क्या हम सब भूल गएअपनी विरासत को
वल्र्ड हेरिटेज डे पर आई नेक्स्ट ने शहर की धरोहरों की थाह लेने की कोशिश की। इसमें जो सच सामने आया वह वास्तव में बहुत ही शर्मनाक है। हम विकास की अंधी दौड़ में इतने आगे निकल गए कि अपनी विरासत को सहेजना ही भूल गए। इसी अनदेखी में इनमें से कुछ तो लुप्त हो चुकी हैं और कुछ लुप्त होने की कगार पर हैं। अब जरूरत इस बात की है कि बरेलियंस ही धरोहर को संजोने के लिए अवेयर हों ताकि हमारे बाद आने वाली पीढ़ी भी हमारी विरासत से रूबरू हो सके।
सेंट स्टीफेंस चर्च
दिन में भी वीरानी
बड़े से ग्राउंड में बना पुरानी ईंटो का चर्च और सूखे पत्तों से ढकी इसकी जमीन भरे दिन में भी वीरानी का एहसास कराती है। यह कैंटोनमेंट क्षेत्र में बने 150 साल से ज्यादा पुराने चर्च की बात है। हालांकि इसके जो अभिलेख मौजूद हैं वह चर्च की शुरुआत 1862 में दिखा रहे हैं। इस चर्च में अब भी 150 साल पुराना फर्नीचर, पियानो और संगमरमर की पीठ मौजूद है। इसकी धन्नी से बनी छत अभी तक इसके ऐतिहासिक होने का सबूत दे रही है। यह चर्च अंग्रेजों के जमाने में सैनिकों के लिए बनाया गया था। इसका सुबूत यहां रखे फर्नीचर में रायफल रखने की जगह देखकर आसानी से लगाया जा सकता है। इसकी खासियत यह है कि इस चर्च को जिस ओर से भी देखें यह एक जैसा ही दिखता है। इस चर्च के बुर्ज, कंगूरे ही इसकी शान हैं पर अब इस धरोहर के अपनी पहचान खोने का डर बन गया है।
बारादरी हाउस
बेहाल है शहामत अली का बंगला
सैलानी में बना बारादरी हाउस 250 साल पहले जॉर्डन से मुगलों के साथ आए शहामत अली खां ने बनवाया था। इस समय उनकी पांचवी पीढ़ी इसके एक हिस्से में रह रही है। उस समय शहामत अली को 484 गांवों की रियासत सौंपी गई थी। वर्तमान में शहर का प्रसिद्ध बाजार शहामतगंज भी उनके नाम पर ही बना था। बारादरी हाउस के एक हिस्से का तो जीर्णोद्धार हो चुका है पर आधे से ज्यादा हिस्सा बदहाली का शिकार है। स्थिति इतनी खराब है कि बरसात के दिनों में बारादरी हाउस के बाहर की रोड बंद कर दी जाती है। इसकी वजह यह है कि हाउस इतना जर्जर है कि कभी भी गिर सकता है। इस समय इस जर्जर हिस्से में भी कुछ लोग झुग्गी बनाकर रहते हैं। इसकी छत और दीवारें पूरी तरह से गिरने की कगार पर हैं। कहा जा सकता है कि शहर की यह पहचान कभी भी धराशाई हो सकती है।
बीबी जी की मस्जिद
त्याग की अनूठी निशानी
शहर की घनी बस्ती के बीच बनी एक इमारत। बाहर से देखकर तो यह एहसास भी नहीं होता कि हम एक तकरीबन 250 साल पुरानी मस्जिद के बाहर खड़े हैं। वास्तव में यह मस्जिद रुहेलखंड की स्थापना करने वाले रुहेला सरदार नवाब हाफिज रहमत खान की बेटी बीबी जी ने बनवाई थी। मस्जिद में रहने वाले शकील असर ने बताया कि बीबी जी ने शादी नहीं की थी। शादी के लिए इकट्ठा किए गए दहेज के खजाने से उन्होंने यह मस्जिद बनवाई थी। उन्होंने अपने वालिद से कहा था कि उनकी शादी करने की बजाए आवाम के लिए उनके नाम से एक मस्जिद बनवा दी जाए। ताकि लोग उन्हें सदियों तक याद करते रहें। फिलहाल इस मस्जिद का टॉम्ब तो पुराना है पर बाकी जीर्णोद्धार कराया जा चुका है। अभी मस्जिद में मदरसा भी चलता है। कहते हैं इस मस्जिद में आला हजरत ने भी इबादत की थी।
