- स्कूल में मददगार साबित होता है प्री-स्कूल
- ज्यादातर प्री-स्कूलों फिजिकल एक्टिविटी के बजाय दी जाती है किताबी नॉलेज
GORAKHPUR: रवि प्रकाश और स्वीटी ने अपने बेटे विकास को ढाई साल की उम्र से ही प्ले-वे भेजना शुरू कर दिया। नतीजा यह निकला कि जब विकास एलकेजी में पहुंचा तो उसका मन पढ़ाई में नहीं लगता और वह पढ़ने के बजाए क्लास रूम में सोने लगा। मैडम रुचि भी विकास को लेकर बहुत परेशान हैं। उन्होंने पेरेंट्स से इस बात की कई बार शिकायत भी की। मगर कोई फायदा नहीं हो सका। जब आई नेक्स्ट के एक्सपर्ट्स ने इसकी वजह जानने का प्रयास किया तो मालूम हुआ कि जो बेसिक जानकारी विकास को एलकेजी में होनी चाहिए थी। वह उसे प्ले-वे में ही दे दी गई, इसलिए वह पढ़ाई से जी चुराता है और क्लास में बोरिंग फील करता है। नन्हीं सी उम्र में बच्चों का जब खेलने-कूदने का वक्त है, तो इस दौरान पेरेंट्स उनकी नाजुक उंगलियों में पेंसिल और इरेजर पकड़ाकर मानसिक और शारीरिक पीड़ा पहुंचा रहे हैं।
एक्टिविटी के बजाय दी जाती है शिक्षा
आईनेक्स्ट कैंपेन 'एडमिशन मिशन' में पेरेंट्स की क्वेरीज का सिलसिला भी शुरू हो चुका है। दूसरे दिन जब एक्सपर्ट्स से राय ली गई, तो मालूम चला कि जब बच्चा पहली बार स्कूल जा रहा हो, तो उसके लिए प्री-स्कूल उतना ही मददगार साबित होता है। जितना की उसके पेरेंट्स चाहते हैं। साइकोलॉजिस्ट डॉ। अनुभूति दुबे बताती हैं कि आज के शहरी परिवेश में पेरेंट्स अपने बच्चे को प्ले-वे में एडमिशन कराना पसंद करते हैं, ताकि उनके बच्चे को एक अच्छी कंपनी मिल सके। प्ले-वे में बच्चों को खेलने-कूदने के साथ ही पढ़ाई का एटमॉस्फियर भी दिया जाने लगा है। जिससे बच्चे के मानसिक और शारीरिक विकास पर इफेक्ट पड़ना शुरू हो जाता है। यही रीजन है कि बच्चा शुरुआत से ही पढ़ाई से बोर होने लगता है और जब प्ले-वे से निकलकर एलकेजी या नर्सरी में दाखिला लेता है, तो वह पढ़ाई में उतना इंस्टरेस्ट नहीं दिखाता है।
बांध देते हैं पढ़ाई की दुनिया में
डॉ। अनुभूति की मानें तो प्ले-वे में बच्चे को जहां खेल-खेल में को-ऑपरेशन, शेयरिंग, एडजस्टमेंट, कोर वैल्यू, टीम वर्क, सेंसटिव और मैनर्स सिखाए जाने चाहिए, वहां ढाई से तीन साल के बच्चों को एबीसीडी, काउंटिंग और टेबल लर्न कराकर, उन्हें पढ़ाई की दुनिया में बांध दिया जाता है। यही रीजन है कि जब बच्चा एलकेजी में जाता है तो उसे यह सब दोबारा पढ़ना पड़ता है। कुछ नया अट्रैक्ट करने वाला सब्जेक्ट या टॉपिक न मिलने पर वह पढ़ाई से जी चुराने लगता है। अगर पेरेंट्स इस तरह से बच्चों पर पढ़ाई का बोझ डालने लगेंगे, तो बच्चों की मसल्स पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। जो आगे चलकर प्रॉब्लम खड़ी कर सकता है।
