एक ही मैदान पर दमखम को तराशते हैं सभी धुरंधर

स्पोट्र्स स्टेडियम पर एक बारगी नजर डाली जाए तो यहां पर क्वालिटी मेंटेन करने के बजाय पूरा ध्यान क्वांटिटी पर ही होता है। स्टेडियम के 10 एकड़ के ग्राउंड में करीब-करीब सभी इवेंट्स की प्रैक्टिस कराई जाती है। प्लेयर्स को खुलकर प्रैक्टिस करने का मौका नहीं मिलता। स्टेडियम से सटा एक और आउटडोर ग्राउंड है लेकिन फंड की कमी के चलते उसे डेवलप नहीं किया जा सका। प्लेयर्स को तराशने के बजाय अब वहां पर रामलीला समेत अन्य दूसरे प्रोग्राम्स ऑर्गनाइज होते हैं।

Events की कमी नहीं

बरेली में सेना की कई यूनिट के बेस हैं। साथ ही यहां पर बेहतर स्कूलिंग और कॉलेजेज की फैसिलिटीज हैं। इस कारण दूसरे डिस्ट्रिक्ट्स से काफी संख्या में स्टूडेंट्स यहां आकर पढ़ाई करते हैं। सेना और केंद्रीय विद्यालय की तरफ से स्पोट्र्स एक्टिविटीज तो होती ही हैं, साथ ही स्टूडेंट्स की काफी बड़ी फौज होने के कारण स्पोट्र्स एक्टिविटीज में उनकी एक बड़ी भागीदारी रहती है।

तो कैसे तैयार होंगे खेल के 'जादूगर'

Practice का limited space

जिस लिहाज से स्पोट्र्स में स्टूडेंट्स में की एक बड़ी      भागीदारी रहती है, उस लिहाज से उनके पास प्रैक्टिस के लिए लिमिटेड स्पेस ही अवेलेबल है। सिटी में सेना, साईं, पुलिस लाइन, यूनिवर्सिटी के स्टेडियम के साथ एक स्पोट्र्स स्टेडियम है, जो स्टेट की स्पोट्र्स अथॉरिटी के अंडर आता है। एक नजर  डाली जाए तो ले देकर एक स्पोट्र्स स्टेडियम ही है, जहां प्लेयर्स के कुछ कर दिखाने की उम्मीदों के पंख फडफ़ड़ाते हैं।

मेन गेम्स की होती है प्रैक्टिस

स्पोट्र्स स्टेडियम 1974 में स्टेट की स्पोट्र्स गवर्निंग बॉडी के कंट्रोल में आया। उससे पहले वह पुलिस विभाग के अंडर में था। यहां अमूमन सभी मेन गेम्स की प्रैक्टिस कराई जाती है। क्रिकेट, बास्केटबॉल, हॉकी, बॉक्सिंग, हैंडबॉल, वॉलीबॉल, फुटबॉल, जिमनैस्टिक, स्विमिंग, वेट लिफ्टिंग, बैडमिंटन, नेटबॉल समेत अन्य दूसरे स्पोट्र्स की प्रैक्टिस खूब होती है।

ऊंट के मुंह में जीरा जैसा fund

स्टेट गवर्नमेंट स्पोट्र्स एक्टिविटीज के लिए जो फंड जारी करता है वह ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। एक अनुमान के मुताबिक महज 4 से 5 लाख रुपए सालाना ही बजट सिटी स्पोट्र्स के लिए एलोकेट किया जाता है। वह भी महज स्पोट्र्स हॉस्टल, प्रतियोगिताएं और सैलरी के लिए। इसके अलावा इंफ्रास्ट्रक्चर को डेवलप करने के लिए हर साल डिमांड भेजी जाती है। सोर्सेस के मुताबिक इस डिमांड पर भी सरकार कतई सीरियस नहीं दिखती। अक्सर डिमांड को अनसुना कर दिया जाता है। यदि किसी तरह से फरियाद सुनी भी जाती है तो फंड इतना कम रिलीज होता है कि उसमें सारी सुविधाओं को मुहैया नहीं कराया जा सकता।