मकबरा नवाब हाफिज रहमत खां
संरक्षण के बावजूद दुर्दशा
अफगानिस्तान से आए रुहेला सरदार नवाब हाफिज रहमत खां। उन्होंने न केवल रुहेलखंड की स्थापना की बल्कि उसे संवारा और दुनिया के नक्शे में एक अलग पहचान दिलवाई। आज उनका ही मकबरा पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित होने के बावजूद दुर्दशा का शिकार हो रहा है। 1780 में उनके बेटे नवाब जुल्फिकार खान द्वारा बनवाए गए इस मकबरे में 60 के दशक तक एक बड़ा सा टॉम्ब था। कहते हैं इस टॉम्ब को रुहेलखंड क्षेत्र की राजधानी आंवला से देखा जा सकता है। स्थानीय लोगों के मुताबिक, 70 के दशक में आए एक तूफान में यह टॉम्ब जर्जर होकर गिर गया। उसके बाद पुरातत्व विभाग के संरक्षण में होने की वजह से विभाग ने इस टॉम्ब की जगह छत बनवा दी। यह मकबरा चापट और ककैया ईंटों से बनवाया गया। इसमें चारों ओर छत पर जाने की सीढिय़ां बनी हुई हैं। कहीं से ऊपर जाकर नीचे आया जा सकता है। वर्तमान में इस मकबरे में जानवर भी घूमते हैं और इसके आस-पास सफाई नहीं हुई है।
बरेली कॉलेज
बरेली कॉलेज भी शहर की ऐतिहासिक इमारतों में से एक है। इस वर्ष कॉलेज अपना 175वां स्थापना वर्ष मना रहा है पर अफसोस की बात यह है कि 1837 में बने इस कॉलेज का फाउंडेशन स्टोन ही गायब हो चुका है। कॉलेज के ऐतिहासिक होने का सबूत केवल कॉलेज ऑडिटोरियम के बाहर लगे 150वें वर्ष के स्टोन से लगाया जा सकता है। इस स्टोन पर वर्ष 1987 अंकित है। कॉलेज का फाउंडेशन स्टोन भी कॉलेज ऑडिटोरियम के पास इंग्लिश डिपार्टमेंट के बाहर लगा हुआ था। पर अब वह अपनी जगह पर नहीं है। यह कॉलेज 1837 में लेफ्टिनेंट गवर्नर सर चाल्र्स मेटकाफ के समय में गवर्नमेंट कॉलेज के रूप में शुरू हुआ था। इसके बाद यह कॉलेज 1857 की क्रांति का भी गवाह बना। क्रांति के उस वर्ष में कॉलेज को एक साल के लिए बंद कर दिया गया था। वर्तमान में कॉलेज के प्रतिस्थापना प्रभारी डॉ। दीपक आनंद ने बताया कि कॉलेज का फाउंडेशन स्टोन अपनी जगह पर नहीं है पर वह कॉलेज के पास सुरक्षित है और जल्द ही इसे फिर से लगवाया जाएगा।
धरोहरों को बचाने के लिए बढ़ाइए हाथ
बरेली में ऐतिहासिक महत्व वाली धरोहरें अपना अस्तित्व खोती जा रही हैं। सरकारी पहल के इंतजार में उनका संरक्षण खतरे में है। ऑर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया भी इन्हें संरक्षण देने से ज्यादा तकनीकी दिक्कतों पर काम करने में लगा रहा है। दर्जनों में से सिर्फ एक ऐतिहासिक धरोहर अहिच्छत्र को संरक्षित श्रेणी में शामिल करने की कोशिशें चल रही हैं। हालांकि वह भी राज्य पुरातत्व विभाग से पूरी तरह से एएसआई को ट्रांसफर नहीं हो पाई हैं। ऐसे में बरेलियंस की जिम्मेदारी बढ़ गई है। सरकारी कंधों के इंतजार में बहुमूल्य धरोहरों को ध्वस्त होने से बचाने के लिए पुख्ता कदम उठाने की जरूरत है।
मिट्टी में न हो जाएं दफन
