गोरखपुर (निखिल तिवारी)।नवरात्रि की शुरुआत से मंदिरों में शक्ति की भक्ति होगी। इस बार मां दुर्गा घोड़े पर सवार होकर आएंगी। मां दुर्गा के पाठ के लिए गोारखपुर के सभी शक्तिपीठों में तैयारी पूरी हो गई है। मां दुर्गा के श्रृंगार के लिए मंगलवार को बाजार भी गुलजार रहा। महिलाओं ने जमकर खरीदारी की। बात नवरात्रि की है तो आज हम आपको गोरखपुर के उन शक्तिपीठों के बारे में बताएंगे, जिनके आर्शीवाद से सीएम सिटी तेजी से आगे बढ़ रही है।
शुभ मुहूर्त में करें कलश स्थापना
वासंतिक नवरात्रि 22 से 30 मार्च तक है। पं। शरद चंद्र मिश्र ने बताया कि बुधवार को सुबह 6 बजे से शाम 4 बजकर 28 मिनट तक कलश स्थापना कर सकते हैं। इस वर्ष तिथियों में ह्रास और वृद्धि का क्रम नहीं है। जैसा कि विगत कई वर्षों में रहा है। नवरात्रि में सप्तमी, अष्टमी और नवमी तिथियों का सर्वाधिक महत्व है। 28 मार्च को महासप्तमी व्रत का दिन है। 29 को महाअष्टमी और 30 मार्च को महानवमी है। जो भक्त पहले और अंतिम दिन नवरात्रि व्रत रखना चाहते हैं, वे 22 मार्च को और 29 मार्च को व्रत रखेंगे।
धरती चीर कर निकली थीं गोलघर की मां काली
गोलघर स्थित काली मंदिर में नवरात्रि में श्रद्धालुओं की भारी भीड़ देखने को मिलती है। मंदिर की मान्यता है कि यहां जो प्रतिमा स्थापित है वो धरती चीर कर निकली थी। बहुत पहले यहां एक जंगल हुआ करता था, उसी समय यहां धरती फाड़ कर एक मुखड़ा बाहर आया। क्षेत्र में जब इसकी खबर फैली तब लोग यहां आए और पूजा अर्चना शुरू की। श्रद्धालुओं की भीड़ और आस्था देखकर जंगीलाल जायसवाल ने यहां मंदिर बनवा दिया। इसके बाद लोगों ने यहां पूजा-पाठ शुरू कर दिया। मंदिर में प्रार्थना करने वालों की हर ख्वाहिश पूरी होती है।
बुढिय़ा माई के दरबार से नहीं जाता कोई खाली हाथ
कुसम्ही जंगल के बीचोंबीच स्थित है बुढिया माई का प्राचीन मंदिर। मान्यता है कि यहां दर्शन करने वालों की हर मुराद पूरी होती है। यह मंदिर एक नाले के दोनों तरफ बना है। इतिहास की बात करें तो यहां के लोगों का कहना है कि इस घने जंगल में बहुत पहले एक नाला बहता था। नाले पर एक लकड़ी का पुल था। एक दिन एक बारात आकर नाले के पास रुकी। वहां सफेद कपड़े में एक बूढ़ी महिला थी, उसने नाच करने वालों से अपनी कला दिखाने को कहा। नाच मंडली वालों ने उसका मजाक उड़ा दिया लेकिन बारात के साथ ही जा रहे एक जोकर ने बांसुरी बजाकर और नाच कर बुढिय़ा को दिखा दिया। इसके बाद बुढिय़ा ने जोकर से कहा कि वापस आते समय सबके साथ मत आना। बारात जब वापस लौटी तो जोकर पीछे चल रहा था। वो महिला पुल के पश्चिमी छोर पर खड़ी थी। जैसे ही बारात पुल पर पहुंची। वैसे ही पल टूटकर गिर गया और सभी बाराती नाले में गिर गए। इसके बाद वो बूढ़ी महिला अदृश्य हो गई। इसके बाद से ही यहां बुढिय़ा माता का मंदिर बन गया।
पानी में मिली मां काली की मूर्ति
