- देश के हर घर में मेरा पहुंचा है नाम
GORAKHPUR: मैं गोरखपुर हूं और गीता प्रेस मेरा अभिन्न हिस्सा है। सैकड़ों साल से देश और दुनिया को धार्मिक गतिविधियों की जानकारी दे रहा हूं। समय ने उपेक्षा का शिकार भी बनाया, जिस कारण अभी खुद के लिए लड़ रहा हूं। लेकिन आज भी मेरे अंदर इनका इतिहास जिंदा है। अस्तित्व की इस लड़ाई में लोगों को आज बता रहा हूं कि किस तरह उनकी जिंदगी से जुड़ा हुआ हूं।
गलती सुधारने को खुला गीता प्रेस
गीता प्रेस को गर्व है कि उसके जरिए गोरखपुर का नाम घर-घर तक पहुंच रहा है। हो भी क्यों न, आखिर गीता प्रेस की धार्मिक किताबें दुनिया भर में यहां के नाम को पहुंचा रही हैं। इसके निर्माण के पीछे भी बहुत रोचक कहानी है। 92 साल पहले एक व्यक्ति ने श्रीमद्भागवत गीता में छपी गलतियां सुधारने की ठानी और आज यह गीता प्रेस हर साल हजारों लोगों के जीवन की गलतियां सुधार रहा है। गीता प्रेस के ट्रस्टी ईश्वर प्रसाद पटवारी ने बताया कि मूलत: राजस्थान के निवासी जयदयाल गोयंदका कोलकाता में रहते थे। उस समय गीता कई जगहों पर प्रकाशित होती थी, लेकिन उसमें तमाम गलतियां भी छप जाती थी। इसे सही करने के लिए उन्होंने प्रकाशन से कई बार कहा। वहां से यही जवाब आता था कि इतना सही पढ़ना है तो खुद ही छाप लें। इससे नाराज हो जयदयाल गोयंदका गोरखपुर आए और 10 रुपए वाले किराए के मकान में एक प्रकाशन स्थापित किया। एक कमरे से 1923 में शुरू हुआ गीता प्रेस आज लगभग साढ़े पांच एकड़ में फैला है। वर्तमान में गीता प्रेस केवल हिंदी या संस्कृत ही नहीं बल्कि गुजराती, मराठी, तेलगू, बांग्ला, उडि़या, तमिल, कन्नड़, अंग्रेजी, उर्दू और नेपाली में भी गीता छापकर लोगों को जीवन जीने की कला बता रहा है। यहां से श्रीमद्भागवत गीता, श्री रामचरितमानस, तुलसी साहित्य, पुराण, उपनिषद, भक्त चरित्र भजनमाला किताबें तो छपती ही हैं, कल्याण और कल्पतरू कल्याण पत्रिका से लोगों को शांति देने का कार्य भी वर्षो से हो रहा है।
खंडित धरोहरों पर बहा रहा आंसू
धरोहर भले ही एक मिट्टी, पत्थर, लोहा या किसी अन्य तत्व का ढेर हो, लेकिन वह अपने अंदर एक युग को सहेजे होता है। मैं भी ऐसे ही एक अंतराल को सहेजे बैठा हूं। लेकिन समय के साथ जिम्मेदारों की लापरवाही ने मुझे कमजोर कर दिया है। अपनी धरोहरों की वर्तमान दुर्दशा पर आंसू बहा रहा हूं। मैं पाल शैली (11वीं-12वीं शताब्दी) में बनने वाली कलाकृतियों का गवाह रहा हूं। उस समय की बनी भगवान विष्णु की दो बेशकीमती मूर्तियां वर्तमान में राजकीय उद्यान व्ही पार्क में दिन प्रतिदिन क्षरण का शिकार हो रही हैं। इन मूर्तियों के बारे में कई किवदंतिया भी हैं। ये यहां कैसे पहुंचीं, इसे लेकर मतभेद है। व्ही पार्क के निदेशक सत्येंद्र सिंह का कहना है कि यह मूर्तियां रुद्रपुर स्थित दुग्धेश्वरधाम मंदिर के पीछे हुई पुरातत्विक खुदाई से निकली है। इन्हें किसी अफसर ने यहां पार्क में लाकर रख दिया था। वहीं इतिहासकारों का कहना है कि ये मूर्तियां विष्णु मंदिर के पीछे पोखरे में थीं। बाद में प्रशासन ने पोखरे से मूर्तियां निकलवाकर व्ही पार्क में रखवा दी। हालांकि 20 से अधिक शोध इन मूर्तियों पर हो चुके हैं। रखरखाव के कारण अब खंडित होने लगी हैं। किसने इनका निर्माण कराया था, इसकी कोई पुष्ट जानकारी किसी के पास नहीं है। राजबली पांडेय नाम के इतिहासकार ने अपनी किताब 'गोरखपुर का इतिहास' में इन दोनों मूर्तियों की चर्चा की है। खंडित हो रही धरोहरें मुझे सोचने पर विवश कर रही हैं कि कब तक मैं अपने इतिहास और परंपरा को संभाले रह पाउंगा।