- मुकदमे में उलझकर रह गया गोरखपुर का रंगाश्रम
- भूखे पेट संवरने की जद्दोजहद करते हैं कलाकार
GORAKHPUR : दर्द की दास्तान बयां करने में कांपते होंठ, सिसकियों के साथ बहते आंसू और उम्मीदों की चंद कातर निगाहें। उपेक्षा की तपिश से सूखती कला की पौध, रंगमंच के लिए चंदे की बाट जोहते कलाकारों की पथराई आंखें, बुलंद हौसलों से सरकारों की मेहरबानी की आस। सिटी में रंगमंच का यही हाल है। न तो कोई कला की सुधि लेने वाला है न ही किसी को कलाकारों की फिक्र, गोरखपुर का एकमात्र रंगाश्रम भी मुकदमे के जाल में उलझकर रह गया है।
सबने सहारा, पर सरकारों ने दुत्कारा
रेलवे बस स्टेशन के पास रंगाश्रम की विवादित भूमि है। रंगाश्रम में एक किनारे दो पेड़ों के नीचे कलाकारों ने मिट्टी का मंच बना लिया है। इस मंच पर करीब ख्0 साल से नाटक का प्रदर्शन किया जा रहा है। हर शनिवार की सुबह कलाकारों का ग्रुप नाटक का मंचन करता है। समय-समय पर यहां बड़े नाटकों का आयोजन होता है, वह भी लोगों से चंदा जुटने पर। इस मंच ने अच्छे कलाकारों को जन्म दिया। उनकी कला को सबने सराहा, लेकिन सरकारों और उनके नुमाइंदों ने दुत्कार दिया।
तालियों के सिवा कुछ नहीं मिलता
रंगकर्म से जुड़े कुछ कलाकारों को छोड़ दें तो ज्यादातर बदहाली की मार झेल रहे हैं। मंचन के दौरान दर्शक तालियां तो खूब बजाते हैं, लेकिन तालियों से रोजीरोटी नहीं चलती। रंगाश्रम में एक दशक से जुड़े राजदेव के भूजा की दुकान रेलवे स्टेशन रोड पर नजर आती है। गाहे-बगाहे मौका मिलने पर राजदेव नाटक में अपना हुनर दिखा लेते हैं। आल इंडिया लेवल पर एक्टिंग कर चुके राजदेव ही नहीं, यहां कई ऐसे कलाकार हैं जिनकी कला उपेक्षा के दंश से मरती चली गई। सिटी में रंगमंच से जुड़े कई समूह हैं जो अपने आसित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
सरकार की अनदेखी से रंगमंच से जुड़े अधिकांश कलाकार आर्थिक तंगी से जूझ रहे हैं। नाटक से सिर्फ तालियां मिलती है, कोई आमदनी नहीं होती। परिवार चलाने के लिए ठेला लगाना मजबूरी है।
राजदेव, कलाकार
कलाकारों के लिए कोई सुविधा नहीं। हम लोग नये कलाकारों के साथ मिलकर नाटक का मंचन करते हैं इसलिए लोगों से चंदा जुटाना पड़ता है। कोई कुर्सी देता है तो कोई समोसे का जुगाड़ करता है।
बैजनाथ, कलाकार