उस हादसे के चश्मदीदों के मुताबिक दंगों में कई गांव जलकर राख हो गए थे और हज़ारों लोगों को अपनी जान बचाने के लिए घर छोड़कर भागना पड़ा था।
उस दौरान बांग्लादेश के सुदूरवर्ती इलाक़े नोआखली में उपद्रवी भीड़ ने हज़ारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया था और सैंकड़ों महिलाओं के साथ बलात्कार किया था।
मीडिया में आई ख़बरों में बताया गया कि कैसे हज़ारों अल्पसंख्यक समुदाय के हिंदूओं का ज़बरदस्ती धर्म परिवर्तन करवा कर उनसे इस्लाम धर्म अपनाने को कहा गया था।
इतना ही नहीं इन लोगों को मुसलमानों की तरह कपड़े पहनने और गाय का मांस खाने के लिए भी मजबूर किया गया था। नोआखली में हुआ ये नरसंहार उपमहाद्वीप में ब्रितानी शासन के खत्म होने के एक साल पहले हुआ था।
तबाही ही तबाही
ब्रिटिश शासन खत्म होने के बाद भारत और पाकिस्तान का जन्म हुआ था और पूर्वी बंगाल तब पाकिस्तान का हिस्सा हुआ करता था। झरना चौधरी उस समय की घटना को याद करते हुए कहती हैं,''हमारे घरों को जला दिया गया था जिसमें हमारे कई रिश्तेदारों की मौत हो गई थी। हमें अपनी जान बचाने के लिए पड़ोसी राज्य असम भागना पड़ा था.''
समाजसेवी और शांति कार्यकर्ता झरना चौधरी कहती हैं,''असम जाने के रास्ते में मैंनें हर जगह मौत और तबाही का मंज़र देखा था.'' इन दंगों के दौरान जिस अमानवीय तरीके से लोगों को मारा गया था उससे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी काफ़ी आहत हुए और यहां के लोगों को सांप्रदायिक सौहार्द और अहिंसा का पाठ पढ़ाने के लिए वे खुद खाली पैर चार महीनों तक गांव-गांव घूमते रहे।
भारत की स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान नोआखली में शांति-मिशन की स्थापना एक महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। नोआखली में हिंसा की ये घटना भारत के तत्कालीन राज्य कलकत्ता में हुए सांप्रदायिक दंगों के कई महीनों बाद हुई थी कलकत्ता के दंगों में भी हज़ारों लोगों की मौत हुई थी।
झरनाधारा चौधरी बताती हैं,''हालात सामान्य होने के बाद हम नोआखली वापस लौट आए थे, लेकिन दंगो का हमारे ज़ेहन पर गहरा असर हुआ था.''
ज़बरदस्त प्रतिक्रिया
झरना चौधरी कभी महात्मा गांधी से मिली नहीं है, लेकिन गांधी जी के अहिंसा, आत्मनिर्भरता और सामुदायिक काम-काज के सिद्धातों से वे काफी प्रभावित हुईं।
गांधी जी द्वारा दी गई सीख पर चलते हुए उन्हें एहसास हुआ कि लोगों की ज़िंदगी को बेहतर करने में शिक्षा का अहम् योगदान है। बिना किसी योग्य शिक्षा के मात्र 17 साल की उम्र में झरना ने अपनी बहन के साथ मिलकर गांव के ग़रीब बच्चों के लिए एक स्कूल की शुरुआत की, जिसे लोगों ने हाथों-हाथ लिया।
उन दिनों को याद कर झरना कहती हैं, ''हमारे पास स्कूल चलाने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं थे, स्कूल की किताबें और अन्य ज़रूरी सामान खरीदने के लिए हम हफ्ते में दो बार उपवास किया करते थे.''
