तीस वर्षीय झमक कुमारी घिमिरे अपने पैरों से लिखतीं है। और दुनिया से बातचीत करने का भी उनके पास यही एकमात्र तरीका है। उन्हें ये पुरस्कार उनकी आत्मकथा पर आधारित निबंधों की किताब ‘क्या जीवन कांटा है या फूल?’ के लिए मिला है। इस पुस्तक में उन्होंने पूर्वी नेपाल के पहाड़ी क्षेत्र में शारीरिक अक्षमताओं के साथ पैदा होने के बाद अभिव्यक्ति के लिए जो संघर्ष किया, उसकी दास्तान दर्ज है।
वे ना तो बोल पाती हैं और नहीं अपने हाथों से कुछ कर पाती हैं। उन्हें कभी स्कूल नहीं भेजा गया। उन्होंने स्वयं ही अपनी बहन को पढ़ाई के दौरान सुनते हुए ही सारी तालीम हासिल की। अपनी पुरस्कृत पुस्तक में झमक कुमारी घिमिरे ने पहली बार देवनागरी लिपि के ‘क’ अक्षर को लिखने के अनुभव का वर्णन किया है।
पहला अक्षर
घिमिरे लिखती हैं, “मैं उस लम्हे की ख़ुशी किसी के साथ साझा नहीं कर पाई, लेकिन मैंने अपना पहला अक्षर ज़मीन पर लिखा था और उसका उच्चारण मन ही मन किया था। मैं इतनी प्रसन्न थी कि मैंने कई मिट्टी पर ‘क’ लिखा। ” वे याद करती हैं कि मिट्टी पर लिखने के कारण उनके पैर से ख़ून बहना शुरू हो जाता था लेकिन इसके बावजूद शुरू में किसी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया।
“मैंने अपने पैर से ज़मीन पर एक बड़ा-सा ‘क’ उकेर कर छोड़ दिया ताकि कोई उसे देखे। लेकिन देखना तो दूर लोग उसपर पैर रखकर गुज़रते रहे और आख़िरकार वो मिट गया। मेरा पहला अक्षर बिना पढ़े ही मिटा दिया गया। ”
घिमिरे को साहित्यिक मान्यता मिलने की यात्रा काफ़ी धीमी रही। वे अपने माता-पिता द्वारा ज़मीन पर लिखने की वजह से पिटाई का ज़िक्र करती हैं, क्योंकि उनका मानना था कि ऐसा करना अपशकुन है।
‘सुरुचिपूर्ण अभिव्यक्ति’
घिमिरे ने जिन मुश्किलों का सामना किया है वैसा ही नेपाल में कई बच्चे करते रहे हैं। न्यूयॉर्क स्थित मानवाधिकार संगठन ह्यूमन राइट्स वॉच की एक रिपोर्ट में नेपाल में बड़े हो रहे विकलांग बच्चों को शिक्षा दूर रखने और समाज की उपेक्षा की बात कही गई है।
झमक कुमारी घिमिरे के पिता प्रसाद घिमिरे बताते हैं कि जब झमक सात साल की थी तब पड़ोसियों ने कहा था कि उसे नदी बहा दिया जाना चाहिए। प्रसाद घिमिरे ने कहा, “मैं उस दिन बहुत दुखी हुआ था। लेकिन आज मैं ख़ुश हूं। मेरी बेटी ने सारे परिवार का नाम रोशन किया है.”
आत्मकथा पर आधारित निबंधों के अलावा घिमिरे ने चार कविता संग्रह, दो कहानी संग्रह और अख़बारों में कई लेख लिखे हैं।
‘क्या जीवन कांटा है या फूल?
उनकी ताज़ा पुस्तक ‘क्या जीवन कांटा है या फूल? ’ का तीसरा नेपाली संस्करण आ चुका है। एक इंटरव्यू में घिमिरे ने वादा किया है कि जल्द ही वे अपनी किताबों का अनुवाद अंग्रेज़ी में उपलब्ध करवाएंगीं।
पुरस्कार पर प्रतिक्रिया देते हुए घिमिरे अपने पैरों में पैन फंसा लिखती हैं, “मैं पुरस्कार पाकर ख़ुश हूं। लेकिन साथ ही मुझे अब एक ज़िम्मेदारी का अहसास भी हो रहा है। मैं जल्दी ही दोबारा लिखना शुरू करूंगी। ”
नेपाल की मशहूर उपन्यासकार और अनुवादक मंजूश्री थापा ने घिमिरे के साहित्य की तारीफ़ की है। थापा बताती हैं, “झमक कुमार घिमिरे की अभिव्यक्ति सुरूचिपूर्ण हैं। ये उनकी शारीरिक अक्षमताओं की वजह से नहीं बल्कि उनके द्वारा शारीरिक कमियों पर विजय पाने की वजह से है। ”
मंजूश्री थापा घिमिरे की एक प्रसिद्ध कविता ‘मुहल्ले के बच्चे का अपने पिता से सवाल ’ का उदाहरण देती हैं। इस कविता में घिमिरे ने पिता को नेपाली राष्ट्र की उपमा दी है और बच्चे को ग़रीब जनता की।
थापा कहती हैं कि घिमिरे कि इस कविता में जब वो लिखती हैं – पिता, तुम मेरे जैसे आवारा बच्चों को क्यों पाल रहे हो?’ – तो वे एक सारी पीढ़ी के लिए लिख रही होती हैं।
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