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राजनीति के गलियारों में यह कहावत बहुत ही पुरानी है कि दिल्ली की गद्दी तक अगर पहुंचना है तो उत्तर प्रदेश की राहों से गुजरना ही होगा। यूपी के ईस्टर्न, वेस्टर्न और सेंट्रल के त्रिकोण से सफलतापूर्वक बाहर निकलना सियासी सूरमाओं के लिए हमेशा बेहद चैलेंजिंग रहा है। क्षेत्रीय मुद्दों के साथ जातीय समीकरणों में उलझी जीत और हार की गणित को सॉल्व करने में सूरमाओं के पसीने छूट जाते हैं। बीजेपी के पीएम कैंडीडेट नरेंद्र मोदी और आम आदमी के अरविंद केजरीवाल ने बनारस से तो सपा मुखिया ने आजमगढ़ से ताल ठोंक ईस्टर्न को साधने के लिए बड़ी सियासी पांसा फेंक दिया है। सेंट्रल में मोर्चा संभालने के लिए राजनाथ के साथ सोनिया और राहुल मैदान में डटे हैं। वेस्टर्न में सपा को छोड़कर भले ही किसी ने अपने बिग गन को नहीं उतारा है लेकिन सत्ता के लिए इस 'हवा' की अहमियत सबको पाता है। सियासी दल जानते हैं कि मई की चिलचिलाती गर्मी में 'जीत की बारिश' पश्चिमी हवा के रुख से ही होगी। इसीलिए तो इस इलाके में महारथियों ने महाभारत छेड़ दी है। यूपी की 80 सीटों में 27 सीटों वाले पश्चिमी इलाके में कैसी है चुनावी तस्वीर, आइए इसी को समझने की कोशिश करते हैं।

छह डिविजन, 26 जिले और 27 सीटें

दिल्ली, हरियाणा, उत्तराखंड और राजस्थान की सीमा से सटा पश्चिमी उत्तर प्रदेश मेरठ, सहारनपुर, मुरादाबाद, बरेली, आगरा और अलीगढ़ समेत छह डिवीजनों में बंटा है। 26 जिलों से ये इलाका 27 लोकसभा सांसद चुनकर भेजता है। रोहिला सरदारों और ब्रजभमि वाली पश्चिमी जमीन पर यादव, मुसलिम, जाट, दलित, गुर्जर, राजपूत, रोहिला पाश्तून और ब्राहम्णों जातियों का दबदबा है।

हाथी के पीछे रही है साइकिल

बीते लोकसभा चुनाव के नतीजों पर नजर दौड़ाएं तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश की लोकसभा सीटों पर कमोबेश हाथी की चाल सबसे मस्तानी रही है। सात सीटों पर जीत का परचम लहराने वाले हाथी के पीछे-पीछे साइकिल है। सपा ने बीते चुनाव में छह सीटों पर कब्जा जमाया था। भाजपा और अजीत सिंह के राष्ट्रीय लोकदल ने पांच-पाचं सीटें अपने नाम लिखी थीं। जबकि कांग्रेस का प्रदर्शन सबसे खराब रहा था। उसके खाते में महज तीन सीटें ही आईं थीं। वहीं एटा से कल्याण सिंह ने इंडिपेंडेंट के तौर पर चुनाव में जीत हासिल की थी।

कई सीटों पर रहा था बेहद नजदीकी मुकाबला

पश्रि्वमी उत्तर प्रदेश की 27 लोकसभा सीटों में से 12 पर बसपा का हाथी दूसरे नंबर था। आरएलडी, बीजेपी और सपा पांच-पांच सीटों पर रनर अप रहीं थीं। इलाके की करीब चालीस परसेंट सीटें तो बीते लोकसभा चुनाव में बेहद नजदीकी मुकाबले की गवाह भी रहीं थीं। ऐसे में इस मामली अंतर को पाटने के लिए मौजूदा लोकसभा इलेक्शन में जबरदस्त होड़ भी है।

पोस्ट रॉयट से बदला माहौल

आंकड़ों पर गौर करें तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सत्ता इस लोकसभा सीटों में से आधे से अधिक सीटों पर मुसलिम वोटों का फैक्टर सबसे अहम रोल प्ले करता है। एक जमाना था जब जाट और मुसलिम वोट बैंक के सहारे किसान नेता चौधरी चरण सिंह की इस इलाके में तूती बोलती थी। लेकिन चरण सिंह के पोस्ट एरा में मुसलिम और जाट के वोटों में बिखराव होता गया। मुजफ्फरनगर के दंगों के बाद खास वोट बैंक को साधने के लिए वैसे तो सियासी पार्टियां कोई कसर नहीं छोड़ रहीं, लेकिन मई में ऊंट किस करवट बैठेगा, इसका पूरा अंदाजा अभी तक कोई नहीं लगा सका है।

