होता है कबूतरबाजी का कॉम्प्टीशन
कबूतरबाजी के कॉम्प्टीशन के लिए एक संस्था भी रजिस्टर्ड कराई गई है। कबूतरबाजी के गुरू मरजूम हकीम वसी अहमद साहब के नाम पर 1999 में संस्था रजिस्ट्रर्ड कराई गई थी। तब से साल में दो बार 'पिजंस फ्लाइंग टूर्नामेंट' कॉम्प्टीशन होता है। इस कॉम्प्टीशन में सिटी और आस-पास के इलाके के पचास से ज्यादा कबूतरबाज हिस्सा लेते हैं। इसकी एंट्री फीस भी होती है और जिसका कबूतर सबसे ज्यादा देर तक उड़ता है, उसके मालिक को विजेता घोषित किया जाता है और वह इनाम का हकदार होता है।
क्या है गेम के नियम
हर इंटरनेशनल गेम की तरह कबूतरबाजी के भी नियम होते है। कॉम्प्टीशन में उसे फॉलो करना जरूरी होता है। उसी पर कबूतरबाज की जीत और हार तय होती है। कबूतरबाजी कॉम्प्टीशन में हर कबूतरबाज अपने कबूतर को निश्चित टाइम पर उडा़ता है। गर्मी के मौसम में सुबह 5 बजे से कबूतर उड़ते हैं और उन्हें करीब चार घंटे का टाइम दिया जाता है। चार घंटे से पहले कबूतर अगर अपने अड्डे पर बैठ जाता है तो वह हार जाता है। जबकि चार घंटे के बाद जीत और हार का टाइम शुरु होता है। वहीं ठंड के मौसम में मार्निंग 6 बजे से 12 बजे तक टाइम दिया जाता है। मतलब 6 घंटे की टाइमिंग को (रिकार्ड) माना जाता है।
जिंदा रखा है पुश्तैनी शौक
कबतूरबाजी के शौक भले ही सदियों पुराना हो, लेकिन इस पुश्तैनी शौक को आज के यूथ ने न केवल जिंदा रखा है बल्कि उसे हाईटेक तरीके से आगे बढ़ा रहे है। मरहूम हकीम अहमद के बेटे सलाउद्दीन और कबूतरबाज साकिब अफताब कबूतरबाजी के विडियो को यूट्यूब पर डालकर दुनिया भर के लोगों को उससे जोडऩे का प्रयास कर रहे हंै। गोरखपुर में करीब तीस से चालीस ऐसे यूथ हैं जो अपने बिजनेस के साथ-साथ कबूतरबाजी के पुश्तैनी शौक को जिंदा रखे हुए हंै।
टाइम टेकिंग और महंगा है शौक
कबूतरबाजी का शौक टाइम टेकिंग और महंगा होता जा रहा है, लेकिन फिर भी सिटी के सलाउद्दीन, साकिब अहमद जैसे कई युवा उसे आगे बढ़ा रहे हैं। सलाउद्दीन के घर में करीब तीन सौ कबूतर है तो साकिब का घर ही एक तरह से 'कबूतरखानाÓ है। साकिब के पास कई नस्लों के करीब 6 सौ कबूतर है। जिन्हें वह अलग-अलग तरीके से ट्रेंड करता है। उसके मकान के हर कोने में कबूतरों का अड्डा है। यहीं नहीं कबूतरों के बच्चों के लिए नर्सरी से लेकर बीमार कबूतरों के लिए 'आईसीयू हॉस्पिटल' तक मौजूद है।
कहां से शुरु हुआ यह गेम
कबूतरबाजी का शौक सदियों पुराना है। राजा-महाराजा कबूतरों को संदेश वाहक की तरह यूज करते थे। कबूतरों की खास नस्लें महलों में अपनी खास जगह रखते थे। कबूतरों की खास नस्लों के लिए रामपुर फेमस है। कहा जाता है कि रामपुर के नवाब मोती मियां साहब ने कबूतरबाजी के शौक को आगे बढ़ाया। गोरखपुर में मौजूद खास नस्ल 'कलसरा कलदुआ' रामपुर की ही देन है।
पूरे इंडिया में नहीं है ऐसा कबूतर
साकिब के खजाने में सिटी का सबसे महत्वपूर्ण कबूतर है, जिसका साइज बिल्कुल जुदा है। कलसरा कलदुआ नस्ल का कबूतर पूरे इंडिया में किसी के पास नहीं है। साकिब का कहना है कि कबूतर की उम्र 20 से 21 साल होती है और उनका मनपसंद भोजन अकरी और बाजरा होता है। कबूतरों को ठंड और गर्मी दोनों मौसम में बचाकर रखना पड़ता है। ठंड के मौसम में उनके घरौंदे को गर्म करने के लिए हाई मास्क बल्ब लगाना पड़ता है।
यह शौक टाइम टेकिंग और महंगा होता जा रहा है, लेकिन पूर्वजों के शौक को हमने जिंदा रखा है।
साकिब अफताब, बिजनेस मैन
64 साल से कबूतरबाजी के शौक को आगे बढ़ा रहा हूं। गोरखपुर में चांदाखानी और पेड़वा नस्ल के कबूतर हैं जो केवल रामपुर के नवाब मोती मियां के पास होते थे।
इश्तियाक हुसैन, कबूतरबाज