BAREILLY: जिंदगी वही जो दूसरों के काम आए। इस फलसफा को बयां करने वाले बहुतेरे मिलेंगे, लेकिन इसे अपनी जिंदगी में इसे उतारने वाले बिरले ही मिलेंगे। यह आसान भी नहीं क्योंकि परिवार की जिम्मेदारियां, काम का बोझ और सबसे ज्यादा अपनी ख्वाहिशों और आराम की फिक्र किसी को दूसरों के बारे में सोचने नहीं देती है। कोई भला क्यूं किसी और के लिए सिरदर्दी मोल ले, लेकिन कुछ लोगों की सांसे ऐसी सिरदर्दी की बुनियाद पर ही टिकी हैं। कुछ को विरासत में यह सनक मिली तो कुछ ने अपने पर बीतने के बाद दूसरों के दर्द को दूर करने का बीड़ा उठाया। इसके आगे न तो मजहब की दीवार आड़े आई और न ही पारिवारिक जिम्मेदारियां। मकर संक्राति का पावन पर्व जिसमें दान देकर दूसरों की मदद करने की परंपरा रही है। उसी पर्व पर कमजोर व जरूरतमंदों को नई आस और उम्मीदों का अनूठा दान देने वालों से एक मुलाकात।
अर्थदान
दूसरों की मदद में पाया सुकून
वह पेशे से एक बिजनेसमेन एक प्रॉपर्टी इंवेस्टर हैं तो फितरत में नफा नुकसान का ही रंग चढ़ना चाहिए था, लेकिन दूसरों की मदद करने का जज्बा ही रगों में बह रहा हो तो बात अलग भी हो जाती है और खास भी। शमशुल रहमान अपने क्लब के साथ मिलकर हर साल भ्-म् गरीब बच्चों की एक साल तक स्कूली पढ़ाई, स्टेशनरी, यूनिफॉर्म का खर्च उठाते हैं। हर साल एक आई चेकअप कैंप पुराने शहर में लगवाते हैं, जहां जरूरतमंदों का मुफ्त में इलाज मुमकिन होता है। दूसरों की मदद का यह जज्बा उन्हें अपने दादा चुन्ना मियां साहब से विरासत में ही मिला, जिन्होंने मुसलमान होते हुए भी लक्ष्मी नारायण का मंदिर बनवाया था। शमशुल रहमान दूसरों के लिए की गई मदद को अल्लाह की ओर से दिया गया मौका मानते हैं। इसलिए काफी कुरेदने के बावजूद जिक्र नहीं करते कि किसे कहां क्या और कैसे मदद की। बस इतना बताते हैं कि सेवाभाव खून में है और दूसरों की मदद कर सुकून मिलता है। उनके इसी नजरिए की कायल उनकी वाइफ भी हैं, जो हर साल जेल में बंद कैदियों को राखी बांधती हैं और जाड़े की सर्द रातों में ठिठुर रहे गरीबों को हर साल कंबल बांटती हैं।
श्रमदान
आजादी के नायकों को दो युवाआें का सलाम
एक ओर जहां मॉडर्न एजुकेशन के एक्सपर्ट बन रहे युवाओं में से ज्यादातर को आजादी के नायकों के नाम याद रखने में पसीने छूटते हों, वहां कुछ ऐसे भी युवा हैं, जो आजादी के हीरोज की प्रतिमाओं को साफ रखने और संवारने में गौरव महसूस करते हैं। सलमान खान और श्रवण राज बरेली के ऐसी ही दो युवा हैं, जिन्होंने आजादी के नायकों को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए उनकी मूर्तियों को साफ करने का दो महीने पहले बीड़ा उठाया था। यह जिम्मा भी महज बरेली की सीमा तक न रुका बल्कि दिल्ली, लखनऊ, शाहजहांपुर और मुंबई जैसे शहरों में भी जाकर इन युवाओं ने अपने नायकों के सुनहरे व्यक्तित्व पर जमा धूल पोंछने का काम किया। आरयू से ग्रेजुएट श्रवण राज मुंबई में एक प्राइवेट कंपनी में अच्छी-भली नौकरी भी करता था, लेकिन शहरों में लगे शहीदों की प्रतिमाओं के हो रहे अपमान दिल को कही न कही कचोटता रहा। जिसकी वजह से सलमान और श्रवण ने यह कदम उठाया। फिलहाल श्रवण और सलमान की इस मुहिम को अन्य युवाओं का भी साथ मिला।
शिक्षादान
अपने दर्द को बनाया दूसरों का सहारा