कैटेगराइज करते समय हम सिर्फ इमारतों को धरोहर मानने की गलती कर देते हैं। हकीकत इससे इतर है। हजारों साल पुरानी कई सभ्यताएं मिट्टी के नीचे दबी होती हैं। मिट्टी में दबे बहुमूल्य सभ्यताओं के अवशेष अवैध खनन से नष्ट हो रहे हैं, जीता जागता उदाहरण गोकुलपुर है।
भट्टे वाले ले गए मिट्टी
यहां तीन हजार साल पुरानी सभ्यता के चिन्ह मिट्टी के टीलों में मौजूद हैं। आरयू ने ऑर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया से लाइसेंस लिया था। जब विवि की टीम स्पॉट पर नाप जोख के लिए पहुंची तो पता चला कि ईट भट्टे वाले वहां की मिट्टी खोद कर ले गए। वर्ष 2009 में हुए इस प्रकरण में तीन हजार साल पुरानी सभ्यता की बहुमूल्य निशानियां मिट्टी में ही दफन हो गईं। इससे पहले 2006 में बीसलपुर के पास अभयपुर गांव में एक हजार ईसा वर्ष पुराने अवशेष मिले थे, जो मृदभांड सभ्यता के थे। इस खुदाई में नरकंकाल भी मिले थे।
बहुत कुछ सहेजना बाकी
हमारा सूबा पुरातत्व दृष्टिकोण से हमेशा से समृद्ध रहा है। अंग्रेजों द्वारा निर्मित कई चर्च और इमारतें बरेली में हैं। इनमें सेंट स्टीफन चर्च, प्रीविल बैप्टिस्ट चर्च, बरेली कॉलेज की इमारत और वार मेमोरियल ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। इसके अलावा यहां कई मकबरें भी हैं, जो उचित देखभाल की कमी से बदहाल हैं। खान बहादुर खान की मजार, बारादरी हाउस और हाफिज रहमत खान के मकबरे का हाल बेहाल है। सेंट स्टीफन चर्च ईस्ट इंडिया कंपनी ने बनवाया था।
होना पड़ेगा जागरूक
मोन्यूमेंट्स की उपेक्षा का ठीकरा गवर्नमेंट इंस्टीट्यूशंस पर फोड़कर हम खुद को बचा नहीं सकते। धरोहरों को सहेजने के लिए हमें पहल करनी होगी। सरकार ने आर्कियोलॉजिकल अथॉरिटी डेवलप की है। इसकी उम्र भले ही दो साल हो गई पर ये अभी भी नवजात की तरह है। रीजनल लेवल पर यह अथॉरिटी तय करती है कि ऐसी धरोहरों को अतिक्रमण से बचाया जा सके। खास बात ये है कि बरेली में अथॉरिटी का कही नामो निशान भी नहीं है। संरक्षण के लिहाज से सख्त नियमों में एक नियम यह भी है कि ऐसी धरोहरों के 200 मीटर की रेंज में निर्माण कार्य न किए जाएं। यहां नियमों का खुला उल्लंघन किया जा रहा है।
इन धरोहरों को चाहिए आपकी मदद
-बेगम की मस्जिद आंवला
-हाफिज रहमत खान का मकबरा बाकरगंज
-हरमीत शाहदाना का मकबरा बाकरगंज
-लाल पत्थर का स्तंभ फतेहगंज
-वहीदपुर में एतिहासिक इंडो सभ्यता के सिक्के
-रामनगर में ऐतिहासिक साइट
-रामनगर में अहिच्छत्र
-रामनगर किला
-रामनगर में चिकटिया खेरा
-रामनगर में गंधन सागर
-रामनगर का कटारी खेरा
-रामनगर का ऐतिहासिक स्तुप
-कौनवारू ताल पर बौद्ध टीला
-आंवला के पास ऐतिहासिक स्थान
हमारे पास जो एप्लीकेशन आती है। उन्हीं पर काम किया जाता है। बरेली में अहिच्छत्र को संरक्षित घोषित कर दिया गया है। अब उसे एएसआई को ट्रांसफर करने की तैयारी भी चल रही है। राज्य पुरातत्व विभाग धरोहरों के संरक्षण के लिए सदैव प्रयासरत रहता है।
-पीके सिंह, उपनिदेशक, राज्य पुरातत्व विभाग
Report by: Nidhi Gupta, Abhishek Mishra
Photo: Hardeep Singh Tony