- 1971 में पहली बार दुर्गा प्रतिमा हुई थी स्थापित,
- कालीबाड़ी से शुरू हुई परंपरा ने गोरखपुर को दी नई पहचान
GORAKHPUR: गोरखपुर में हर दुर्गा पंडाल की एक कहानी है, लेकिन कुछ ऐसे पंडाल हैं जो यहां का इतिहास समेट हुए हैं। कालीबाड़ी दुर्गा पंडाल उनमें से एक है। 44 साल पहले 1971 में हिन्दी बाजार के रहने वाले चार युवकों ने मन से तय किया कि कालीबाड़ी में एक मूर्ति की स्थापना करेंगे, इन चार युवकों ने संकल्प लिया और उनका यह संकल्प दुर्गा पंडाल के तौर पर सबके सामने है। गोरखपुर में इस पंडाल ने एक नई पंरपरा को भी जन्म दिया कि मंदिर के नाम से पहली प्रतिमा स्थापित हुई।
बंगाली पद्धति से होती है पूजा
श्री श्री दुर्गा पूजा समिति कालीबाड़ी क्षेत्र हिंदी बाजार के मनोज जसरापुरिया ने बताया कि कालीबाड़ी की प्रतिमा में पूरी बंगाली पद्धति से पूजा होती है। यहां की पंडाल की एक और खासियत है कि हर साल मात्र 1.50 लाख रुपए ही खर्च होता है। इस पंडाल में प्रसाद भी बंगाली पद्धति द्वारा तैयार किया जाता है। यहां तो पूजा के लिए जो भी सामग्री आती है, वह कलकत्ता या बनारस से मंगाई जाती है। मूर्ति की पूजा कोई और नहीं बल्कि बंगाली पुरोहित ही करते हैं।
चार युवकों ने शहर में लिखा नया इतिहास
पुराने शहर के हृदय स्थल कालीबाड़ी क्षेत्र में स्थापित होने वाली दुर्गा पूजा का अपना अलग महत्व है। चंदन जसरापुरिया, अभिषेक चौरसिया और आशीष चौरसिया ने बताया कि पूजा की शुरुआत के पीछे मुख्य कारण इस क्षेत्र में मां दुर्गा के मंदिर का अभाव था। इस एरिया के चार युवक विश्वनाथ विश्वास, बीएन कुंडू, स्वंतत्र रस्तोगी और कृष्ण चंद गुप्ता ने संकल्प लिया और कालीबाड़ी मंदिर के पास मूर्ति रखना शुरू किया। इन्हीं युवकों ने बड़ी मेहनत से अपने हाथों से मां की प्रतिमा बनाई और स्थापित कर पूजा की। बाद में इस पूजा ने उत्सव का रूप ले लिया। पुराने शहर के हृदय स्थल कालीबाड़ी क्षेत्र में स्थापित होने वाली दुर्गा पूजा का अपना अलग महत्व है।