दो अलग गेम दो अलग कोच और उनकी अलग फील्ड पर उनमें एक चीज कॉमन है और वह है उनका अपने काम के लिए डेडिकेशन. एक की कोशिशों का सक्सेनजफुल रिजल्ट हम देख चुके हैं जबकि दूसरे का नतीजा अभी आना बाकी है।
हैरान हो गए हम बात कर रहे इंडिया के दो इंर्पोटेंट टीम गेम्स के कोचेस की। एक थे गुरू गैरी कर्स्टन जिन्होंने हारती और सेल्फकांफीडेंस खोती हुई इंडियन क्रिकेट टीम की उंगली थामी और उसे वर्ल्ड कप जीतने जैसे ग्लोरियस मोमेंट तक पहुंचाया। दूसरे कोच हैं माइकल नोब्स जिन्होंने हताशा में डूबी इंडियन हॉकी टीम की बांह थामी और उसे लंदन ओलंपिक का टिकट बड़े शानदार अंदाज में थमाया है।
अब देखना है कि क्या गुरू नोब्स वह शख्स बनेंगे जो इंडियन हॉकी को उसे उसी गोल्डन एरा में पहुंचा देंगे जिसके लिए वह जानी जाती रही है। नोब्स और गुरू गैरी में यही कॉमन नहीं है कि उन्होंने अपनी टीमों को जीत के ट्रैक पर डाला बल्कि उन्होंने लगभग एक जैसी सिचुएशन में टीमों की बागडोर भी संभाली।
जिस वक्त गैरी कर्स्टन इंडियन टीम से जुड़े उस समय पूरी क्रिकेट टीम चैपल की चालाकियों के दंश से बेहाल थी। गांगुली का गोल्डन एरा गुजर चुका था। खिलाड़ी कन्फ्यूज और मिसगाइड थे। इंटरनल और बोर्ड दोनों तरह की पालिटिक्स की दोहरी मार से टीम का बिखराव शुरू हो चुका था। ऐसे में सबको समेट कर सही जगह और सही डायरेक्शन में लाने का टास्क गैरी ने जिस तरह पूरा किया काबिले तारीफ है।
ऐसा ही कुछ कमाल माइकल नोब्स को भी करना था। बीजिंग के लिए क्वालिफाइ ना करके कंपटीशन में बिना उतरे आउट होने की इंसल्ट इंडियन हॉकी झेल चुकी थी। खिलाड़ियों का फ्यूचर दो दो फेडरेशन्स की लड़ाई में खो चुका था। इंटरनल पालिटिक्स का जहर हमारे नेशनल गेम को पैरलाइज करने लगा था। ऐसे में टीम को संभालना उसका कांफीडेंस बहाल करना और ओलंपिक के क्वालिफायर राउंड में क्लीन स्वीप करने लायक बनाना आसान नहीं था।
गुरू नोब्स ने यह कर दिखाया है अगस्त् 2012 तक यह भी पता चल जाएगा कि हम कहां तक पहुंचे हैं। लेकिन इतना तो तय है कि वह सुबह जिसकी हमें तलाश थी अब कुछ कुछ दिखने लगी है। अब इंडियन व्यूअर्स अपनी टीम को उम्मीद से ना केवल देख सकते हैं बल्कि उसे दिल से चियर भी कर सकते हैं। क्योंकि अब हमारे पास एक अच्छी टीम और मौका है।