सियासी सूरमाओं की स्ट्रेटटजी

सपा मुखिया मुलायम सिंह या फिर कांग्रेस और बीजपी के कर्ताधर्ता दंगों के बाद बदले माहौल को हर कोई अपने पक्ष में मोड़ने की जद्दोजहद में जुटा है। बीते तीन महीने में अगर आप इस इलाके में बढ़े सियासी तापमान को मापने की कोशिश करें तो दंगे का ताप महसूस किया जा सकता है। शायद यही वजह है कि बीजेपी इस इलाके के लिए दंगे के आरोपियों को भी टिकट थमाकर अपने पत्ते खोल दिए हैं। मिशन 272 में पश्चिमी इलाके की अहमियत को बखूबी समझने वाले बीजेपी के पीएम कैंडीडेट नरेंद्र मोदी भी इस इलाके में अपनी पूरी ताकत झोंक रहे हैं। इसी कड़ी में अब तक आगरा, मेरठ, बरेली और बागपत में चुनावी रैलियां कर चुके हैं। वहीं सपा और कांग्रेस द्वारा गुजरात को लेकर मोदी पर तीखा और तेज हमला अपने वोट बैंक को बिखराव से रोकने की एक बड़ी कोशिश के तौर पर ही देखा जा रहा है।

मोदी का टारगेट साफ

बरेली में नरेंद्र मोदी की रैली पर अगर गौर करें तो अपने आधे घंटे के भाषण में उनके निशाने पर अधिकांश समय कांग्रेस सरकार ही रही। लोगों के दिलों को छूने की कला में माहिर मोदी ने जहां गरीब, किसान, छात्र, बेरोजगार को साधने की कोशिश तो बरेली के मांझा कारोबारियों को सुहावने सपने दिखाकर अपने पाले में करने की भी कोशिश की। कांग्रेस को गरीबों का दुश्मन बताकर खुद रहनुमा बनने की कोशिश हो या फिर अनाज के सड़ने का मसला उठाने की वजह, कहीं न कहीं बिखरे वोट बैंक की साधने की ही कोशिश है। सपा सरकार को घेरना हो या फिर खुद को सेवन के तौर पेश करना हो, निचले तबके पर ही उनकी नजर है। मोदी और उनकी रणनीतिकार इस बात को बेहद अच्छी तरह से जानते हैं कि इस तबके से ही उनकी नैया पार लगेगी।

विकास के लिए तरसता इलाका

छोटे मोटे उद्योगों से अपने परिवार का पेट पालने वाले कारीगर हों या फिर गन्ना किसान, पूर्वी उत्तर प्रदेश में इनका खास प्रभाव है। बिजली और बेसिक सुविधाओं के लिए भी तरसते लोग आज भी विकास की बाट जोह रहे हैं। अपनी रैलियों में गन्ना किसानों और बिजली, पानी और सड़क की बुलंद होती आवाज यूं ही नहीं है। मुलायम सिहं यादव और अखिलेश की चुनावी रैलियों के साथ मोदी भी तभी तो इस इलाके में विकास की बात छेड़ना कतई नहीं भूलते। सियासत के इन माहिर खिलाड़ी ये बखूबी जानते हैं कि किसानों और आम गरीबों की नाराजगी उनके सपनों को धूल में मिला सकती है।

कांग्रेस की नजर चौकस

मुजफ्फरनगर दंगे के बाद बदले माहौल को कैश कराने में कांग्रेस भी कतई पीछे नहीं रहना चाहता। नरेंद्र मोदी की गुजरात दंगों में कथित भूमिका, मुजफ्फरनगर में दंगे से निपटने को अखिलेश सरकार की खिंचाई करना, यह चुनावी रणनीति का बड़ा हिस्सा है। असल में 2009 के लोकसभा इलेक्शन में महज तीन सीटों पर परचम लहरा चुकी कांग्रेस के लिए इस इलाके में फिलहाल खोने को कुछ नहीं है। हालांकि मोदी फैक्टर के सामने आने से एक वोट बैंक के पोलेराइज होने का डर जरूर उसे खाए जा रहा है। शायद यही वजह है कि सहारनपुर में राशिद मसूद के बेहद आपत्तिजनक बयानों पर भी पार्टी परदा डालने की कोशिश में जुट गई ।

इनकी किस्मत दांव पर

राजबब्बर, पूर्व सेनाध्यक्ष वीके सिंह, मुलायम सिंह यादव, नगमा, जया प्रदा, अमर सिंह, अजीत सिंह, जयंत चौधरी, मेनका गांधी, संतोष गंगवार, हेमा मालिनी, राजवीर सिंह, अक्षय यादव (राम गोपाल यादव के बेटे)