- गोरखपुर के इस्माइलपुर से गए थे 11 लोग
- सफर पूरा करने में लग गए नौ माह
- 1953 में निकला था हाजियों का काफिला
GORAKHPUR: हज की शुरुआत हो चुकी है। देश-विदेश से आजमीन-ए-हज का कारवां सऊदी अरब पहुंच चुका है। गोरखपुर से भी सैकड़ों लोग इस मुकद्दस सफर के लिए जा चुके हैं और बारगाहे इलाही में उन्होंने सजदे करने भी शुरू कर दिए हैं। आज ये सफर काफी आसान हो चुका है। मगर एक वक्त था, जब वहां जाना किसी सपने के पूरे होने जैसा था। पैसों की कमी और जरूरी इंतजाम ना होने से लोग इसके लिए काफी सोच विचार करते। मगर कहते हैं ना कि अल्लाह जिसे चाहे तौफीक दे दे। ऐसे ही चंद लोगों में शामिल हैं शहर के कुछ लोग, जिन्हें न तो पैसे की कमी वहां पहुंचने से रोक सकी और न ही दूरी ही उनके इरादे को डिगा सकी। साइकिल पर सवार होकर हाजियों का यह कारवां सऊदी अरब पहुंचा और वहां से हज के अरकान पूरा कर वापस लौटा।
साइकिल से ही निकल पड़े
खुदा का घर देखने और हज के अरकान पूरा करने के लिए शहर के 11 लोगों ने इरादा किया। वाकया सन् 1953 का है जब भारत को आजाद हुए महज छह साल हुए थे। उस वक्त विदेश की यात्रा पानी के जहाज से की जाती थी, लेकिन ग्यारह लोगों ने ठान लिया था कि साइकिल से ही हज यात्रा पर जाना है। खुदा के घर का तवाफ करने की हद और इबादत इस कदर बढ़ी कि राह में आने वाली मुश्किलों का ख्याल नहीं रहा। बस फैसला किया और इस्माइलपुर में रहने वाले रसूल बख्श की अगुवाई में 11 लोगों का कारवां मुकद्दस हज के सफर के लिए रवाना हो गया।
पं। नेहरू ने बनवाया पासपोर्ट
हाजी अब्दुल मोईद के साहबजादे औरंगजेब ने बताया कि बिना कुछ सोचे समझे हज के लिए निकले इस ग्रुप में चंद लोगों के पास पासपोर्ट नहीं था। जब वह पाकिस्तान पहुंचे तो उस दौर में वहां अय्यूब खान की हुकूमत थी, उसने इन हाजियों को बगैर पासपोर्ट एंट्री से रोक दिया। जब यह बात तत्कालीन पीएम पं। जवाहर लाल नेहरू को हुई तो उन्होंने साइकिल से हज पर जाने वाले हाजियों के जज्बे को सलाम करते हुए पासपोर्ट उपलब्ध कराया। इसमें अब्दुल मोईद का पासपोर्ट मोहल्ला खोखर टोला में आज भी महफूज है। इसमें तमाम मुल्कों की मोहर लगी हुई है।
नौ माह में पूरा हुआ सफर
इस ग्रुप के मुखिया हाजी पतंग वाले के नाम से मशहूर हुए हाजी रसूल बख्श की अगुवाई में हाजियों का जत्था नौ माह के लंबे सफर के बाद घर वापस पहुंचा। आने और जाने के दौरान पाकिस्तान, इराक, ईरान के साथ कई देशों का उन्होंने सफर किया। आने-जाने में उन्हें थोड़ी बहुत तकलीफ भी हुई। कई जगह भाषा समझने में भी परेशानी हुई, लेकिन उन्होंने अपना सफर पूरा किया।
बॉक्स
दोस्त ने दिलाई साइकिल
औरंगजेब ने अपने वालिद के बारे में बताया कि सफर के दौरान चाचा हाजी अब्दुल हफीज भी थे। मेरे वालिद की भी जबरदस्त तमन्ना थी, लेकिन साइकिल न होने की वजह से मनमसोस कर रह गए। दल बस्ती तक पहुंच गया था। वालिद अब्दुल मोईद के एक दोस्त जाहिद अली खान रेलवे में काम करते थे। उनसे बातचीत में यह बात अब्दुल मोईद ने कही। जाहिद ने नखास से इकलौती मौलवी साहब साइकिल वाले की दुकान से हम्बर साइकिल खरीद कर दी। फिर क्या था पिता ने सफर पर जाने की तैयारी शुरू कर दी। तीन लोगों अब्दुल अजीज, नेक मोहम्मद, मोहम्मद बख्श ने बस्ती तक उन्हें दल तक पहुंचाया। जहां से वह भी इसमें शामिल हो गए। खट्टी-मीठी यादों को लेकर हज यात्रा हुई। जिसकी यादें आज भी इस दल के लोगों के घरों के हर फर्द की जुबां पर है।
मेरे वालिद के पास साइकिल नहीं थी। इस्माइलपुर के कुछ लोग साइकिल से हज के लिए जा रहे थे, तो उनका भी इरादा हुआ। उनके दोस्त ने साइकिल दिलाई। जिसके बाद वह दल में शामिल हो हज पर निकले।
- हाजी औरंगजेब, हाजी अब्दुल मोईद के बेटे
मेरे पिता की अगुवाई में 11 लोगों का काफिला साइकिल से हज के लिए निकला था। कई देशों की यात्रा करते हुए वह सऊदी अरब पहुंचे और वहां से हज करने के बाद साइकिल से ही वापस लौटे।
मुबारक, हाजी रसूल बख्श के बेटे