इसके बावजूद कुछ सालों के बाद उनका स्कूल बंद हो गया लेकिन इससे वे हताश नहीं हुई। बाद में झरना चौधरी ने पूरी तरह से अपना जीवन सामाजिक कामों के लिए समर्पित कर दिया और आजीवन अविवाहित रहने का फैसला किया। इस दौरान वे ढाका, चटगांव, कोमिला जैसे देश के कई हिस्सों में रही।
कई सालों तक विभिन्न सामाजिक संगठनों के लिए काम करने के बाद झरना चौधरी अंतत: गांधी आश्रम ट्रस्ट जुड़ गईं। ये ट्रस्ट गांधी जी के नोआखली दौरे के बाद 'जायाग' गांव में स्थापित किया गया था।
वो कहती हैं,''1947 के मार्च महीने में जब गांधीजी यहां से जा रहे थे तब उन्होंने अपने कुछ अनुयायियों को यहां रुकने के लिया कहा था और ये भी कि वे एक साल बाद वापस आएंगे, लेकिन एक साल बाद उनकी हत्या हो गई थी.''
''गांधी जी की मौत के बाद भी उनके अनुयायायी यहां से वापस नहीं गए, इस उम्मीद में कि गांधीजी विचारधारा के तौर पर ही सही यहां एक दिन वापस ज़रूर आएंगे, और उनके दिखाए रास्ते पर चलते रहे.''
अच्छे हालात
एक स्थानीय ज़मींदार हेमंत कुमार घोष ने नोआखली आश्रम की स्थापना के लिए अपना घर और कऱीब ढाई हज़ार एकड़ ज़मीन दान कर दिया था, इस घर का महत्व इसलिए भी ज्य़ादा है क्योंकि अपने शांति-मिशन के दौरान गांधी जी यहां एक रात बिताई थी। आश्रम के आसपास का इलाक़ा काफ़ी शांत है।
जब पूर्वी बंगाल पाकिस्तान बना तब इस आश्रम को काफ़ी बुरा वक्त झेलना पड़ा। आश्रम को दी गई ज़मीनों ज़ब्त कर लिया गया और कई गांधीवादी कार्यकर्ताओं को जासूसी के आरोप में जेल में डाल दिया गया था। इन सबके बावजूद गांधी के अनुयायी आश्रम छोड़ने को तैयार नहीं हुए।
झरना कहती हैं, ''इस दौरान पाकिस्तानी सैनिकों ने इसी घर में गांधी जी के चार शिष्यों की हत्या कर दी थी। कई साल जेल में बिताने के बाद 1971 में चारु चौधरी जेल से रिहा हुईं थी.'' और 1971 में इस आश्रम को अपनी खोयी पहचान फिर से वापस मिल गई थी।
उसके बाद लगातार कई सालों तक अदालती लड़ाई के बाद गांधी आश्रम ट्रस्ट को अपनी पच्चीस एकड़ ज़मीन भी वापस मिल गई जिसके मुख्य भवन में एक छोटा सा गांधी संग्रहालय भी बनाया गया था। 1990 में चारु चौधरी की मृत्यु के बाद झरना चौधरी ने आश्रम का कामकाज संभाल लिया था।
आज ये आश्रम पच्चीस हज़ार ग़रीब परिवारों के साथ मिलकर काम कर रहा है जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों धर्म के लोग शामिल हैं। इस ट्रस्ट के ज़रिए ग़रीब बच्चों को मुफ्त शिक्षा, ग्रामीण महिलाओं को रोज़गार से संबंधित प्रशिक्षण और ग़रीबी उन्मूलन कार्यक्रम चलाए जाते हैं। इसके अलावा झरना चौधरी नोआखली के कई इलाकों में रहने वाले दलितों की बेहतरी के लिए काम कर रही हैं।
'गांधी शांति ट्रस्ट' आश्रम पिछले पैंसठ सालों से नोआखली प्रांत में रहने वाले विभिन्न समुदायों के बीच शांति और सौहार्द बनाए रखने की दिशा में महत्वपूर्ण काम कर रहा है, लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या वो इसमें सफल हो पाए हैं?
झरना गर्व से कहती हैं, ''यहां के हालात पहले से काफ़ी बेहतर हैं, गांधीजी के यहां आने के बाद यहां कोई बड़ी सांप्रदायिक घटना नहीं हुई है। उनके शांति मिशन ने नोआखली में मज़बूत परंपरा छोड़ी है.''
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