रेती चौक स्थित मां काली के इस मंदिर का इतिहास काफी पुराना है। कुछ लोकल लोगों की मानें तो यहां पहले केवल संकट मोचन हनुमान मंदिर हुआ करता था। बहुत पहले की बात है, जब यहां नदी बहा करती थी और चारों ओर जंगल था, तभी एक दिन नदी में मां काली की मूर्ति पानी में बहती हुई दिखी। मूर्ति को देखकर ग्रामीणों ने उसे पानी में से निकालकर बाहर रखा। इसके बाद उन्होंने इस मूर्ति को संकट मोचन हनुमान जी के मंदिर में स्थापित कर दिया। इसके बाद से इसका नाम संकट मोचन कालीबाड़ी मंदिर पड़ गया। यहां मां काली और हनुमान जी के अलावा दुर्गा जी, विष्णु जी, राधे कृष्णा आदि देवी देवताओं की मूर्तियां भी हैं।
तरकुलहा देवी सुनती हैं सबकी पुकार
यह मंदिर चौरीचौरा से लगभाग 5 किलोमीटर दूर है। यह मंदिर पूर्वांचल में आस्था का बड़ा केंद्र है। यहां की मान्यता है कि क्रांतिकारी बाबू बंधु सिंह को माता का विशेष आशीर्वाद प्राप्त था। वह यहां के घने जंगलों में रहकर माता की पूजा अर्चना करते थे और देश को अंग्रेजों से आजाद कराने के लिए अंग्रेजों की बलि माता को चढ़ाते थे। बाबू बंधु सिंह गोरिल्ला टेक्निक से अंग्रेजों को मारते थे। इसीलिए उनसे अंग्रेज भी डरते थे, पर एक दिन अंग्रेजों ने धोखे से उनको पकड़ लिया और फांसी की सजा सुना दी। जल्लाद ने जैसे ही उनको फंदे पर चढ़ाया, फंदा टूट गया। ऐसा लगातार 7 बार हुआ। फांसी पर चढ़ाते ही फंदा टूट जाता था। यह देखकर अंग्रेज भी आश्चर्यचकित रह गए। इसके बाद बाबु बंधु सिंह ने मां से गुहार लगाई कि हे मां मुझे अपने चरणों मे ले लो। फिर मां ने पुकार सुन ली और आठवीं बार में उन्होंने फंदा खुद पहन लिया और उनको फांसी हो गई। इस मंदिर में मुंडन, जनेऊ और अन्य संस्कार भी होते हैं। मनोकामना पूर्ण होने पर लोग यहां बकरे की बलि चढ़ाते हैं।
महाकाली मंदिर में स्वीकार होती है सबकी प्रार्थना
दाउदपुर में स्थित मां काली का मंदिर सिटी के प्राचीनतम मंदिरों में से एक है। इसका इतिहास 200 साल पुराना है। वहां के लोगों की मानें तो यहां पहले एक जंगल हुआ करता था और उसके बीच एक छोटा सा स्थान था। एक दिन अचानक वहां माता जी के दो पिंड दिखाई दिए। इनको देखने के बाद ग्रामीणों में खबर फैल गई। इसके बाद इन पिंडों को उसी स्थान पर स्थापित कर दिया गया। लगभग 100 साल पहले वहां मां काली की मूर्ति स्थापित कर दी गई। यह मूर्ति मिट्टी की बनी हुई है। लोगों की आस्था है कि यहां कोई सच्चे मन से अगर प्रार्थना करता है तो उसकी मुराद जरूर पूरी होती है। नवरात्रि के समय यहां भक्तों की भारी भीड़ देखने को मिलती है।
आस्था का केंद्र है करवल देवी मां का मंदिर
गोरखपुर वाराणसी फोरलेन पर मुख्यालय से लगभग 44 किलोमीटर करवल ऊर्फ मझगावां मे स्थित करवल देवी माता का प्रसिद्ध मंदिर है। मान्यता है कि मां के दरबार में सच्ची मन से मांगी मुराद पूरी हो जाती है। इसलिए दूर-दराज के श्रद्धालु मां के दरबार में आकर पूजा अर्चना करते हैं। श्रद्धालु यहां कड़ाही चढ़ाते हैं। माता का प्रसाद हलवा-पूड़ी है जो नवमी के दिन श्रद्धालु यहां चढ़ाते हैं। बताया जाता है कि यहां पर पहले थारु जाति के लोग निवास करते थे। एक दिन एक थारु जाति की एक कन्या जंगल में भटक गई। जिसे जंगली जानवरों ने मार दिया। थारु जाति के लोग कन्या को ढूंढने लगे, काफी ढ़ूंढऩे के बाद उसका शव मिला। जिस जगह उसका मृत शरीर मिला उसी जगह एक पिंडी बनाकर उन लोगों ने उसे अपनी कुलदेवी मानकर पूजा अर्चना शुरू कर दी। जो बाद में करवल देवी के नाम से विख्यात हो गईं। मंदिर के पुजारी चन्द्रशेखर ने कहा कि जो भी भक्त सच्चे मन से मां की भक्ति करता है उसकी मनोकामना मां करवल देवी अवश्य पूर्ण करती है।
