मैं हूं राम वाटिका पार्क

कबाड़ की शक्ल में कई साल से पड़ा पार्क, जनता की संवेदना भी नहीं हुई नसीब

BAREILLY: हर रोज मेरी निगाह के सामने से लोग गुजर के चले जाते हैं। मैं देखता हूं उनकी निगाहों में और महसूस करता हूं कि मेरे लिए उनकी नजरों में कोई दिलचस्पी नहीं। हां गार्ड की नजरों से बचकर कॉलोनी से गुजरने वाले मवेशी जरूर मुझे अपना समय देते हैं। इस रहम के बदले में मिलने वाली उनकी गदंगी मेरे सिर माथे सजी रहती है, मेरी खुशी से नहीं बल्कि मजबूरी में। या यूं कहूं कि मैं इस हालत में ही नहीं जहां अब अपना गम बयां भी बयां कर सकूं। ऐसा लगता है जैसे यह हक भी बहुत पहले मुझसे छिन चुका है। मैं हूं रामवाटिका कॉलोनी का पार्क। अब तो गंदगी, झाडि़यां और इस सबसे ऊपर लोगों की बेरुखी ही मेरी पहचान है, जो शायद फिर कभी न बदले।

बंगले-कोठी के बीच है मेरा घर

शहर की पॉश कॉलोनी में गिनती होती है मेरे घर की। जहां तक नजर जाती है वहां तक बंगले और कोठी के नजारे देखने को मिलते हैं, लेकिन ऐसी शानदार कॉलोनी में मेरी हालत मखमल के कपड़े में टाट का पैबंद जैसी ही है। भले ही मेरे गेट से महादेव के दर्शन हो जाते हो, लेकिन उससे पहले ही रास्ते की गंदगी नजर आती है। कॉलोनी के बच्चों के लिए कभी झूले लगाए गए थे, जो अब जंग खाए और टूटी हालत में अपना अतीत याद करते हैं। तपती गर्मी में भी मेरे आंगन में न तो बैठने की अच्छी व्यवस्था है और न ही यहां आने की कोई वजह तो इंसान अब यहां कदम नहीं रखते।

अभिशाप से छुटकारा नहीं

बेशक मुझे इस बात का अहसास है कि नगर निगम को मेरी परवाह नहीं। उसे शायद मेरे होने से मतलब भी नहीं। इसलिए दूर बैठे मेरे अपनों से अब कोई उम्मीद नहीं, लेकिन मेरे करीबियों ने भी मुझे मेरे हाल से उबारने की कोशिश नहीं की। किसी ने मेरी बदहाली पर पुरासाहाल तक न लिया। उम्मीद थी कि शायद भगवान की मूर्ति का होना ही मुझे इस अभिशाप से मुक्ति दिला देगा, लेकिन लोगों ने मुझे तो दूर भगवान को पूछने की सुध न ली। कुछ समय पहले आई आंधी ने मेरे आंगन का एक पेड़ गिरा दिया था। अब वह पेड़ भी सूखकर मुरझा गया है, पर आते-जाते मेरी कॉलोनी के बाशिदों को इसे हटवाने का ख्याल भी शायद फिजूल का लगता है।