बच्चे घर में कैद
अंकित का कहना है कि शहर के ज्यादातर मैदान बच्चों के लिए प्ले ग्राउंड के लिए हैं। जहां बच्चों को आसानी से क्रिकेट खेलते देखा जा सकता है लेकिन चुनाव के दौरान तो समझो धारा 144 बच्चों पर लग जाती है। इलेक्शन में कैंडीडेट को तो पूरी आजादी मिल जाती है और बच्चे घर में कैद हो जाते हैं।
Students को भी problem
रितु खेड़ा टीचर हैं। चुनाव के दौरान उन्हें सबसे बड़ी चिंता बच्चों की पढ़ाई की रहती है। उन्होंने बताया कि सख्ती के बावजूद कैंडीडेट के माइक की आवाज निर्धारित मानकों से ज्यादा होती है। ऐसे में अगर एग्जाम हो तो ये कंगाली में आटा गीला होने जैसी बात होती है। अच्छी एजुकेशन प्रोवाइड करने का दावा करने वाले खुद ही व्यवधान डालते हैं। कुछ यही मानना है स्टूडेंट मानसी सक्सेना का। मानसी ने बताया कि एग्जाम के दिनों में कैंडीडेट्स की रैलियों की आवाज उनके इस लक्ष्य को डिगाने का काम करती है। एडमिनिस्ट्रेशन को स्टूडेंट्स का भी कुछ ख्याल रखना चाहिए।
दिक्कत तो होती है
घर के सामने मैदान हो ये सभी लोगों की इच्छा होती है लेकिन कभी ये ही इच्छा अभिशाप में बदल जाती है। जब कॉलोनी में बने पार्क राजनीति का अखाड़ा बन जाते हैं तो पार्क के आसपास के निवासियों के लोगों के दिमाग में ये सवाल घूमने लगता है कि आखिर ये चुनाव क्यों आ जाते हैं? आईजी आवास के नजदीक और वुडरो स्कूल के ठीक सामने बने इस पार्क के आसपास रहने वालों का हाल भी बेहाल है। कुछ ऐसा ही मानना राजकमल का है। उन्होंने बताया कि आयोग की सख्ती की वजह से इस बार कुछ राहत है। नहीं तो नामांकन के बाद से ही कैंडीडेट अपने समर्थकों के साथ ढोल नगाड़े के साथ शहर के बड़े मैदानों की ओर का रुख करते थे। उन्होंने बताया कि इन मैदानों से क्या परेशानी होती है। इस बारे में वहीं बेहतर बता सकता है जो इन पार्क के बगल में रहते हैं।
असुरक्षा का रहता है डर
विवेक कुमार का कहना है कि जब-जब चुनाव नजदीक आते हैं तो हमारे घर रिश्तेदारों का फोन घनघनाना शुरू हो जाता है। कोई भी चुनाव के पीरियड में हमारे घर आना पसंद नहीं करता। उन्होंने कहा कि हम अगर कहीं जाना चाहते हैं तो हमें अपना प्रोग्राम नेताओं के हिसाब से बनाना पड़ता है। उन्होंने बताया कि हमें हर वक्त ये चिंता सताती रहती है कि कहीं नेताओं की रैलियां से उनके परिवार में कहीं असुरक्षा का माहौल न पैदा हो जाए।
टीवी चैनल बदलते हैं
वहीं विशात खान का कहना है कि इन पार्कों के पास रहने वाले मजबूर श्रोता हैं। कुछ तो ऐसे हैं जिनका राजनीति से कुछ लेना देना नहीं है। टीवी में भी अगर भूल से नेता दिख जाएं तो वे टीवी के चैनल बदल देते हैं लेकिन जब वे ही नेता उनके घर के बगल में मौजूद पार्क में अपना प्रवचन देते हैं तो उन्हें सुनना एक मजबूरी है। क्या करें घर छोड़ कर तो भाग नहीं सकते। ऐसे में ये सुनना हमारी मजबूरी है।
कांग्र्रेस मुसलमानों के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक स्तर के अध्ययन के लिए गठित सच्चर समिति की सिफारिशों को लागू करने के लिए प्रतिबद्ध है।
-सोनिया गांधी
हम मुसलमान भाइयों से कहना चाहते हैं कि उन्हें सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया जाएगा। हम दिल्ली की सरकार पर दबाव बनाएंगे। न मानने पर अपने स्तर से नियम कानून बनाएंगे ताकि राज्य सरकार ही मुसलमानों को आरक्षण दे दे।
-मुलायम सिंह यादव
जिस तरह सत्ता विरोधी लहर 2007 में तत्कालीन सत्तारूढ़ दल समाजवादी पार्टी के खिलाफ चल रही थी, इस वक्त कमोबेश वही स्थिति बसपा के लिए है। बढ़ा मत प्रतिशत सरकार के प्रति गुस्से का इजहार है।
-राजनाथ सिंह
तिरछी नजर
-डॉ। एजाज पापुलर 'मेरठी'
हरेक तरह की सियासत में ढल के आया हूं
मैं मुश्किलों से वहां से निकल के आया हूं
टिकट दिया नहीं जब मेरी पार्टी ने मुझे
तो अब चुनाव में टोपी बदल के आया हूं