बरेली (ब्यूरो)। जिला अस्पताल का आयुष विंग बदहाली के दौर से गुजर रहा है। इसकी शुरुआत साल 2008 में हुई थी, लेकिन आज इस की हालत बहुत खराब हो चुकी है। इसको चलाने के लिए डॉक्टर्स का कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है। सालों से दवाइयां ही उपलब्ध नहीं कराई गई हैं। डॉक्टर्स जैसे-तैसे काम चला रहे हैैं। विंग के किसी भी सेशन में आधी भी दवायें उपलब्ध नहीं है। पांच करैक्टर्स को मिलाकर शब्द &आयुष&य बना है। ए फॉर आयुर्वेद, वाई फॉर योगा, यू फॉर यूनानी, एस फॉर सिद्धा एंड एच फॉर होमियोपैथी.इसकी शुरुआत लोगों को आयुष स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए की गई थी, जिससे लोग अपनी पुरानी पद्धति की ओर वापस लौटें, आज की डेट में देखने से लग रहा है जैसे कि सब धरा का धरा रह गया है।
दो साल पहले बजट
आयुष विंग का बजट काफी लंबे समय से होल्ड पर ही पड़ा हुआ है। ऐसे में बजट के अभाव में दो सालों में मेडिसिन ही नहीं मिल पा रही है। इसकी वजह से कई बार मरीजों को बिन दवा के भी लौटना पड़ जाता है। इसके लिए आयुष विभाग की ओर से कई बार सीएमओ और शासन को पत्र भी लिखा जा चुका है, लेकिन कोई भी संज्ञान अब तक उस पर नहीं लिया गया है। आलम यह है कि डॉक्टर्स के पास मेडिसिन के नाम पर लगभग 30 से 40 मेडिसिन ही अवेलेबल हैैं।
भडक़ जाते हैैं पेशेंट्स
एलोपैथी के साइड इफैक्ट से बचने के लिए कई पेशेंट्स ऐसे हैं, जो आज भी आयुर्वेद, होम्योपैथी और यूनानी जैसी मेडिसिन का इस्तेमाल करना चाहते हैैं, जिससे उन्हें कोई भी साइड इफैक्ट का सामना न करना पड़े। पहले जहां आयुष विंग में डॉक्टर्स को दिखाने के लिए लंबी-लंबी लाइन लगी रहती थी। वहीं अब दवाइयों का टोटा होने से मरीजों की संख्या भी घटने लगी हैैं। जहां एक दिन मेंं डॉक्टर्स 300 से 400 मरीजों को देखते थे। वहीं आज के टाइम पर मरीजों की संख्या काफी तेजी से मरीजों की संख्या घटती जा रही है। जिला अस्पताल के पूरे आयुष विंग में मात्र तीन डॉक्टर्स हैं। यहां पर हर दिन लगभग 90 से 100 मरीज आते हैैं। इनमें 40 से 50 मरीज होम्योपैथी, 40 से 50 आयुर्वेदिक में, 20 से 30 मरीज यूनानी में आते हैैं। इसके अलावा मेडिसिन की कमी होने से कई बार पेशेंट्स डॉक्टर्स पर ही भडक़ जाते हैं कि दवाइयां दी ही नहीं जा रही हैं और डॉक्टर्स अपने पास ही मेडिसिन रख रहे हैैं।
घर से लाएं डिब्बी
डॉक्टर्स के पास पेशेंट्स को देने के लिए दवाइयों के पैकेट्स तक नहीं है। ऐसे में पेशेंट्स को दवाइयां लेने के लिए अपने घरों से ही पॉली बैग अथवा डिब्बी लानी होती हैैं। वहीं अगर कोई पेशेंट्स डिब्बी या पॉली बैग नहीं लाता है तो उसे कागज में लपेट कर दवाई दे दी जाती है। ऐसे में अगर फैक्ट की बात की जाए तो जो दवाई डालकर पेशेंट्स को मीठी गोली दी जाती हैैं, उसमें दवा तो बचती ही नहीं है, वह सिर्फ मीठी गोली ही रह जाती है, जिसे खाने न खाने का कोई फायदा नहीं रहता।
अभी तक बजट नहीं आया है। जब तक बजट नहीं आएगा तब तक हम लोग कुछ नहीं कर सकते हंै। हम लोगों ने शासन को पत्र लिखकर सिचुएशन से अवगत करा दिया है।
-डॉ। विश्राम सिंह, सीएमओ