महज तीन permanent coach

यह खेल के साथ खेल नहीं तो क्या है। 4 दशक बाद भी महज तीन परमानेंट कोच के सहारे ही स्पोट्र्स को ऊंचाइयों तक पहुंचाने का दम भरा जा रहा है। जिमनास्ट, फुटबॉल और स्विमिंग के अलावा यहां पर किसी भी इवेंट के लिए कोई भी परमानेंट कोच नहीं है। बाकी अलग-अलग खेलों के लिए 9 अस्थाई कोच प्रैक्टिस कराते हैं।

50 लाख खर्च कर तैयार हुआ महज एक कोर्ट

पिछली बसपा सरकार में बॉस्केटबॉल गेम के लिए 50 लाख रुपए सैंक्शन भी हुए और रकम मिली भी लेकिन उस 50 लाख  रुपए में से महज एक कोर्ट ही  तैयार हो सका। वह भी चाइना का। बॉस्केट पोल जो लगाए गए हैं वे मानक को पूरा नहीं करते। बॉस्केट तो अभी तक लगाया ही नहीं गया। फ्लड की सुविधा दी गई है। लेकिन उसमें करंट नहीं दौड़ता और न उस क्वालिटी लेवल के लाइट्स फिट किए गए हैं।

चालीस साल बाद भी नहीं बदल सकी सूरत

स्पोट्र्स स्टेडियम स्टेट गवर्नमेंट के अंडर तो आ गया लेकिन चार दशक के बाद भी उसकी सूरत में आज भी कोई खास बदलाव नहीं आया है। स्टेडियम की दीवार जबसे बनी, आज तक रिपेयर नहीं हुई। कई जगहों से टूट चुकी है। कभी भी धराशाई हो सकती है। एथलीट इवेंट्स के ट्रैक बनाए गए हैं, लेकिन गड्ढों और जंगली घास के बीच वह नजर ही नहीं आती। बास्केट बॉल कोर्ट तो है लेकिन बास्केट करने के लिए रिंग नहीं है। किसी क्वालिटी टर्फ पर हॉकी और फुटबॉल की प्रैक्टिस करने के बजाय प्लयेर्स बड़ी-बड़ी जंगली घास पर प्रैक्टिस करने को मजबूर हैं। क्रिकेट की प्रैक्टिस के लिए प्रॉपर पिच नहीं है। वॉलीबॉल प्रैक्टिस के लिए महज नेट लगाकर खानापूर्ति की गई है। स्टेडियम का नजारा किसी मेले से कम नहीं होता, जहां एक ही जगह पर लिमिटेड स्पेस की वजह से सभी प्लेयर्स अपने-अपने गेम की प्रैक्टिस करते नजर आते हैं। यह तो महज बानगी है इंडोर गेम्स में लेटेस्ट इक्विपमेंट की भारी कमी है। जब इक्विपमेंट होता है तो स्पेस नहीं मिलता और जब स्पेस होता है तो इक्विपमेंट नहीं मिलते। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक ही हॉल में जिमनास्ट और बैडमिंटन की प्रैक्टिस कराई जाती है।

अटका हुआ है proposal

परमानेंट कोच आते हैं और ट्रांसफर होकर चले जाते हैं। टेंपरेरी कोचेस को परमानेंट करने का प्रपोजल सालों से शासन लेवर पर अटका हुआ है। कई चरणों में शासन से बातचीत भी हुई लेकिन फंड और पॉलिसीज की कमी के चलते हर बार अधर में ही लटक जाता है।

Trial ground बना

स्टेडियम की हालत और उसमें मौजूद इंफ्रास्ट्रक्चर इस लायक नहीं है कि यहां पर कोई नेशनल इवेंट ऑर्गनाइज किया जा सके। कभी-कभार बैडमिंटन में नेशनल लेवल के इवेंट्स ऑर्गनाइज होते हैं। नहीं तो स्टेडियम में केवल स्टेट लेवल के ही इवेंट्स ऑर्गनाइज हुए हैं। वह भी यदि स्पोट्र्स डायरेक्टरेट मेहरबान हुआ तो। स्टेडियम महज ट्रायल मैचेज तक ही सिमट कर रह गया है।