ख्फ् अगस्त क्9ब्7 को अपने परिवार संग भारत में कदम रखने वाली ऊषा उप्पल की नई पहचान रिफ्यूजी के तौर पर बनी थी। अभावों के बीच पढ़ाई जारी रखने की मुश्किलों ने बंटवारे की इस टीस को और तीखा किया। यहीं से दूसरों के लिए कुछ करने का उनकी मदद को आगे आने का ख्याल पहले सोच और फिर मिशन बन गया। 79 साल की एकेडमिशियन और सोशलाइट ऊषा उप्पल मुढि़या अहमद नगर में दिशा नाम से एक स्कूल चलाती हैं। जहां क्क्फ् फिजिकली डिसेबल्ड लड़कियों को क्लास क्0 तक मुफ्त एजुकेशन दी जाती है। वहीं जिन लड़कियों के पास यूनिफॉर्म किताबें खरीदने के पैसे नहीं उन्हें यह चीजें मुफ्त मुहैया कराती हैं। वहीं ग्रेजुएशन के बाद कॉम्पिटिटीव एग्जाम्स की तैयारियों के लिए कोचिंग न शुरू कर पाने वाले गरीब स्टूडेंट्स को भी फ्री में पढ़ाती हैं। यूं तो समाज के हर तबके के लिए ऊषा उप्पल ने काम किया लेकिन महिलाओं के लिए उन्होंने हमेशा आवाज उठाई और इससे औरों को भी जोड़ा। आकांक्षा संगठन के जरिए कई गरीब लड़कियों की शादी भी करवाई। इस दौरान राह में आई हर मुश्किल को एक अवसर समझा और कभी कदम वापस नहीं खींचे।
अन्नदान
दरवाजे पर मिटती है भूखे की क्षुधा
अपनी मां और पिता से मिली सीख को सविता वर्मा शादी के बाद भी बखूबी निर्वहन कर रही है। भूखों का पेट भरना सविता का हर रोज का काम है। अपने पेरेंट्स को जरूरतमंदों को अन्न दान करता देख क्क् साल की उम्र में सविता ने भी अपने पेरेंट्स के पद चिह्नों पर चलना शुरू दिया था। जो शादी के वर्षो बाद भी कायम है। हालांकि सन क्978 में प्रेमनगर के रहने वाले हरिशंकर वर्मा से शादी के बाद ससुराल में इस बात का थोड़ा बहुत विरोध हुआ था, लेकिन यह विरोध उनके हौसले को और बुलंद करता गया। घर में कोई व्यक्ति आ जाए उसको खाना खिलाए या अन्न दिए बिना वह आज भी किसी को वापस नहीं करती है। कीर्तन में भी अपना सहयोग देते हुए लोगों को भोजना कराना नहीं भूलती है। अब तो घर के सामने गायों का भी जमावड़ा लगने लगा है। रिश्ता कुछ ऐसा बन गया है कि कॉलोनी की गायें भी सविता वर्मा के घर तय समय पर रोटी की आस में रोजाना पहुंच जाती है। सविता बताती है कि इन सबसे उन्हें जीवन में एक अनोखी ऊर्जा मिलती है.
रक्तदान
क्योंकि खून का रंग एक ही होता है
क्ख् साल पहले एक्सीडेंट में घायल मासूम बच्चे की जान बचाने की मदद के लिए कई लोग आगे आए लेकिन सब पैसे दे रहे थे, लेकिन बच्चे को पैसों की नहीं बल्कि ब्लड की जरूरत थी। कैंट के सब्जी विक्रेता रजा खां ने उसे ब्लड देकर जान बचायी। उस खून की कीमत तो परिजन नहीं अदा कर पाए, लेकिन रजा को घर पर धन्यवाद करने पहुंचे। इस एक इंसीडेंट ने रजा का नजरिया ही बदल दिया और उन्होंने लोगों की जिंदगी बचाने का बीड़ा उठा लिया। रजा ब्लड डोनेट करने की हाफ सेंचुरी लगा चुके हैं। आईएमए में ही ब्म् बार ब्लड डोनेट करने का रजिस्ट्रेशन है। रजा साल में तीन बार ब्लड डोनेट करते हैं। रजा बताते हैं कि फ् साल पहले एक दूसरे शहर के रहने वाले बच्चे की जान बचाने के लिए उन्होंने ख्7 यूनिट ब्लड का इंतजाम किया था। पहले मुस्लिम समाज के लोग ब्लड डोनेट करने से परहेज करते थे लेकिन अब उनकी पहल पर क्भ् दोस्त और रिश्तेदार ब्लड डोनेट करते हैं। उनकी पत्नी इरफाना और भांजा अली भी भ् बार ब्लड डोनेट कर चुका है। उन्हें ब्लड डोनेट कर किसी की जान बचाने में काफी आनंद मिलता है।