तस्लीम रफ़ीक नाम की महिला घर पर बेहोश हो गई और उसे अस्पताल ले जाया गया जहाँ डॉक्टरों ने 45 मिनट तक उसकी जान बचाने की कोशिश की।
तस्लीम के परिवार को बताया गया कि उनका निधन हो गया है। लेकिन रिपोर्टों की मानें तो जब 11 घंटे बाद बेटी ने माँ ने कुछ पूछा तो तस्लीम उठ गईं।
इसी तरह अप्रैल में ख़बर आई थी कि मृत घोषित किए जाने के छह दिन बाद एक चीनी महिला अपने ही ताबूत से उठ खड़ी हुई थी।
1996 में भी ऐसा एक किस्सा हुआ थ। ब्रिटेन में एक किसान की पत्नी ने नए साल से पहले आत्महत्या की और उन्हें मृत बता दिया गया। लेकिन शवगृह में पाया गया कि उनकी साँसें चल रही हैं। तो ऐसा कैसे हो जाता है कि डॉक्टर जिसे मरा हुआ घोषित कर दें वो फिर जि़दा हो जाते हैं ?
ज़िंदा या मृत
तस्लीमा के मामले में रेडिंग में रॉयल बर्कशायर अस्पताल का कहना है कि डॉक्टर नब्ज़ को नहीं पकड़ पाए क्योंकि वो बहुत ज़्यादा धीमे चल रही थी। हालांकि चिकित्सिक मानते हैं कि ऐसा बेहद कम होता है कि इस तरह की स्थिति में गलत आकलन हो जाए।
वैसे ब्रिटेन में मौत की कोई क़ानूनी परिभाषा नहीं है लेकिन जब चीज़ें अस्पष्ट हों तो ऐसी स्तिथि में मौत की पुष्टि के लिए कुछ दिशा निर्देश हैं।
ब्रिटेन के डॉक्टर पीटर सिम्पसन कहते हैं, “अगर दिशा निर्देश ठीक से माने जाएँ तो ग़लत आकलन संभव ही नहीं है। मौत से वापस ज़िंदा होने के मामले मैने विदेशों से ही सुने हैं जहाँ दिशा निर्देश कड़े नहीं है। मौत हो चुकी है या नहीं ये तय करने के तीन अंश हैं। पहले पूछिए कि मौत क्यों हुई, फिर मौत का डायगनोसिस करो। मौत की पुष्टि करने से पहले पाँच मिनट तक इंतज़ार करो.”
मौत के डायगनोसिस में ये परखना ज़रूरी है- दिल की धड़कन और साँस पर नज़र रखना और ये देखना कि आँखों की पुतलियाँ बड़ी हो चुकी हैं और कुछ प्रतिक्रिया दे रही हैं या नहीं।
डॉक्टर पीटर कहते हैं, “अगर कुछ शक हो तो दोबारा जाँच करनी चाहिए। कई बार दिल काम करना बंद कर देता है और फिर चलने लगत है। इसे ऑटोरिससिटेशन कहते हैं। ये ज़्यादा से ज़्यादा 90 सैकेंड तक होता है.”
फिर चलने लगी साँसऑटोरिससिटेशन को लज़ारस सिंड्रोम भी कहते हैं। लज़ारस सिंड्रोम इसलिए कहा जाता है क्योंकि ईशु मसीह ने लज़ारस नाम के व्यक्ति की मौत के चार दिन बाद उसे ज़िंदा कर दिया था।
2001 में इमरजेंसी मेडिकल पत्रिका में इस तरह के 25 मामले बताए गए थे। ऑटोरिससिटेशन का मतलब है कि दोबारा होश में लाने की विफल कोशिशों के बाद प्रवाह अपने आप फिर से शुरु हो जाए।
ऑटोरिससिटेशन की वजह से ही ब्रिटेन में 2009 में माइकल विल्किल्सन नाम के व्यक्ति की अंतिम क्रिया के दौरान नब्ज़ वापस लौट आई थी और उन्हें आईसीयू में भर्ती किया गया था। वे दो दिन तक ज़िंदा रहे और अंतत उन्हें मृत घोषित किया गया।
जब शरीर का तापमान बेहद कम हो जाए
कुछ मामले ऐसे होते हैं जहाँ भ्रम की स्थिति होती है.-जैसे अगर दवाओं के कारण मरीज़ का तापमान बहुत कम हो जाता है या किसी मेडिकल डिसऑडर्र की वजह से मरीज़ के खून के रसायनों में बदलाव आ जाता है ( मधुमेह वगैहर में)।
डॉक्टर पीटर कहते हैं, “ऐसी स्थितियों में अगर आप लक्ष्णों को नज़रअंदाज़ करते हैं तो मौत का डायगनोसिस गलत हो सकता है। जब तक मरीज सामान्य न हो जाए तब तक इंतज़ार करना चाहिए.”
बीबीसी की हॉरीज़न डॉक्यूमेंट्री से जुड़े डॉक्टर केविन फ़ॉन्ग एक वाक्या बताते हैं, “नार्वे की ऐना स्कीइंग के दौरान बर्फीली नदी में गिर गई थीं और 80 मिनट तक फँसी रहीं। इस कारण उनके शरीर के तापमान सामान्य से 20 डिग्री कम हो गया।
डॉक्टरों ने उन्हें बचाने के लिए नौ घंटे कोशिश की। एक मशीन उनके खून को शरीर के बाहर गर्म करती थी और फिर उसे नसों में प्रवाहित किया जाता था। जैसे जैसे शरीर का तापमान सामान्य हुआ, ऐना का दिल धड़कने लगा। वो मृत से ज़िंदा हो गई।
डॉक्टर की नैतिक ज़िम्मेदारी
मौत की पुष्टि के दिशा निर्देशों में ये नैतिक बात भी शामिल है कि ये बात बिना बेवजह की देरी से बता देनी चाहिए। डॉक्टर डेनियल कहते हैं, “किसी की मौत की पुष्टि करना दूसरों पर गहरा असर डालता है। डॉक्टरों की ये नैतिक ज़िम्मेदारी है कि वो मौत का डायगनोसिस सही तरीके से करें। ज्ञान और अनुभव की कमी, समय की कमी, थकावट, सहकर्मचारियों का दबाव ये सब बातें किसी डॉक्टर के आकलन को प्रभावित कर सकती हैं।
डॉक्टर डेनियल के मुताबिक जटिल मामलों में अनुभवी डॉक्टरों को ही मौत की पुष्टि करनी चाहिए। किसी दूसरे डॉक्टर की राय लेने से गलती की गुंजाइश कम हो जाती है।
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