- कल मनाया जाएगा विश्व रंगमंच दिवस, कलाकारों ने शेयर किये अपने अनुभव
- दो पीढि़यों के कलाकारों ने बयां की रंगमंच की दुनिया की तस्वीर
LUCKNOW: इनकी दुनिया बस रंगमंच ही है। रंगमंच के सिवाय इनको दिखता भी कुछ नहीं। इनका बस एक ही मकसद है कि रंगमंच को उसके सही मुकाम तक ले जाना। लोगों के बीच जो विचारधारा बनी है कि आधुनिक युग में रंगमंच का स्तर गिर गया है, उसको ऊपर उठाना है। 27 मार्च को विश्व रंगमंच दिवस मनाया जाता है। हमारे शहर में रंगमंच का दायरा बाकी शहरों से काफी ज्यादा बड़ा है। शहर में मौजूद दो पीढ़ी के कलाकारों के बीच बस इतना ही फर्क है कि उन्होंने समाज के बदलते परिवेश के साथ काम किया है। इन रंगमंच के कलाकारों की रग-रग में रंगमंच बसा है। ये दूर होकर भी दूर नहीं हो सकते। एक नाटक को पूरा करने के लिए ये दिन रात मेहनत करते हैं और जब नाटक मंच पर पूरा होता है तो दर्शकों के द्वारा मिलने वाली तालियां ही इनका इनाम होता है। अपनी पूरी जिंदगी को इन कलाकारों ने रंगमंच को समर्पित कर दिया है। कई कलाकारों को उनके मान के सामान सम्मान नहीं मिला, मगर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और रंगमंच पर आज भी मंच पर या मंच के पीछे सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। कलाकारों की मानें तो रंगमंच उनको अपनी सोच को समाज के सामने रखने की आजादी देता है,
आज के यंगस्टर्स में धैर्य की कमी
संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड से सम्मानित सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ कहते हैं कि मैं 1974 से रंगमंच से जुड़ा हूं। अब तक मैंने 100 से ज्यादा नाटकों में काम किया है और पूरे देश में नाटक किये हैं। रंगमंच के क्षेत्र के बारे में वह कहते हैं कि आज के समय में नाटकों की संख्या बढ़ गई है, मगर इन नाटकों की क्वालिटी गिर गई है। यंगस्टर्स में धैर्य की कमी है, जिस तरह की परिस्थिति में हम लोगों ने रंगमंच की शुरुआत की थी, अगर उस परिस्थिति में ये होते तो शायद ये इस फील्ड में ही नहीं आते। रंगमंच के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है धैर्य।
रंगमंच की गुणवत्ता को बनाये रखें
100 से ज्यादा नाटक और शीशीशी सेचुंरी बुड्डा नाटक के पूरे भारत में एक हजार से ज्यादा शो कर चुके जितेंद्र मित्तल कहते हैं कि मैं 1977 से रंगमंच की दुनिया में हूं। संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड से नवाजे जा चुके जितेंद्र मित्तल कहते हैं कि ये रंगमंच एक जिंदगी है। इसके बगैर दुनिया भी बेरंग लगती है। रंगमंच के लिए समर्पण का होना बहुत जरूरी है। आज के समय में तो रंगमंच में बहुत ही ऑप्शन हैं, हमारे समय में इतने ऑप्शन ही नहीं थे। आशा करता हूं कि आने वाली पीढ़ी रंगमंच की गुणवत्ता को बनाये रखेगी।
नाटक के लिए घर का सामान बेचा
फिल्म इंस्टीटयूट से पास आउट और राज्यपाल द्वारा कला रत्न से सम्मानित प्रभात बोस कहते हैं कि रंगमंच का जुनून ऐसा चढ़ा कि इसी की दुनिया में बस गये। 1970 में मैंने इसमें कदम रखा और अब तक मैंने 866 नाटक पूरे भारत वर्ष में किये हैं। शुरू में बहुत मुश्किलें हुई। नाटक करने के लिए पैसा नहीं होते थे तो घर का सामान बेच दिया, लेकिन नाटक को रुकने नहीं दिया। पहले भी नाटकों को दायरा पब्लिक से ही जुड़ा होता था। आज भी वही है, लेकिन अब उद्देश्य पूर्ण नाटकों को सही तरीके से प्रस्तुत नहीं किया जा रहा है। वरगल नाटकों का मंचन नहीं होना चाहिए
नये प्रयोग रंगमंग के लिए शुभ संकेत
युवा रंगमंच कलाकारों में मुकेश वर्मा ने बताया कि थियेटर मेरा शौक था, मगर पता नहीं कब यह शौक जुनून बन गया। पता ही नहीं चला। अब तक 40 नाटकों में काम कर चुका हूं। नाटक माई सैंडल को पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने बैन कर दिया था। मुकेश कहते हैं कि रंगमंच एक पाठशाला है। यहां पर व्यवसाय नहीं होता। पहले की अपेक्षा रंगमंच सशक्त हुआ है। किसी का एकाधिकार नहीं है। नए प्रयोग हो रहे हैं, जो रंगमंच के लिए शुभ संकेत है।
थियेटर की दुनिया अलग, फिल्मों की अलग
नई पीढ़ी के कलाकारों में शुभम बाजपेई शहर का सबसे चर्चित नाम बन चुका है। शुभम कहते हैं कि मैंने 2010 में रंगमंच से अपना नाता जोड़ा था। अब तक मैं 40 प्ले कर चुका हूं और चार प्ले का निर्देशन भी किया है। कहते हैं कि थियेटर ही सबकुछ है। इसके आगे कुछ दिखता ही नहीं है। आज के लड़कों में टीवी पर दिखने का जुनून है वो इसलिए थियेटर करते हैं कि उनको फिल्मों में जाना है। उन लोगों को ये समझना चाहिए कि थियेटर की दुनिया अलग है और फिल्मों की अलग। हमें अपने अंदर सीखने की चाहत को नहीं मारना चाहिए। जिस दिन सीखने की चाहत खत्म हो गई, उस दिन आप रंगमंच से खत्म हो जाएंगे।
नाटकों के स्तर पर उठाना मेरा मकसद
एम। अभिषेक ने 2004 में रंगमंच के साथ अपना सफर शुरू किया। अब तक उन्होंनें 30 से ज्यादा नाटक किये हैं। अभिषेक कहते हैं कि शहर में रंगमंच का दायरा बहुत बढ़ गया है। खासकर युवाओं का रुझान बहुत ही ज्यादा बढ़ा। मैंने जब रंगमंच के साथ सफर शुरू किया था तो बहुत मुश्किलें थी। मैं रात में शादियों में फोटो करता था, उसके बाद दिन में थियेटर और उन पैसों से ही थियेटर की जरूरत पूरी करता था। रंगमंच पर जो मात्र खानापूर्ति की जाती है, उसको खत्म करना है। रंगमंच पर हो रहे नाटकों के स्तर को उठाना ही मेरा मकसद है।