसे में केवल बेटा व बहू ही सहारा बने जो उनके इस सपने को साकार करने में जुटे हैं। संतकोरी का मानना है उनके परिवार की ही साधना का फल है जो आज अपने देश में अपनों के बीच अंतिम सांसे लेने की उम्मीद मिली है।
चालीस साल से भटकाव
मेरठ के देवपुरी निवासी संतकोरी ने बताया कि उन्होनें नागरिकता पाने के लिए बीते 40 सालों से प्रयास कर रही हैं, लेकिन उनको परिणाम में हताशा, निराशा व थकावट और भूख प्यास ही मिली। उनको हर पांच साल वीजा अपडेट कराने के लिए भारतीय दूतावास दिल्ली जाना पड़ता है। वे बीते 40 साल से कचहरी के भी चक्कर काट रही हैं। कभी किसी तो कभी किसी अधिकारी के पास जा जाकर उनके पांव में सूजन तक आ गई। 2008 में जब उनके पति की मृत्यु हो गई तो उनका बेटा व बहू ही उनके साथ ऑफिसों में जाने लगे। भारत की नागरिकता पाने के सपने को साकार करने के लिए हर प्रयास किया पर कुछ हाथ नहीं लगा।
बेटे ने बताया मां का दर्द
संत कोरी के बेटे राधेश्याम ने बताया कि उनकी मां बीते 40 साल से नागरिकता पाने के लिए चक्कर काट रही है। पढ़ी लिखी नहीं है तो ऑनलाइन फार्म भर नहीं पाती है, ऐसे में मैनुअल के चक्कर में ऑफिसों के चक्कर अधिक काटने पड़े, कई बार तो भूखे प्यासे सुबह से लेकर शाम हो जाती थी। उन्होनें बताया कि उनकी मां 1979 में भारत आई थी, तभी से उनका सपना था कि अंतिम सांसे अपने देश की नागरिकता लेकर ही बीते। अब सरकार ने नागरिकता संशोधन अधिनियम बनाया है तो उम्मीद बंध गई है।
मांगी है बाबा से मन्नत
संतकोरी ने बताया वो इस नागरिकता के चक्कर में कई बार कचहरी जा चुकी है, जब भी जाती है। वहां स्थित भोले बाबा से शिवचौक पर मन्नत मांगी है कि जैसे ही उनका सपना पूरा होगा तो वो सबसे पहले भोले बाबा को वस्त्र व प्रसाद चढ़ाएंगी और गुरुद्वारे में पाठ करेंगी।
आई थी तो लोगों ने दिया साथ
संतकोरी ने बताया कि जब वो पाकिस्तान से आई थी उनके पास कुछ खास नहीं था। पति का भी छोटा सा काम था। लेकिन देश के लोगों का उनको बहुत योगदान मिला। उन्होनें गुरुद्वारे में पाठी की सेवा की, उसी से जो मिलता था वो घर खर्च में काम आता था। आज भी वो पाठी का काम सेवा के रुप में कर रही है।
सिर्फ तीसरी क्लास तक पढ़ीं
संतकोरी ने बताया कि वो पाकिस्तान में ही पैदा हुई थी, वहीं पली बढ़ी है। वहां हिंदुओं पर बहुत जुल्म होते थे, बड़ी मुश्किल से जाकर बराबर के स्कूल में तीसरी तक पढ़ पाई। धर्म के बचाव के कारण वो घर से बाहर नही निकलते थे, बुर्का पहनकर निकलना पड़ता था। घरों में डर डर कर पूजा करनी पड़ती थी, घर से बाहर किसी को भनक न पड़े कि हम हिंदू है अपने धर्म की पूजा कर रहे है, इसलिए बहुत ही चुपचाप से पूजा करनी होती थी। वरना मारपीट होती थी और लड़कियों के जबरदस्ती निकाह तक पढ़वा दिए जाते थे।