इसी कड़ी में हाल ही में राजधानी बीजिंग में लड़कियों के बड़े समूह ने पुरुष शौचालय का इस्तेमाल किया। ये अनोखा आंदोलन अमरीका में पूंजीवाद के ख़िलाफ़ वॉल स्ट्रीट पर कब्ज़ा करने वाले आंदोलन, ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट, पर आधारित है।
बराबरी का मुद्दा
सरकारी अख़बार चाइना डेली के अनुसार टॉयलेट के बाहर प्रर्दशनकारी हाथ में बैनर लेकर खड़ी थीं जिनपर लिखा था, "महिलाओं के लिए ज़्यादा अधिकार, ज़्यादा लैंगिक समानता' और 'अगर आप उनसे प्यार करते हैं तो उन्हें लाइन में इंतज़ार मत करने दें."
प्रर्दशन को आयोजित करने वाली बीजिंग की 23-वर्षीय छात्रा ली टिंगटिंग का कहना था, "महिलाओं के लिए समस्या पुरुषों से ज़्यादा है क्योंकि एक तो उनके लिए शौचालयों की संख्या बहुत कम हैं और दूसरे महिलाएं पुरुषों की तुलना में टॉयलेट में ज़्यादा समय लेती हैं."
जेंगझू शहर की विश्वविद्यालय छात्रा वांग लाइलिन का कहना है कि बीजिंग में पुरुष शौचालय इस्तेमाल करने के बाद उन्होंने पहली बार सफलता का खुमार महसूस किया।
उनका कहना था, "महिला शौचालय के लिए ज़्यादा इंतज़ार करना पड़ रहा था और मैंने देखा कुछ महिलाएं पुरुष शौचालय का इस्तेमाल कर रही थीं। इसलिए मैंने भी वही किया। इससे मेरा भी समय भी बचा क्योंकि मुझे ट्रेन पकड़नी थी." ली ने पहली बार 19 फ़रवरी को गुआंगझू प्रांत में एक सार्वजनिक शौचालय पर 'कब्ज़ा' किया था जिसके बाद इस बारे में एक ज़ोरदार बहस शुरु हो गई है।
इस घटना पर गुआंगझू शहरी प्रबंधन आयोग ने तुरंत प्रतिक्रिया करते हुए ऐलान किया था कि शहर में नए और पुनर्निमित महिला शौचालयों के लिए पुरुष क्यूबिकलों की तुलना में डेढ़ गुना ज़्यादा जगह होनी चाहिए। गुआंगझू में अब कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में महिला शौचालयों को बढ़ा दिया गया है।
यही हाल भारत में भी
बात भारत की करें तो यहां भी महिलाओं की स्थिति बहुत अलग नहीं है। समस्या केवल अपर्याप्त सार्वजनिक शौचालयों की ही नहीं है। शहर हों या ग्रामीण इलाके, अब भी कई घरों में शौचालय नहीं होता।
इस महीने की शुरुआत में मध्य प्रदेश के रतनपुर गाँव में एक मामला प्रकाश में आया था जिसमें एक महिला, अनीता नारे, ने शादी के दो दिन बाद ही पति का घर इसलिए छोड़ दिया क्योंकि उसके यहाँ शौचालय नहीं था। अनीता तभी वापिस लौटीं जब उनके पति ने घर के अंदर शौचालय बनवाया।
शहरों में भी महिलाओं को आए-दिन इस समस्या से दो-चार होना पड़ता है, ख़ासकर वो महिलाएं जो अपने घरों से दूर नौकरी, पढ़ाई या फिर किसी और काम के लिए यात्रा करती हैं।
दिल्ली के ही कनॉट प्लेस में राजकुमारी सुबह 11 बजे से लेकर शाम आठ बजे तक एक फुटपाथ पर फल बेचती हैं। हालांकि शहर का एक मुख्य इलाका होने की वजह से यहां सार्वजनिक शौचालय बने हुए हैं लेकिन राजकुमारी की समस्या ये है कि जहां वह बैठती हैं, उसके आस-पास ऐसी कोई सुविधा नहीं है।
उनका कहना था, "यहां आस-पास शौचालय की कोई सुविधा नहीं है। (इमरात के) अंदर है लेकिन वहां जाने नहीं देते। कहीं गाड़ी वगरैह लगी होती है तो उसके पीछे चले जाते हैं नहीं तो बहुत परेशानी होती है। नहीं तो किसी को काम पर छोड़कर जाते हैं। लोग-बाग (यानी पुरुष) तो कहीं भी खड़े हो जाते हैं लेकिन हम कहां जाएंगे."
दिल्ली के ही जामिया हमदर्द विश्वविद्यालय की छात्रा ख़िज़रा सलीम कहती हैं कि कॉलेज के अलावा जब कभी कहीं और आना-जाना होता है तब अक्सर टॉयलेट जाने में मुश्किल होती है।
उनका कहना था, "हर जगह पुरुषों के लिए तो शौचालय दिख जाएंगे लेकिन महिलाओं के लिए शौचालय इतनी आसानी से नहीं मिलते। अगर होते भी हैं तो वहां साफ़-सफ़ाई ठीक नहीं होती जिसकी बहुत ज़रूरत है."
ख़िजरा मानती है कि चीन में चल रहा ऑक्यूपाई मेन्स टॉयलेट आंदोलन सही है। उन्होंने कहा, "ये बहुत ही अच्छा विरोध है क्योंकि इससे सरकार के पास आवाज़ जा रही है कि पुरुषों की ही तरह महिलाओं के लिए भी शौचालय होने चाहिए। भारत में तो समय आ गया है कि यहां भी ऐसा ही आंदोलन हो क्योंकि जब हम बराबरी की बात करते हैं तो ये बराबरी हर जगह होनी चाहिए। "
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