कानपुर(ब्यूरो)। नगर निगम चुनाव में वोटर अपनी पसंद का पार्षद और महौपार चुनते हैं। हर वोट दो वोट करता है। एक पार्षद के लिए और दूसरा महापौर के लिए। लेकिन पहले ऐसा नहीं था। वोटर्स की बजाए चुने गए सभासद ही मेयर (नगर प्रमुख) चुनते थे। वहीं नगर प्रमुख का कार्यकाल भी पांच साल की बजाए एक वर्ष होता था। एक साल बाद फिर सभासद नगर प्रमुख चुनते थे। यही सिलसिला आगे भी जारी रहता है। यही नहीं सभासद ही डिप्टी मेयर का चुनाव करते थे। डिप्टी मेयर का कार्यकाल पांच वर्ष का होता था।
एक वार्ड से 2 सभासद
नगर निगम से पहले सिटी में लोकल बॉडी के रूप में नगर महापालिका काम करती थी। पूर्व सभासद शंकर दत्त मिश्रा के मुताबिक 1959-60 में 36 वार्ड हुआ करते थे। एक वार्ड से दो सभासद चुने जाते थे। इसके अलावा 8 विशिष्ट सभासद भी होते थे। यानि टोटल 80 पार्षदों का सदन होता था। नगर महापालिका का मुख्यालय चाचा नेहरू अस्पताल कोपरगंज में था। यही चुने गए सभासद एक साल के लिए नगर प्रमुख और पांच साल के लिए डिप्टी मेयर को चुनते थे।
74वां संविधान संसोधन
आंशिक रूप से 74वां संविधान संसोधन यूपी में लागू हो जाने के बाद 1989-90 में वार्डो की संख्या बढक़र 50 हो गई। तब भी एक-एक वार्ड से दो-दो सभासद चुने जाते थे। एमपी, एमएलए, एमएलसी को पदेन सदस्य होते थे। इससे पहले लगभग 15 साल के सदन निलंबित रहा था। 1995-96 में सिटी में 110 वार्ड हो गए। एक वार्ड से एक ही कारपोरेटर चुना जाने लगा। यानि निकाय इलेक्शन में 110 कारपोरेटर चुने जाने लगे। इसके साथ ही शासन से भी 10 कारपोरेटर मनोनीत किए जाने लगे। पहले की तरह एमपी,एमएलए, एमएलसी को पदेन सदस्य होते हैं।
डिप्टी मेयर का पद खत्म
इसके साथ ही मेयर का इलेक्शन कारपोरेटर्स की बजाए डायरेक्ट पब्लिक (वोटर्स) के जरिए होने लगा। यह सिलसिला अब भी जारी है। हालांकि डिप्टी मेयर का पद पहले ही खत्म हो गया था। पहले की तरह अब भी पार्षदों के बीच से नगर निगम कार्यकारिणी सदस्य चुने जाते है। अगर सर्वसम्मति नहीं हुई तो इलेक्शन होता है। इसी तरह केडीए बोर्ड के दो मेंबर भी इन्हीं पार्षदों के बीच चुने जाते थे। पर अबकि बार ऐसा नहीं हुआ।