खुद करनी पड़ती है व्यवस्था

स्टेट इवेंट्स की बात तो दूर की है, स्टेडियम यदि डिस्ट्रिक्ट इवेंट्स ही ऑर्गनाइज करता है तो छीकें आ जाती हैं। स्टेडियम का महज एक ही हॉस्टल है। वह भी फुटबॉल का। इसके अलावा यहां पर कोई भी हॉस्टल या डोरमैट्री नहीं है जहां पर प्लेयर्स को ठहराया जा सके। इवेंट्स ऑर्गनाइज होते हैं तो प्लेयर्स ठहरने और खाने की व्यवस्था स्वयं ही करते हैं।

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एक हॉल में जिमनास्ट, बैडमिंटन

बेहतर खेल और खेल सुविधाओं का दावा ठोकने वाले विभाग को स्पोट्र्स स्टेडियम के हालात मुंह चिढ़ा रहे हैं। स्टेडियम के एक ही हॉल में जिमनास्ट और बैडमिंटन के प्लेयर्स एक साथ प्रैक्टिस करते हैं। जबकि दोनों प्लेयर्स को प्रैक्टिस के पर्याप्त स्पेस की आवश्यकता है। खासकर बैडमिंटन के लिए। जिमनास्ट के प्लेयर्स पुराने टेक्नीक वाले इक्विपमेंट से प्रैक्टिस करने को मजबूर हैं। नए इक्विपमेंट को लगाने के लिए हॉल में स्पेस ही नहीं है। इन्हीं हालातों से यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि इंडिया के प्लेयर्स जिमनास्ट में दूसरे देशों के प्लेयर्स के सामने क्यों ठहर नहीं पाते।

बच्चों में जोश तो गजब का है, कुछ करने का जज्बा भी है लेकिन बिना कोच के दम तोड़ देता है। बेस्ट क्वालिटी के इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी के साथ कोचेस की कमी है। स्टेडियम में सालों से टेंपरेरी कोच ट्रेनिंग दे रहे हैं। शासन को कई बार प्रपोजल गया और सहमति भी बनी पर कोई ऐसी पॉलिसी नहीं बन पाई जिससे प्रपोजल पास हो सके। ऐसा नहीं है कि अस्थाई कोच के हाथों प्लेयर्स नहीं निकलते। हमारे प्लेयर्स भी स्टेट और नेशनल लेवल के लिए कैंप कर चुके हैं।

- ओपी कोहली, मंडल प्रेसीडेंट, एनआईएस एडहॉक एसोसिएशन

स्टेट की तरफ से लिमिटेड फंड ही आता है। डायरेक्शंस दिए जाते हैं कि इसी फंड में जरूरतों को पूरा करें। रेग्युलर और परमानेंट कोच व स्टाफ की सैलरी, कॉम्पिटिशंस ऑर्गनाइज करने का खर्च और हॉस्टल का खर्च इसी फंड से निकालना पड़ता है। हालांकि ईयरली फंड इन्हीं खर्चों के लिए आता है। बाकी इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए डिमांड भेजी जाती है। फंड आता है तो उसी अनुसार इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार होता है।

- एके पांडेय, फुटबॉल कोच व डिप्टी स्पोट्र्स ऑफिसर

स्टेडियम में वे सभी बेसिक इंफ्रास्ट्रक्चर मौजूद हैं जिस लेवल के लिए इन प्लेयर्स को आवश्यकता है। इन्हीं इंफ्रास्ट्रक्चर की बदौलत हमारे प्लेयर्स स्टेट और नेशनल इवेंट के लिए कैंप करते हैं। इंटरनेशनल लेवल पर कॉम्पिटीशन बीट करने के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करने के भरसक प्रयास किए जा रहे हैं। समय-समय पर प्रपोजल भी भेजे जाते हैं। जैसे-जैसे मंजूर होता है उसी के अनुसार तैयारी की जाती है।

- संतोष शर्मा, जिमनास्ट कोच व डिप्टी स्पोट्र्स ऑफिसर