कानपुर (ब्यूरो) आम तौर पर जिनके घर स्कूल के पास होते हैैं, वो अपने बच्चों को निजी वाहन (टू व्हीलर, फोर व्हीलर) से या पैदल ही छोड़ आते हैैं। वहीं जिन बच्चों के स्कूल घर से दूर होते हैैं वो स्कूल आने जाने के लिए स्कूल की वैन या बस का यूज करते हैैं। वहीं शहर के कुछ इलाके ऐसे भी हैैं जहां नामी गिरामी स्कूलों के व्हीकल नहीं आते हैैं। यहां से बच्चों को निजी वाहनों से स्कूल भेजना मजबूरी हो जाती है। दूसरा ये कि मध्यम वर्गीय परिवार में बच्चे के सुनहरे भविष्य का सपना संजोए गार्जियन उसका एडमिशन बड़े स्कूलों में करा देते हैैं, लेकिन आने जाने में ज्यादा खर्च न हो इसके लिए प्रतिबंधित वाहन जैसे पैडल रिक्शा, ई रिक्शा, ऑटो रिक्शा, टेम्पपो, वैन लगा देते हैैं। परिवार वाले ये देखने कभी नहीं जाते कि इन वाहनों में उनके बच्चों को किस तरह से बिठाया जाता है।
स्कूली वाहन से साठ फीसद बच्चे जाते हैैं स्कूल
कानपुर शहर में 60 से 70 ऐसे स्कूल हैैं जिनमें बच्चे स्कूली वाहन या प्रतिबंधित वाहनों से स्कूल जाते हैैं। इनमें से 5 से 7 फीसद बच्चे टू व्हील्र्स से स्कूल जाते हैैं। ये हमेशा ट्रैफिक रूल्स तोड़ते हुए दिखाई देते हैैं। स्कूटी और बाइक से स्कूल आने -जाने वाले इन बच्चों के पास न तो ड्राइविंग लाइसेंस होता है और न ही हेलमेट। ऊपर से तीन सवारी चलकर ये न सिर्फ ट्रैफिक रूल्स तोड़ते हैैं बल्कि इनकी धज्जियां उड़ाते हैैं। 10 से 13 फीसद वे बच्चे होते हैैं, जिनके घर स्कूल से कुछ दूरी पर होते हैैं। ये पैडल रिक्शा का यूज करते हैैं। स्कूली वाहनों का इस्तेमाल 35 से 40 फीसद बच्चे करते हैैं। 10 फीसद बच्चों को पैरेंट्स लेने जाते हैैं। अब 30 फीसद वे बच्चे हैैं जो प्रतिबंधित वाहनों (ई रिक्शा, ऑटो रिक्शा, टैैंपो, वैन) का इस्तेमाल करते हैैं। आम तौर पर देखा जाता है कि हादसे का शिकार भी ये वाहन ही होते हैैं। इन वाहनों में क्षमता से ज्यादा बच्चे आमतौर पर बैठे देखे जाते हैैं। सबसे बड़ी लापरवाही ये है कि इन वाहनों को चलाने वाले भी पूरी लापरवाही से ही वाहनों को चलाते हैैं।
स्कूली बच्चों को ले जाने वाले कामर्शियल व्हीकल के मानक
- व्हीकल की खिड़कियों पर रॉड लगी होनी चाहिए, जिससे बच्चे हाथ या सिर बाहर न निकाल सकें।
- व्हीकल के शीशों पर काली फिल्म न लगी हो, बैग रखने के लिए छत पर लगेज हैैंगर लगा हो।
- व्हीकल में फायर एक्सटिंग्यूशर चालू हालत में हो और ड्राइवर कंडक्टर इसे ऑपरेट करना जानते हों।
- व्हीकल में फस्र्ट एड बॉक्स हो, जिससे हादसे के हालात में प्राथमिक चिकित्सा दी जा सके।
- व्हीकल का रंग पीला हो। इस पर कम से कम दो जगह ड्राइवर का नाम नंबर, स्कूल का नाम नंबर लिखा हो।
- सबसे जरूरी नियम ये है कि ड्राइवर और कंडक्टर वर्दी में हो और प्लेट पर उसका नाम जरूर लिखा हो।
- ड्राइवर के पास कॉमर्शियल वाहन चलाने का अनुभव और ड्राइविंग लाइसेंस हो।
- जितनी सीट्स हैैं उतने ही बच्चे बिठाए जाएं। स्कूल बस में बच्चे स्टैैंडिंग न ले जाए जाएं।
- ड्राइवर, कंडक्टर नशा न करते हों, उनका समय-समय पर मेडिकल परीक्षण कराया जाए।
प्रतिबंधित वाहनों में नहीं रहती है स्कूल प्रबंधन की जिम्मेदारी
अगर आपका बच्चा स्कूल बस या स्कूल वैन से स्कूल जाता है तो हर साल आपसे एक कंसेंट फार्म भरवाया जाता है। इस कंसेंट फार्म के भरने के बाद स्कूल बस में बच्चे की जिम्मेदारी स्कूल प्रबंधन की होती है। किसी निजी और प्रतिबंधित वाहन से बच्चो को स्कूल भेजने पर स्कूल प्रबंधन की जिम्मेदारी नहीं होती है। वहीं अगर आपका नाबालिग बच्चा टू व्हीलर से स्कूल जाता है तो ये पूरी तरह से गैर कानूनी है। इस गैर कानूनी प्रक्रिया में भी स्कूल प्रबंधन अपना पल्ला झाड़ लेता है। हालांकि स्कूल प्रबंधन अपने प्रिमाइसिस में इन वाहनों को पार्क कराता है, लिहाजा जिम्मेदारी बनती है, लेकिन कोई भी प्रबंधन किसी लफड़े में नहीं पडऩा चाहता, लिहाजा कोई रोक-टोक नहीं करता है।
इस तरह की समस्याएं वाहनों में
-सीटों से ज्यादा बच्चे बैठाकर ले जाते हैं
-कई बार बच्चे खड़े होकर स्कूल जाते हैं
-बच्चों के बैग रखने को प्रॉपर व्यवस्था नहीं
- कंडम गाडिय़ों का इस्तेमाल कर रहे है
-स्कूल वाहन के नियमों को फॉलो नहीं करते
-गाड़ी बंद होने पर बच्चों से धक्का लगवाते
जिले में 1554 प्राइवेट स्कूल्स
डिस्ट्रिक्ट के छोटे और बड़े सभी मिलाकर लगभग 1554 प्राइवेट स्कूल्स है। क्लास 1 से 8वीं तक बेसिक शिक्षा परिषद से मान्यता प्राप्त करीब 800 स्कूल, 9वीं से 12वीं में यूपी बोर्ड से मान्यता प्राप्त 540 प्राइवेट स्कूल, सीबीएसई के 164 और सीआईएससीई से मान्यता प्राप्त 55 सहित टोटल 1554 प्राइवेट स्कूल संचालित हैैं। इन स्कूलों में सात से आठ लाख बच्चे पढ़ते हैं। जिनमें 50 फीसदी के करीब बच्चे निजी या अन्य प्रतिबंधित वाहनों से स्कूल जाते हैं।