जाने माने लेखक अमिताव घोष की पुस्तक River of Smoke की ये पंक्तियां हो सकता है आपने अंग्रेज़ी में पढ़ी हों लेकिन अब आप इन्हें हिंदी में भी पढ़ सकते हैं।

सिर्फ अमिताव घोष ही नहीं, नोबल पुरस्कार से सम्मानित वीएस नायपॉल और इतिहासकार रामचंद्र गुहा की किताबें भी अब हिंदी में आ रही हैं। इतना ही नहीं चेतन भगत और लोकप्रिय लेखक रविंदर सिंह की किताबों का भी हिंदी में बाज़ार बन रहा है। लेकिन क्या कारण है कि अंग्रेज़ी के ये बड़े लेखक हिंदी में अपनी किताबों का प्रकाशन चाहते हैं।

रामचंद्र गुहा कहते हैं, ‘‘मेरी किताब में कई प्रादेशिक नेताओं का भी ज़िक्र है उनके बारे में लिखा है तो मैं चाहता था कि राज्यों के लोग भी पढ़ें। ये तमिल, कन्नड़ में भी प्रकाशित हुई है। मेरे मन में शुरु से था कि ये किताब हिंदी में छपे। मेरी एक अन्य किताब 18-20 साल पहले भी हिंदी में छपी थी.’’

ये बात सही है कि एक बड़ा पाठक वर्ग मिलता है लेकिन नोबल विजेता नायपॉल के लिए क्या ज़रुरत है हिंदी में अनूदित होने की। प्रकाशक कहते हैं कि लेखक चाहे जितना बड़ा हो वो चाहता है कि ज्यादा से ज्याद लोग उसे पढ़ें।

हिंदी का पाठक वर्ग बड़ा

अमिताव घोष ने ईमेल पर बीबीसी को दिए इंटरव्यू में कहा, ‘‘ हर कथाकार चाहता है कि उसे ज्यादा से ज्यादा लोग पढ़ें। मैं हिंदी बोलता हूं समझता हूं तो मुझे बहुत खुशी हुई जब हिंदी में पुस्तक आई। मुझे पता चला है कि किताबें हिंदी में भी बहुत बिकी हैं। मेरी किताबों के अनुवादक नवेद अकबर ने बेहतरीन काम किया है। मेरी आने वाली किताबें भी हिंदी में आ सकती हैं और कुछ पुरानी किताबें भी। ’’

चाहे अमिताव हों, नायपॉल हों या फिर रामचंद्र गुहा, इनकी किताबें भारत से जुड़ी हैं। भारतीय माहौल से जुड़ी हैं और निश्चित रुप से इनका नाम बड़ा है। ऐसे में कई बार ऐसा होता है कि लोग इनकी किताबें अंग्रेज़ी में समझ नहीं पाते या उससे जुड़ाव नहीं हो पाता।

इलाहाबाद के स्वप्निल दिल्ली में रहते हैं और तैयारी कर रहे हैं। उन्होंने रामचंद्र गुहा की पुस्तक India after Gandhi अंग्रेज़ी में पढ़ी और फिर हिंदी में भी।

वो कहते हैं, ‘‘ मेरा जितना संवाद हिंदी से हो सकता है उतना अंग्रेज़ी से हमारा नहीं हो सकता। ये जीवन भर ऐसा ही रहेगा। जो अच्छी किताबें हैं वो हिंदी में तो आनी ही चाहिए। मैंने राम गुहा वाली किताब अंग्रेज़ी में पढ़ी तो उतना संबंध नहीं बन पाया। हिंदी में जल्दी पढ़ पाए और अपने आपको जोड़ भी पाए उस पुस्तक से.’’

स्वप्निल कहते हैं कि इंटरनेट के कारण हिंदी का प्रसार बढ़ा है और हिंदी के पाठकों को भी अंग्रेज़ी और अन्य भाषाओं के साहित्य में रुचि है और वो अनुदित पुस्तकें खूब पढ़ते हैं। ज़ाहिर है अपनी मातृभाषा में पढ़ने का आनंद ही कुछ और है।

हालांकि अनुवाद करवाना इतना आसान भी नहीं है। अमिताव घोष और वीएस नायपॉल के लिए प्रकाशक भले तैयार रहें लेकिन राम गुहा कहते हैं कि प्रकाशित करने में दिक्कत भी होती है।

दिक्कतें भी हैं

वो कहते हैं, ‘‘ दो दिक्कतें हैं। एक तो प्रकाशक मिलना क्योंकि प्रकाशक को लगता है कि ये किताबें नहीं बिकेंगी। मुझसे कहा गया था कि मैं प्रायोजक लाऊं अपनी किताब हिंदी में प्रकाशित कराने के लिए। खैर बाद में दूसरे प्रकाशक ने प्रकाशित की। दूसरी समस्या अच्छे अनुवादक की भी होती है। मेरी पुस्तक दो हिस्सों में भारत-गांधी के बाद और भारत-नेहरु के बाद के अनुवादक सुशांत झा हैं और मैं उनके काम से खुश हूं.’’

प्रकाशक भी इस बात को मानते हैं कि अनुवादक मुश्किल है लेकिन वो बड़े लेखकों के हिंदी या अन्य भाषाओं में प्रकाशन को लेकर उत्साहित हैं। जानी मानी प्रकाशन कंपनी पेंग्विन ने हिंदी में प्रकाशन का बड़ा काम शुरु किया है।

पेंग्विन के हिंदी प्रकाशन का काम देख रही रेणु अगाल बताती हैं, ‘‘ हम हिंदी में अनुवाद के कार्य पर बहुत ध्यान दे रहे हैं। हमने नायपॉल को पब्लिश किया है। अमिताव घोष भी और खालिद हुसैनी को भी। कई बार भारतीय पृष्ठभूमि से अलग वाली किताबें भी छापते हैं और लोग इसे पसंद करते हैं। खालिद हुसैनी की किताब अफगानिस्तान पर है लेकिन लोगों को पसंद आ रही है। इसी तरह और भी किताबें हैं.’’

तो क्या लेखकों का ज़ोर रहता है हिंदी के लिए। रेणु कहती हैं, ‘‘कौन नहीं चाहेगा कि हिंदी का एक बडा़ पाठक वर्ग उन्हें पढ़े। लोग नायपॉल का नाम जानते हैं। उनकी भारत ही नहीं और विषयों पर लिखी किताबें उनके विचार लोग जानना चाहते हैं और वो भी चाहते होंगे कि उन्हें अधिक से अधिक लोग पढ़ें.’’

मसला सिर्फ बड़े लेखकों की किताबों तक सीमित नही है। कई प्रकाशन संस्थाएं मैनेजमेंट से जुड़ी किताबें, गंभीर लेख और कई अन्य सामग्रियां भी हिंदी में छाप रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि लोग ये किताबें पढ़ते हैं।

मिल्स एंड बून्स सीरिज़ जो मूल रुप से अंग्रेज़ी में लिखी गई थी उसे भी भारतीय पाठकों के हिसाब से न केवल बदला गया बल्कि उसका हिंदी में भी अनुवाद हो रहा है।

अंग्रेज़ी के लेखकों की रुचि हिंदी में बढ़ी है और प्रकाशकों की भी। ऐसे में सबसे फायदे में हिंदी का पाठक वर्ग ही होगा क्योंकि अब उसके पास बड़े लेखकों को भी हिंदी में पढ़ने का बड़ा मौका होगा।

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