अपने शासनकाल के दौरान ही वो क्रांतिकारी हीरो से अंतरराष्ट्रीय जगत में अछूत की तौर पर देखे जाने लगे, फिर उनको एक अहम पार्टनर बताया जाने लगा और पिछले कुछ दिनों में वो फिर से अछूत की श्रेणी में रखे जाने लगे। उन्होंने अपना एक राजनीतिक चिंतन विकसित किया था, जिस पर उन्होंने एक किताब भी लिखी; जो उनकी नज़र में इस क्षेत्र में प्लेटो, लॉक और मार्क्स के चिंतन से भी कहीं आगे थी।

कई अरब और अंतरराष्ट्रीय बैठकों में वो न सिर्फ़ अपने अलग क़िस्म के लिबास की वजह से, बल्कि अपने धारधार भाषण और अपरंपरागत रंग-ढंग से भी औरों से अलग दिखे।

शुरुआती दिन

वर्ष 1969 में जब उन्होंने सैनिक तख़्ता-पलट कर सत्ता हासिल की थी, तो मुअम्मर ग़द्दाफ़ी एक ख़ूबसूरत और करिश्माई युवा फौजी अधिकारी थे। स्वंय को मिस्र के जमाल अब्दुल नासिर का शिष्य बतानेवाले ग़द्दाफ़ी ने सत्ता हासिल करने के बाद ख़ुद को कर्नल के ख़िताब से नवाज़ा और देश के आर्थिक सुधारों की तरफ़ तवज्जो दी, जो वर्षों की विदेशी अधीनता के चलते जर्जर हालत में थी।

सत्ता पलट से पहले वो कैप्टन के पद पर थे। अगर नासिर ने स्वेज़ नहर को मिस्र की बेहतरी का रास्ता बनाया था, तो कर्नल ग़द्दाफ़ी ने तेल के भंडार को इसके लिए चुना।

लीबिया में 1950 के दशक में तेल के बड़े भंडार का पता चल गया था लेकिन उसके खनन का काम पूरी तरह से विदेशी कंपनियों के हाथ में था जो उसकी ऐसी क़ीमत तय करते थे, जो लीबिया के लिए नहीं बल्कि ख़रीदारों को फ़ायदा पहुंचाती थी। ग़द्दाफ़ी ने तेल कंपनियों से कहा कि या तो वो पुराने क़रार पर पुनर्विचार करें या उनके हाथ से खनन का काम वापस ले लिया जाएगा।

लीबिया वो पहला विकासशील देश था, जिसने तेल के खनन से मिलनेवाली आमदनी में बड़ा हिस्सा हासिल किया। दूसरे अरब देशों ने भी उसका अनुसरण किया और अरब देशों में 1970 के दशक की पेट्रो-बूम यानी तेल की बेहतर क़ीमतों से शुरू हुआ ख़ुशहाली का दौर प्रारंभ हुआ।

राजनीतिक चिंतक

गद्दाफ़ी का जन्म वर्ष 1942 में एक क़बायली परिवार में हुआ था और हालांकि वो एक बहुत होशियार और ज़हीन शख़्स हैं लेकिन उन्हें क़ुरान और सैन्य शिक्षा के अलावा और किसी तरह की शिक्षा हासिल नहीं हुई थी। बावजूद इसके 1970 के आसपास उन्होंने विश्व के संबंध में एक तीसरा सिद्धांत विकसित करने का दावा किया, जिसके बारे में उनके 'ग्रीन बुक' में विस्तार से चर्चा है।

दावा किया गया है कि इस विचारधारा में एक ऐसी राह दिखाई गई है, जिसमें पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच का मतभेद ख़त्म हो जाएगा और जिसमें दबे-कुचले लोगों के राजनीतिक, आर्थिक प्रगति और सामाजिक क्रांति का रास्ता सुझाया गया है। लेकिन जिस विचारधारा में लोगों को आज़ाद करने का दावा किया गया था, उसी के नाम पर उनकी सारी आज़ादी छीन ली गई।

ग़द्दाफ़ी का मानना था कि प्रजातंत्र एक ऐसी तानाशाही है, जिसमें बहुमत दूसरों पर अपनी मर्ज़ी चलाता है। इसीलिए उन्होंने देश भर में जन समितियों की स्थापना की जिसे उन्होंने 'जम्हीरिया' का नाम दिया।

विदेशी में बढ़े क़दम

कर्नल ग़द्दाफ़ी ने बाद में चरमपंथी संगठनों को भी समर्थन देना शुरू कर दिया, जिसमें से कई तो बाद में उनके लिए घातक सिद्ध हुए।

बर्लिन के एक नाइट क्लब पर साल 1986 में हुआ हमला इसी श्रेणी में था, जहां अमरीकी फौजी जाया करते थे, और जिस पर हमले का आरोप ग़द्दाफ़ी के माथे मढ़ा गया। हालांकि इसके कोई ठोस सबूत नहीं थे। घटना से नाराज़ अमरीकी राष्ट्रपति रोनल्ड रीगन ने त्रिपोली और बेनग़ाज़ी पर हवाई हमलों का हुक्म दिया। हालांकि गद्दाफ़ी हमले में बच गए, लेकिन कहा गया कि उनकी गोद ली बेटी हवाई हमलों में मारी गईं।

दूसरी घटना जिसने दुनिया को हिला दिया था, वो था लॉकरबी शहर के पास पैनएम जहाज़ में बम विस्फोट, जिसमें 270 लोग मारे गए। कर्नल ग़द्दाफ़ी ने हमले के दो संदिग्धों को स्कॉटलैंड के हवाले करने से मना कर दिया, जिसके बाद लीबिया के ख़िलाफ़ संयुक्त राष्ट्र ने आर्थक प्रतिबंध लगा दिए जो दोनों लोगों के आत्मसमर्पण के बाद 1999 में हटाया गया। उनमें से एक मेगराही को उम्र क़ैद हुई।

बाद में कर्नल ग़द्दाफ़ी ने अपने परमाणु कार्यक्रम और रासायनिक हथियार कार्यक्रमों पर रोक लगाने की बात कही और पश्चिमी देशों से उनके संबंध सुधर गए।

विद्रोह

जब दिसंबर 2010 में टयूनीशिया से अरब जगत में बदलाव की क्रांति का प्रारंभ हुआ, तो उस संदर्भ में जिन देशों का नाम लिया गया, उसमें लीबिया को पहली पंक्ति में नहीं रखा गया था। क्योंकि कर्नल ग़द्दाफ़ी को पश्चिमी देशों का पिट्ठू नहीं समझा जाता था, जो क्षेत्र में जनता की नाराज़गी का सबसे बड़ा कारण समझा जाता था। उन्होंने तेल से मिले धन को भी दिल खोलकर बांटा था। ये अलग बात है कि इस प्रक्रिया में उनका परिवार भी बहुत अमीर हुआ था।

ग़द्दाफ़ी ने देश की प्रगति के लिए और भी कई अहम काम किए थे जैसे एक मानव-निर्मित नदी बनाकर देश के उत्तरी सूखे हिस्से में पानी पहुंचाया गया था। इसीलिए जब क्रांति की बात शुरू हुई, तो उन्होंने कहा कि वो लोगों के साथ हैं क्योंकि उनके पास कोई सत्ता नहीं है और देश में जम्हीरिया है। लेकिन बाद में लोगों की भारी नाराज़गी सामने आई और ज़ाहिर है कर्नल ग़द्दाफ़ी ने पूरी ताक़त से साथ उसका विरोध किया।

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