मार्च 1983 में नई दिल्ली में आयोजित सातवें गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन के दौरान मैं महासचिव के पद पर था.  कई देशों के प्रधानमंत्रियों, राष्ट्रपतियों, 100 देशों के विदेश मंत्रियों और अन्य प्रमुख राजनेताओं ने इस सम्मेलन में हिस्सा लिया।

ये वही सम्मेलन था जिसके पहले ही दिन भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को गुटनिरपेक्ष देशों का अध्यक्ष चुन लिया गया था। उनसे पहले क्यूबा के राष्ट्रपति फ़िदेल कास्त्रो ने इस पद का कार्यभार संभाला हुआ था। वो दिल्ली में मौजूद थे और उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता भी कर चुके थे। इस समारोह में पांच नेताओं ने भाषण दिया। इन्हें बहुत ध्यान से चुना गया था और फलस्तीनी नेता यासिर अराफात इनमें से एक थे।

रूठे अराफात

भोजन के अवकाश में मेरे सहायक एसके लांबा मेरे पास आए, “सर, बहुत बड़ा संकट पैदा हो गया है, यासिर अराफात ने सम्मेलन छोड़ आज शाम जाने का फैसला कर लिया है, उनका कहना है कि सुबह के सत्र में उनका अपमान किया गया.”

ये सचमुच बुरी खबर थी। मैंने इंदिरा गांधी को फोन किया और उन्हें बताया कि यासिर अराफात शाम तक दिल्ली से जाने की बात कर रहे हैं। उनका कहना था कि सुबह के सत्र में जॉर्डन के शासक को उनसे पहले बोलने का अवसर दिया गया।

मैंने उन्हें कहा कि वो फ़िदेल कास्त्रो को विज्ञान भवन (जहां सम्मेलन हो रहा था) आने का निवेदन करें। दोपहर तक वो ही अध्यक्ष की भूमिका में थे और उसके बाद ये कमान इंदिरा गांधी को दी जानी थी।

कास्त्रो की सूझबूझ

कुछ ही देर में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी विज्ञान भवन पहुंच गईं और कुछ ही मिनटों में फ़िदेल कास्त्रो भी आ गए। इंदिरा गांत्री ने उन्हें यासिर अराफात की शिकायत और दिल्ली छोड़ने के फैसले के बारे में बताया।

सब सुनने के बाद कास्त्रो ने अराफात को फोन किया और फौरन विज्ञान भवन आने को कहा, और अराफात आ भी गए। कास्त्रो ने फलस्तीनी लिबरेशन अथॉरिटी के तुनक मिज़ाज नेता से पूछा कि वो खुद को इंदिरा गांधी का दोस्त मानते हैं या नहीं।

अराफात का जवाब था, “दोस्त, दोस्त वो तो मेरी बड़ी बहन हैं, मैं उनके लिए कुछ भी कर सकता हूं.” इस पर कास्त्रो ने कुछ सख्त तरीके से कहा, “तो एक छोटे भाई की तरह पेश आइए और दोपहर के सत्र में शिरकत कीजिए.”

यासिर अराफात ने ऐसा ही किया। कास्त्रो ने सम्मेलन को बचा लिया। कास्त्रो अपने जैसे एक थे। कई बार उन्हें देखकर लगता था जैसे उन्हें कोई परेशानी नहीं है।

‘नेटो’ प्रासंगिक है तो ‘नैम’ भी

वर्ष 1991 में सोवियत यूनियन के विघटन के बाद से अमरीका के नेतृत्व में पश्चिमी देशों ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन (नैम) की खूब खबर ली। उनका तर्क था, “सोवियत यूनियन अब इतिहास का हिस्सा हो गया है, वार्सॉ समझौता भी अब नहीं है, शीत युद्ध समाप्त हो गया है तो नैम अब प्रासंगिक नहीं है और उसे खत्म कर देना चाहिए.”

मैंने कई बार इसका जवाब दिया है। अगर सोवियत यूनियन और वार्सो समझौता इतिहास हो गए हैं तो नेटो को भी खत्म कर देना चाहिए। उसकी प्रासंगिकता क्या है? अब उसका दुश्मन कौन है? इसके बावजूद नेटो बढ़ता रहा है। अब वो रूस की पश्चिमी सीमा तक पहुंच चुका है और मेरे तर्क का कोई जवाब सामने नहीं आ रहा।

आगे की राह

नैम को अगर बने रहना है और प्रसंगिक होना है तो उसे खुद को बदलना होगा। 21सवीं सदी के दूसरे दशक के मुद्दे 1950 और 1960 के मुद्दों से अलग हैं।

आज की चुनौतियां साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद और नस्लवाद नहीं हैं। अब हमें वित्तीय संकट, आतंकवाद, ड्रग्स, गैरकानूनी अप्रवासन, पानी की कमी, पर्यावरण की दिक्कतें, जनसंख्या नियंत्रण, एचआईवी एड्स, गरीबी इत्यादि से जूझना है।

नैम को कूटनीतिक तौर पर नया खून चाहिए। ये मुद्दे विवादास्पद हैं और इनपर अपने पक्ष की पैरवी करने के लिए एक संयुक्त, दृढ़ और सशक्त संगठन चाहिए। इसमें भारत एक अहम् भूमिका निभा सकता है। लेकिन नैम के प्रति मनमोहन सिंह की प्रतिबद्धता सतही है।

तेहरान की प्राथमिकता

तेहरान में नैम की प्राथमिकता ईरान का परमाणु कार्यक्रम है। सीरिया और भारत फूंक-फूंक के कदम रख रहे हैं। लेकिन हमें अपनी बात रखनी चाहिए। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का विस्तार भी एक अहम् मुद्दा है। सुरक्षा परिषद दुनिया की सबसे अलोकतांत्रिक संस्थानों में से एक है। समय समय पर सुझाव दिया गया है कि भारत, सुरक्षा परिषद के विस्तार होने पर वीटो के अधिकार के बिना भूमिका स्वीकार ले।

ये बकवास है। एक ओर हम सुपर-पावर बनने की ख्वाहिश रखते हैं और दूसरी ओर हम सुरक्षा परिषद में दूसरे दर्जे की भूमिका में आने को तैयार हों। नैम को और कार्यकुशल और रचनात्मक होना होगा। जैसा इंदिरा गांधी ने कहा था, “नैम दुनिया का सबसे विशाल शांति आंदोलन है.”

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