भारतीय समयानुसार सोमवार की सुबह क़रीब 11 बजे मंगल ग्रह के 'गेल क्रेटर' में इसकी लैंडिंग हुई। लैंडिंग की घड़ी जैसे-जैसे क़रीब आ रही थी, वैज्ञानिकों की दिल धड़कनें तेज़ होती जा रहीं थी। जैसे ही रोवर के मंगल ग्रह पर लैंडिंग के सिग्नल मिले, नासा के वैज्ञानिक जश्न में डूब गए।
26 नवंबर 2011 को इस यान को छोड़ा गया था और क़रीब 24 हज़ार करोड़ मील की दूरी तय कर यह यान मंगल पर उतरा है। न्यूलियर फ्यूल से चलने वाला ये रोवर क़रीब दो सालों तक सूचनाएं भेजेगा। भारतीय इंजीनियरों ने भी इस योजना में सहयोग किया है। दर असल अमरीका और ब्रिटेन के बाद इस योजना में तीसरे नंबर पर भारतीयों का सहयोग है।
'क्यूरियोसिटी रोवर' अभियान में एक अहम भूमिका निभाने वाले एडम स्टेल्त्ज़्नेर से जब इस मिशन के बारे में पूछा गया तो उनका कहना था, "सड़क पर खड़े आम लोग ये सोचेंगे कि यह पागलपन है। हमें खुद भी कभी-कभी लगता है कि यह पागलपन है."
कोई कुछ भी कहे सच तो ये है कि 'क्यूरियोसिटी रोवर' नामक इस अभियान की लागत है क़रीब 2.5 अरब डॉलर। इस अभियान के तहत नासा वैज्ञानिकों ने एक अति उन्नत घूमती फिरती प्रयोगशाला को मंगल ग्रह पर भेजा है। इस प्रयोगशाला से मिली जानकारी मंगल ग्रह की धरती के नीचे दबे इस ग्रह के इतिहास को समझने में क्रांतिकारी बदलाव ला सकती है।
अभूतपूर्व तैयारी
एडम स्टेल्त्ज्नेर और उनकी टीम ने इस रोवर को मंगल की ज़मीन पर सुरक्षित उतारने के लिए जो रास्ता चुना था उसमें एक रॉकेटों की मदद से चलने वाली क्रेन भी शामिल है। स्टेल्त्ज्नेर कहते हैं, "यह बहुत ही महत्वाकांक्षी और गैर-परंपरागत तरीक़ा है। इसकी असफलता के लिए आप बहाने नहीं बना सकते। आप यह नहीं कह सकते कि मैंने परखा हुआ रास्ता चुना बस मेरा भाग्य ख़राब था। " रोवर की यात्रा के तीन हिस्से थे। पहला है मंगल ग्रह में घुसना, दूसरा है नीचे सतह की ओर आना और तीसरा है ज़मीन पर उतरना।
इस मार्स रोवर का वज़न 900 किलो है और यह अपनी क़िस्म के अनोखे कवच में ढंका हुआ है। नासा ने इस तरह का और इतना बड़ा कवच पहले कभी नहीं बनाया है। रोवर के ऊपर का कवच उसे हज़ारों किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ़्तार से नीचे आते समय पैदा हुई 2000 डिग्री की तपिश से बचाने के लिए बनाया गया था
मंगल ग्रह के वातावरण में घुसते वक़्त इसकी गति 20,000 किलोमीटर प्रतिघंटा थी। हालांकि केवल छह से आठ मिनटों के भीतर ही जब इसके चक्के मंगल की सतह पर टकराएं तो इसकी गति एक मीटर प्रति सेकण्ड से ज़्यादा नहीं होना चाहिए थी लेकिन, 20000 किलोमीटर प्रति घंटा से एक मीटर प्रति सेकण्ड तक आने की पूरी योजना बेहद जटिल थी।
ऐसा करने के लिए रोवर के सुरक्षा कवच को एक ख़ास रास्ते से एक खास कोण के साथ नीचे आना था। तेज़ी के साथ नीचे जाते रोवर को एक खास कोण पर उतारने के लिए इस प्रक्रिया के दौरान भारी वज़न के कुछ टुकड़े सुरक्षा कवच से अलग हो गए।
एक तारे की तरह नीचे जाते रोवर से कुछ ही सेकण्ड बाद रॉकेट बाहर निकल गया जिसने इसकी तूफ़ानी गति को कम कर दिया। लेकिन अंतरिक्ष से हजारों किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ़्तार से नीचे गिरते रोवर को धीमा करने के लिए यह भी पर्याप्त नहीं था। इसलिए मंगल की सतह से क़रीब 1.5 किलोमीटर ऊपर इसके पीछे से एक सुपरसोनिक पैराशूट निकला जिसने इसकी गति को कुछ और कम करके 450 किलोमीटर प्रतिघंटा तक कर दिया। लेकिन बावजूद इसके भी यह गति इतनी कम नहीं हुई थी कि रोवर को सुरक्षित मंगल की ज़मीन पर उतारा जा सके।
रोवर को उतारने के अंतिम चरण में इसके नीचे का एक कवच का टुकडा जो की अभी तक अंदर के रोवर को जल कर राख होने से बचा रहा था वो अलग हो गया और एक रॉकेटों से लैस एक ऐसी उड़ने वाली क्रेन निकली जो रोवर को एक सुरक्षित जगह पर छोड़ गई।
इस पूरी प्रक्रिया में जो बात सबसे अधिक हैरान करने वाली थी वो ये कि यह सब ऑटोमैटिक यानि स्वाचालित हुआ और पृथ्वी पर से इसका कोई नियंत्रण नहीं था।
इतिहास
1970 के दशक से लेकर 2008 के फ़ीनिक्स अभियान तक मंगल के हर रोवर अभियान में ग्रह पर उतरने के लिए पहले से बेहतर प्रणाली लगी है लेकिन पहली बार इस प्रणाली के ज़रिए कोशिश की गई थी कि कि रोवर मंगल ग्रह के सबसे गहरे गड्ढों में से एक में उतरे।
इसके पहले वैज्ञानिक हमेशा यह प्रयास करते रहे हैं कि वो समतल सतह पर उतरें ताकि उनकी मशीनें सुरक्षित रहें लेकिन इस बार वैज्ञानिक यह चाहते थे कि वो रोवर को ऐसी जगह उतारें जहाँ सतह सबसे ज़्यादा पथरीली हो ताकि वो पत्थरों का अध्ययन कर सकें। वैज्ञानिकों के अनुसार मंगल पर जीवन के रहस्य इसके पत्थरों और चट्टानों में ही छिपे हुए मिल सकते हैं।
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