बामंत देवी पूरी करती हैं हर मुराद
गोरखनाथ मंदिर से करीब 15 किमी। दूर भटहट बांस्थान रोड जंगल डुमरी नंबर दो में स्थित बामंत मां का मंदिर उत्तरी भारत में शक्तिपीठ के नाम से विख्यात है। 200 वर्ष पूर्व ब्रिटिश शासन काल से ही यहां एतिहासिक मेला आयोजित होता है। पड़ोसी देश नेपाल सहित बिहार, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, महराष्ट्र आदि जगहों से लाखों की संख्या में श्रद्धालु मां के दर्शन के लिए आते हैं। क्षेत्र में बामंत माता की बहुत सारी चमत्कारी कहानियां लोगों की जुबानी सुनने को मिलती है। मंदिर के सेवक अवधेश साहनी और मोहन दास ने बताया कि नवरात्रि के पहले दिन से पूजापाठ का सिलसिला शुरु होता है। मां के दरबार से कोई भी श्रद्धालु खली हाथ नहीं लौटता।
गूरम समय माता की महिमा अपार
पीपीगंज के गूरम समय माता मंदिर में नवरात्रि के दौरान भारी संख्या में श्रद्धालुओं की भीड़ होती है। सोनौली मार्ग पर गोरखपुर मुख्यालय से 25 किमी पर मां गूरम समय का मंदिर है। परिसर में भगवान शिव का मंदिर, धर्मशाला व यज्ञशाला भी है। मान्यता के अनुसार द्वापर युग में यहां यह सिंघोर वन था। अज्ञातवास के समय यहां पांडव विश्राम किए थे। वे वहां पिंडी बनाकर मां गूरम समय की पूजा-अर्चना करते थे। एक दंतकथा के अनुसार लगभग 200 वर्ष पहले थारुओं ने एक रात में 33 एकड़ का पोखरा खोद कर टीला और 25 फीट की ऊंचाई पर भव्य मंदिर का निर्माण किया था। साथ ही मिट्टी का हाथी बना कर पूजा-पाठ शुरू की थी। मंदिर वटवृक्षों से घिरा हुआ है। इसका जीर्णोद्धार 1995-96 में श्रद्धालुओं ने कराया था। यहां लोग सुख-शांति, समृद्धि तथा संतान प्राप्ति के लिए मन्नतें मांगते हैं। मन्नतें पूरी होने पर लोग पीतल के घंटे व हलवा-पूड़ी चढ़ाते हैं। पुजारी सुरेंद्र नारायण द्विवेदी ने बताया कि नवरात्र के मद्देनजर श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए विशेष व्यवस्था की जाती है।
मां दुर्गा को अर्पित करते हैं रक्त
बांसगांव के प्रसिद्ध मां दुर्गा मंदिर में नवरात्रि के समय भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है। वहां के लोगों ने बताया कि बहुत पहले बांसगांव के श्रीनेत वंशज क्षत्रिय उनवल स्टेट के महल में स्थापित पिण्डी के दर्शन को जाते थे। वहां पर बलि चढ़ाई जाती थी। एक बार उनवल के लोगों से बलि को लेकर विवाद हुआ और काफी खून खराबा हुआ। बांसगांव के श्रीनेत वंशज क्षत्रियों ने पिण्डी का आधा हिस्सा बल प्रयोग कर उठा लिया और बांसगांव के एक व्यक्ति के बरामदे में स्थापित कर पूजा अर्चना शुरु कर दी। बाद में ग्रामीणों के सहयोग से भव्य मंदिर का निर्माण करने के बाद वहां माता जी की मूर्ति स्थापित की गई। नवरात्रि के अवसर पर नवमी के दिन देश-विदेश में रहने वाले श्रीनेत वंशज मंदिर में पहुंच कर अपने शरीर से मां के चरणों में रक्त अर्पित करते हैं।