बरेली (ब्यूरो)। चीनी लोक कथा है, एक किसान के घर के पास एक पहाड़ी थी। उस पहाड़ी की वजह से किसान के आंगन में धूप नहीं आती थी। उसके बच्चे धूप में नहीं खेल पाते थे। एक दिन किसान हथौड़ा लेकर पहाड़ी पर चढ़ गया और उसे तोडऩे की कोशिश शुरू कर दी। किसान के दोस्त ने पूछा कि वह पहाड़ी क्यों तोड़ रहा है? किसान ने कहा कि उसके आंगन में धूप नहीं आती। दोस्त ने पूछा, क्या वह इस पहाड़ को तोड़ पाएगा। किसान ने कहा, थोड़ा पहाड़ मैैं तोड़ूंगा, थोड़ा मेरा बेटा तोड़ेगा। थोड़ा उसका बेटा तोड़ेगा और एक दिन मेरे आंगन में धूप जरूर आएगी। तिब्बतियों का अपने देश, अपनी धरती, अपनी संस्कृति को लेकर विश्वास इतना ही अटल है। भारत में पैदा होकर 58 साल गुजार चुकने के बाद उन्हें पूरा यकीन है कि एक दिन वह तिब्बत जरूर लौटेंगे। इन दिनों बरेली के बिशप मंडल इंटर कॉलेज में मिनी तिब्बत आबाद है। वह यहां सर्दियों के कपड़े सेल करने के लिए हर साल आते हैैं।

बिशप मंडल में आबाद है दुनिया
बिशप मंडल स्कूल के ग्राउंड में तिब्बती बाजार सज गया है। यहां तिबत्तियों की एक पूरी दुनिया आबाद है। पीठ पर बच्चे बांधे इधर-उधर घूमती महिलाएं। गप्पे हांकते युवा और बुजुर्ग। गर्म कपड़ों के काउंटर संभालती लड़कियां। ये लड़कियां चतुर-सुजान है। वो मार्केटिंग के फंडे जानती हैैं। कोई कस्टमर उनके काउंटर पर चला भर जाए। वह सामान बेचकर ही दम लेती हैैं।

एक दिन लौट जाएंगे तिब्बत
तिब्बतियों की सांसों में बसता है तिब्बत। 1951 से तिब्बतियों की दूसरी और तीसरी जनरेशन आ गई है। यह सभी भारत में पैदा हुए हैैं। इन्होंने तिब्बत को नहीं देखा है। इसके बावजूद तिब्बत इनके सपनों में आता है। वह अपनी मातृ भूमि को याद करते हैैं। बातचीत में युवा कहते हैैं कि एक दिन हमारा देश आजाद हो जाएगा और हम अपने वतन लौट जाएंगे।

वहां हमारा धर्म और संस्कृति है
आप भारत में पैदा हुए। आपको यहां प्यार, सम्मान और रोजगार मिला है। फिर क्यों लौटना चाहते हैैं तिब्बत? इस जटिल सवाल का जवाब वह बहुत सरलता से देते हैैं। 57 साल के पासंग कहते हैैं, तिब्बत में हमारा धर्म और संस्कृति है। हम वापस जाएंगे एक दिन। हम हर दिन तिब्बत को याद करते हैैं। सवाल दो रोटी का नहीं है। सवाल है स्वाभिमान और संस्कृति का।

तिब्बती भीख नहीं मांगते
तिब्बती मेहनतकश हैैं। वह सम्मान के साथ जीना जानते हैैं। उन्हें जीने की कला के बारे में पता है। वह एक समाज के रूप में संगठित तौर पर रहते हैैं और मेहनत करते हैैं। तिब्बती भीख नहीं मांगते हैैं। उनका जीवन सरस और सहज है। वह कम में भी खुश रहना सीख चुके हैैं। उनके समाज में महिलाओं की स्थिति मजबूत है और वह भी मेहनतकश हैैं। ज्यादातर दुकानों पर काउंटर वही संभालती हैैं।

फूड कल्चर का ध्यान
जब उनसे बात की गई तो उन्होंने बताया कि हमने अपना फूड कल्चर बचाकर रखा है। जैसे शोरबा, यातुंग की मछली, ल्हासा का चांपा, लिनची का मुर्गा, चटनी भी बहुत मशहूर है। साथ ही मोमोज, चाऊमीन भी खाते हैैं। उन्होंने बताया कि तिब्बती व्यंजन में बहुत से औषधि की क्षमता रखते हंै जो बहुत ही लाभदायक होता है।

हमें तो प्यारा बस अपना काम
मैंने दस तक ही पढ़ाई की है। इसके बाद काम में लग गए। मैं ब्यूटीशियन बनना चाहती हूं। आगे चलकर पॉर्लर का कोर्स करूंगी। मेहनत से कमाना बहुत अच्छा लगता है। यही उम्मीद है कि आगे कुछ बनकर मां-बाबा का नाम रोशन करूंगी।
करीना

यहां अपना कारोबार करने आती हूं। मैं तो कम ही पढ़ पाई, लेकिन अपने बच्चों को मेहनत करके खूब पढ़ाऊंगी। हम लोगों को मेहनत से कमाना बहुत ही अच्छा लगता है।
नेहा

मैैंने ब्वाय फ्रेंड नहीं बनाया है। यह सब मुझे पसंद नहीं है। मेरा मन मेरे काम में लगता है। पढ़ाई में मन ही नहीं लगा, इसलिए दस तक ही पढ़ाई की और काम में लग गई। मां-बाबा का हाथ बंटाना मुझे बहुत अच्छा लगता है।
काव्या

मेरी दूसरी जनरेशन यहीं जन्मी है। मेरी एज 57 साल हो गई। लेकिन मुझे हमेशा अपने तिब्बत की याद आती है। यही उम्मीद लगाए बैठे हैं कि एक दिन अपने मुल्क जरूर वापस लौटेंगे। हर वक्त अपनी तिब्बत की याद आती है।
पासंग