इंटरैक्शन पर दें जोर
सोशियोलॉजिस्ट प्रो। कीर्ति पांडेय बताती हैं कि जब बच्चा पैदा होता है। उसके बाद से उसे घर के सदस्यों के नाम, पता वगैरह उसे लर्न कराना शुरू कर देते हैं। जब बच्चा दो साल का होता है, तो उसकी प्री-स्कूलिंग का टाइम शुरू हो जाता है। जहां गांवों में बच्चे अपने संयुक्त परिवार में दादा-दादी और घर के बाकी सदस्यों के साथ खेल-खेल में काफी कुछ सीखते हैं। वहीं आज के न्यूक्लियर फैमिली पेरेंट्स बच्चे को प्ले स्कूल में भेजना पसंद करते हैं। वहां बच्चों का एक ग्रुप होता है, खेल-खेल में बच्चे को किताब, पेंसिल और इरेजर से रूबरू कराया दिया जाता है। जबकि प्ले स्कूलों में एक दूसरे से इंटरैक्शन, एडजस्टमेंट कैसे करें? इन सब पर बल देना चाहिए। मगर आज के प्री-स्कूलों में बच्चों को खेलने कूदने पर कम और पढ़ाई के बोझ तले दबाने का प्रयास ज्यादा किया जाता है। यही रीजन है कि बच्चा आगे चलकर पढ़ाई से भागने लगता है।
पैरेंट्स के लिए सुझाव
- बच्चे को कम से कम से 3 साल में प्ले-वे भेजें।
- प्ले-वे स्कूल दूर के बजाय घर के पास वाले प्ले-वे को प्रिफर करें।
- ज्यादा देर तक बच्चे को प्ले-वे में छोड़ने के बजाय उसे एक दो घंटे के लिए ही छोड़ें।
- प्ले-वे में दाखिला कराते वक्त संचालक से शेड्यूल जरूर पता करें।
- किताब, पेंसिल, फ्रूट्स, एनिमल्स, टॉयज से रूबरू कराने के बजाय किताबी कीड़ा न बनाने का प्रयास करें।
- पढ़ाई कराने वाले प्ले-वे स्कूलों से बचें।
- बच्चे पर पढ़ाई का प्रेशर बिल्डअप करने के बजाय उसे खेल-खेल में सिखाने का प्रयास करें।
आज के परिवेश में जहां मां-बाप नौकरी पेशेवर हैं। बच्चे को अच्छी कंपनी मिल सके, इसके लिए वे प्ले-वे में दाखिला दिला देते हैं। दाखिला दिलाना गलत नहीं है। लेकिन बच्चे को प्ले-वे में पढ़ाई का बोझ डालने के बजाय खेल-खेल में ही उसे एक दूसरे से इंटरेक्शन करना सिखाया जाए, ताकि बच्चे के मानसिक विकास में कोई बाधा न उत्पन्न हो।
संजयन त्रिपाठी, एक्सपर्ट
बच्चे को प्री-स्कूल कराना गलत नहीं है। प्री-स्कूल का मतलब यह नहीं की बच्चे को सिलैबस से रिलेटेड पढ़ाई कराई जाए। प्री-स्कूल में बच्चे को जहां बैठने, उठने के साथ-साथ बच्चों की एक कंपनी मिलती है। इससे उन्हें काफी कुछ सीखने को मिलता है। साथ ही खेलने के लिए उन्हें एक अच्छा वातावरण मिलता है।
फादर जेम्स पी, एक्सपर्ट
प्री-स्कूल यानि कि प्ले-वे। एक ऐसी जगह जहां बच्चों को फॉर्मल स्कूल में भेजने की पूरी तैयारी कराई जाती है। यहां खेलने कूदने का पूरा मौका मिलता है। वहीं बबैठने, उठने, बोलने के साथ-साथ कलरिंग, पेपर टियरिंग और पेंसिल ग्रिप के लिए तैयार किया जाता है।
राहुल शुक्ला, एक्सपर्ट