बच्चों की काउंसलिंग

बाल सुधार गृह में रह रहे बच्चों की काउंसलिंग में ये बातें सामने आई हैं। काउंसलिंग करने वाले मनोचिकित्सकों का कहना है कि बच्चे किसी मजबूरी में या फिर गलती से अपराध में नहीं फंस रहे, बल्कि वे फिल्मों और सोशल मीडिया पर दिखाए जाने वाले कैरेक्टर को खुद में उतारकर अपना भविष्य खराब कर रहे हैं।

पनप रही गुंडागैंग
सिटी के स्कूल-कॉलेजों में पढऩे वाले बच्चों में नशाखोरी और मारपीट की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है। मनोचिकित्सकों का कहना है कि स्कूलों में बच्चों की गैंग तक पनप रही है। अपने आप को सबसे अलग दिखाने के लिए बच्चे गलत कदम उठा रहे हैं। स्कूलों में बड़े बच्चे, छोटे बच्चों से घरों में चोरी करवा रहे हैं। इन पैसों से गैंग में शामिल छात्र अपने शौक पूरे कर रहे हैं।

स्कूलों में ई-शपथ
इंटरमीडिएट तक के स्कूलों में बच्चों को नशे से दूर रहने के लिए अभियान चलाया जाता है। स्कूली बच्चे और शिक्षक नशे से दूर रहने के लिए ई-शपथ लेते हैं। वहीं, विभिन्न वर्कशॉप के दौरान पुलिस भी स्कूलों में पहुंचकर बच्चों को सदाचार का पाठ पढ़ाती है। इसके अलावा शिक्षा विभाग ने पहल करते हुए नशे से दूर रखने के लिए बच्चों को प्रार्थना सभा में शपथ दिलवाने के आदेश जारी कर रखे हैं। बच्चों के स्कूल पहुंचने पर उनके बैग और अन्य सामान को भी चेक किया जाता है ताकि वे किसी गलत सामान को न कैरी कर पाएं।

सामने आए केस
बाल सुधार गृह में मोबाइल और चेन स्नेचिंग केस में आए बच्चों की काउंसलिंग में पता चला कि पहले उन बच्चों को स्मैक और नशे का शौक लगा। फिर ये छोटी-छोटी चोरी करने लगे। धीरे-धीरे शौक आदत में बदली तो इन्होंने अधिक पैसे की चाहत में मोबाइल और चैन-स्नैचिंग करने लगे और अपराध के दलदल में उतर गए।

केस 1
कैम्पियरगंज इलाके के एक बच्चे ने अच्छे एजुकेशन के चक्कर में सिटी के एक स्कूल में दाखिला कराया। यहां पढ़ाई के दौरान उसकी सोहबत बिगड़ गई और उसने नशा करना शुरू कर दिया। नशे की लत ने उसे इस कदर मदहोश किया कि वह चोरी करने लगा। बाद में बाल सुधार गृह पहुंचा तो उसे अपनी गलती का एहसास हुआ।

केस 2-
सिटी के रुस्तमपुर इलाके के बच्चे की 10वीं की पढ़ाई के दौरान एक लड़की से अफेयर हो गया। बात आगे बढ़ी तो खर्चे भी बढऩे लगे। ऐसे में बच्चा अपराध के क्षेत्र में हाथ-पैर मारने लगा और स्नेचिंग करके जरूरतों को पूरा करने लगा। वहीं, जिस लड़की से उसका अफेयर था वह, भी नाबालिग थी और सही, गलत में फर्क करने में अंजान थी। ऐसे में बच्चे को कोई सही-गलत की सलाह देने वाला भी नहीं था। बहरहाल, जब बच्चा बाल सुधार गृह में पहुंचा तो उसे अपने किए पर पछतावा हुआ।

बच्चे दूसरों को देखकर सीखते हैं। उनका दिमाग परिपक्व नहीं होता। ऐसे में उनमें अच्छे-बुरे की समझ विकसित नहीं होती है। ये उन्हें आकर्षक लगता है। ये उसी को अपने जीवन में अप्लाई करने लगते हैं। पैरेंट्स को अपनी भूमिका पर विशेष ध्यान देना चाहिए और बच्चों को मोबाइल से दूर रखना चाहिए।
डॉ। तपस कुमार आईच, एचओडी मानसिक रोग विभाग, बीआरडी