GORAKHPUR: कहते हैं किसी की असलियत उसकी परछाईं बयां करती है। तभी स्वामी विवेकानंद ने युवा की पहचान उसकी परछाईं से की थी और कहा था कि ये वायु है। इनकी तीव्रता अतुल्य है। ये चाह लें तो पूरा देश बदल सकता है। इसलिए इन्हें घर के साथ देश का भी भविष्य कहा जाता है। वायु वाले इन युवाओं की लंबी कतार है। जिन्होंने कभी देश की आजादी के लिए अपने प्राण त्याग दिए तो कभी अपने ज्ञान और टैलेंट के दम पर पूरे विश्व में देश का नाम रोशन किया। ऐसे ही कुछ युवा हमारे शहर में भी हैं। जो सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि समाज के लिए भी जी रहे हैं। स्वामी विवेकानंद जी के जन्मदिन मतलब यूथ डे (क्ख् जनवरी) पर हम ऐसे ही तीन युवाओं के बारे में बताने जा रहे हैं, जो सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि समाज के लिए कार्य कर रहे हैं।

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न डरती हूं, न डरने दूंगी

बरगदवां में रहने वाली प्रगति सहाय। इलाहाबाद की रहने वाली प्रगति म् साल पहले शादी के बाद गोरखपुर आई थी। ससुराल आकर एक बहू की तरह परिवार की इज्जत करना और काम करना तो उसे आता था, मगर एक सताई नारी की तरह किसी का प्रताड़ना सहन करना नहीं। ससुराल में रह कर भी प्रगति ने शादी के एक साल बाद ही मोहल्ले की सताई महिलाओं के लिए जंग लड़ना शुरू किया। जिसका रिजल्ट आज प्रगति की ताकत बन गई। महिला सशक्तीकरण के लिए प्रगति निकली तो अकेले थी, मगर धीरे-धीरे कारवां बनता गया। दो साल पहले इस उद्देश्य के लिए प्रगति ने 'प्रगति सेवा संस्था' नाम से एक संस्था बनाई। इसमें ब्0 महिलाएं सदस्य है तो करीब क्00 से अधिक परोक्ष रूप जुड़ी हैं। महिला उत्पीड़न के खिलाफ मोर्चा खोलने वाली प्रगति को इसके लिए कीमत भी चुकानी पड़ी है। कभी धमकी के रूप में तो कभी गाड़ी पर हमले के रूप में। मगर प्रगति ने न तो हार मानी और न ही पीछे हटी। प्रगति के पास हर महीने फ्0 से अधिक पीडि़त महिलाएं आती हैं, जो पुलिस के पास चक्कर काट-काट कर थक चुकी होती हैं। प्रताडि़त महिलाओं को अगर तलाक करा कर प्रगति उनकी समस्या खत्म करती है तो दोबारा शादी करा कर फ्यूचर सेफ भी। पांच साल से लगातार महिला सशक्तीकरण के लिए काम कर रही प्रगति क्भ्0 से अधिक मामलों में महिलाओं को न्याय दिला चुकी है। प्रगति का कहना है कि गलत से न मैं डरती हूं और न किसी महिला को डरने दूंगी।

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अपने लिए जिए तो क्या जिए

शहर में ऐसे डॉक्टर्स की कमी नहीं है, जो मौत के आगोश से भी मरीज को बाहर निकाल लाएं। ऐसे डॉक्टर्स की लंबी कतार के बावजूद डॉ। सुरेश सिंह का कद अलग है। अपने पेशे के साथ डॉ। सुरेश समाज की सेवा में भी तत्पर हैं। इस राह पर अकेले निकले डॉ। सुरेश के साथ लोग जुड़ते रहे और कारवां बन गया। डॉ। सुरेश के साथ इस वक्त करीब हजार लोग जुड़े हैं। वे समाज की दिशा और दशा सुधारने में उनके साथ कदमताल कर रहे हैं। अपने पेशे से खुश होने के बावजूद डॉ। सुरेश को लगा कि समाज को उन्हें कुछ देना चाहिए। इसके बाद उन्होंने रेड पल्स यूथ ट्रस्ट नामक संस्था बनाई। इस संस्था का मकसद ब्लड डोनेट करने के प्रति लोगों को अवेयर करना, ताकि कोई भी खून की कमी की वजह से यह दुनिया न छोड़ दे। डॉ। सुरेश अब तक करीब क्फ्0 यूनिट ब्लड डोनेट करा चुके हैं। वहीं क्म् कैंप लगाकर ब्लड डोनर को मेंबर बनाया जा रहा है। इतना ही नहींडॉ। सुरेश एक और अनोखा काम कर रहे हैं। वह है शहर में लगी महापुरुषों की मूर्तियों की साफ सफाई। इनकी टीम अब तक सिटी के विभिन्न क्म् चौराहों पर लगी महापुरुषों की मूर्तियों की सफाई कर चुकी है। संडे को भी उनकी टीम ने छात्रसंघ चौराहा स्थित स्वामी विवेकानंद की मूर्ति की सफाई की। कूड़ाघर न होने से रिक्शा पर लाद कर कूड़ा फेंकने ले गए। डॉ। सुरेश और उनकी टीम ने दो थैलीसीमिया के मरीजों को गोद भी ले रखा है। जिनका समय-समय पर ब्लड चेंज होता है। ख्007 से शहर में प्रैक्टिस कर रहे एनेस्थिसिया के डॉ। सुरेश सिंह अपने इस पेशे के साथ समाज सेवा में बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं।

समाज को नई दिशा देने की कोशिश में यूथ

समाज को विकास की ओर आगे ले जाने में सबसे अहम पार्ट अगर कोई है तो वह हैं यूथ। मगर यह तब पॉसिबल है, जब यूथ वेल एजुकेटेड हों। पैसे की कमी की वजह से हजारों परिवार बच्चों को स्कूल तक भेजना तो दूर, दो वक्त की रोटी के भी मोहताज हैं। कुछ ऐसे ही जरूरतमंदों बच्चों को एजुकेट कर पढ़ाने का बीड़ा एमएमएमयूटी के बडिंग इंजीनियर्स ने अपने कंधों पर उठाया है। इंजीनियरिंग के भारी भरकम सिलेबस से दबे होने के बावजूद एमएमएमयूटी के क्ब् स्टूडेंट्स समाज के बारे में भी सोच रहे हैं। बीटेक इलेक्ट्रॉनिक्स थर्ड इयर के स्टूडेंट्स नवीन कृष्ण राय की अगुवाई में यह स्टूडेंट्स डेली यूनिवर्सिटी के पास मौजूद गांव के बच्चों को यूनिवर्सिटी कैंपस स्थित 'मालवीय शिक्षा निकेतन' में एजुकेशन देते हैं। इन्हें दो घंटे तक एजुकेशन प्रोवाइड कराने के साथ ही उनकी यह कोशिश भी रहती है कि किस तरह से यह बच्चे मेन स्ट्रीम के बच्चों के साथ कदम से कदम मिलकर चल सकें। फाइनल और थर्ड इयर के स्टूडेंट्स का यह ग्रुप 'सहयोग' के नाम से पहचाना जाता है। इसमें पूरे कैंपस स्टूडेंट्स का सपोर्ट रहता है। शाम भ्.फ्0 से 7.फ्0 तक क्लासेज वीक में चार दिन चलती हैं। वे बच्चों को उनके घरों से लेकर आते हैं और उन्हें वापस भी पहुंचाते हैं।